पता नहीं लोग उजाले को ही क्यों देखते हैं,हमने माना कि ज्ञान सूर्य तुल्य है , शक्ति से परिपूर्ण है , वैभवशाली है और आकर्षक है पर सम्पूर्ण नहीं है । आखिरकार इसका दूसरा पक्ष का भी अपना एक महत्व है । किसी स्थिति या परिस्थिति का वास्तविकता जानने के लिये कम से कम दोनों पक्षों का जानना जरूरी है। कभी कभी अज्ञान का अंधियारा भी ज्ञान रूपी सुबह का ऐसी गहनता से अनुभव करा देता है जो ज्ञान सूर्य से कभी संभव न हो सका।अतः: कभी अनदेखी तस्वीरों में भी देखने का साहस करना चाहिए। आजकल हर सामान्य शख्स घटनाओं को कम से कम दो आयामों से देखने लगा है अब तो द्वि आयामी और त्रिआयामी से आगे बढ़ बहुआयामी की बातें लोग करते हैं।सुबह से एकांत में बैठे "विवेक" अब अखबार के मोटे काले अक्षरों के कुछ हेडिंगों को धीरे धीरे पन्नों को पलटते हुए पढ़ते जा रहे थे, तो हमें यह महसूस हो रहा था कि किसी प्रकरण को लेकर कुछ बातों के थपेड़े उनके प्रज्ञा और चेतना को झकझोर रहे हैं। असत्य के अंधियारे के आवरण में सत्य की लौ लिए दीपक जलता तो है पर अपने अस्तित्व के बचाने के गर्ज से झरोखों से आये अचानक बयार के ख़तरों से सावधान रहना पड़ता है।
कहने का तात्पर्य है कि पता नहीं, कब व्यक्ति के मुंह से निकला अनजाने या असावधानी से निकला "शब्द" बदलते समय के प्रवाह में इस कदर उसकी कमजोरी बना दिया जाय ? और शातिर शकुनियों के हथकंडे, बदहवास हो हमलावर बनकर ,उसके अस्तित्व मिटाने तक किसी प्रकार की कोताही न बरते ।पास में बैठे पड़ोसी बी० टेक की पढ़ाई कर रहा "प्रज्ञान" ऊपर से शान्त, पर अन्दर से गम्भीरतापूर्वक 'विवेक' के ललाट पर शिकन से गहराते रेखाओं को पढ़ रहा था और अन्तर्द्वन्द से उठे प्रश्नों से दो चार हो रहा था। उसे अच्छी तरह समझ में आ रहा था कि जब विकृतियां चिन्तन क्षेत्र में घुस गई हों और दृष्टिकोण गड़बड़ा गया हो तो क्या किया जा सकता है पर एक प्रश्न ने उसको बुरी तरह उलझा दिया, प्रश्न था सत्य की जांच कर शख्सियत की ताकत के अनुसार कितनी मात्रा में झूठ मिलाया जाय कि वह उसके प्रभाव में पच जाय? सवाल सोच का है । अब तो समाज की दिशा देने का ठेका लेने वाले लोग मानवधर्म, राज धर्म और राष्ट्र धर्म शब्दों की व्याख्या खिल्ली उड़ाने जैसा बकवास करनें में प्रवीणता हासिल किए हुए हैं । वे जानते हैं कि इनकी सार्थक और गम्भीर व्याख्या भीड़ जुटाने का माध्यम नहीं बन सकता । उन सभी का मानना है कि परम्पराओं और नीतियों के अनुसार व्याख्या हताश लोग करते हैं या फिर पहाड़ों की गुफाओं में बैठे संत महात्मा। वक्त के धारा में नया आकार लेते समाज में पैठ बनाने के लिए डीप फेक, अर्ध सत्य आर्टीफिशियल इंटैलिजेन्स आदि शब्द मायने रखने लगे हैं । संस्कृत एक श्लोक अब अर्थ हीन सा है जिसका हिन्दी अर्थ है कि प्रिय लगे पर असत्य हो या सत्य हो पर अप्रिय लगे दोनों परिस्थितियों में चुप रहना चाहिए। सत्य के साथ प्रिय लगे तभी बोलना चाहिए। अर्ध सत्य भी इतना खतरनाक होता है क्योंकि जनमानस में प्रिय या अप्रिय लगने की गुंजाइश ही नहीं रखी जाती।अब शकुनि मानसिकता वाले इतने शातिर हो गये हैं कि अपने पक्ष का उतना ही सत्य बताते हैं जो दूसरों को प्रिय लगे और अपने विपरीत चल रहे बहाव को मोड़ दे और उसके पक्ष की बयार बहने लगे और विरोधियों को बेबस बना उस दिशा में पीठ करनी पड़े । हां! इसमें सामने वाले का छिपा सत्य, या सत्य न भी हो तो भी सत्य बना अप्रियता की आग भड़का माहौल अपने पक्ष में बना लें। गुर्गे लोगों को दुधारी तलवार पकड़ा दी जाती है। इनका कोई दीन ईमान होता थोड़े है, जहां भी ब्लैकमेल कर कमाईं हो जाय उसकी तरफ हो जाते हैं।अगर आवक पर्याप्त और लम्बे समय तक हो तो क्या कहने, यह कहने में भी नहीं हिचकते "ऊंट बिलैया ले गई,तो हमको हांजी हांजी कहना।"
दोनों ही सुबह की ठंडी और ताजगी भरी हवाओं का ऊपर से शान्त पर मदमस्त होकर आनन्द ले रहे थे। दोनों के चेहरे अलग अलग डायरेक्शन में घूमे हुए थे पर अन्तर्मन के विचारों के उबाल की बुनियाद लगभग एक ही थी। बाहर से मौन थे,विचार मुखर नहीं हो रहे थे, पर अंदर टेलीपैथी के तार परस्पर जुड़े हुए थे।
तभी उन दोनों की सीनियर सेकेंडरी क्लास की बैचमैट मिस " चेतना" सुबह न्यूट्रिशंस का काढ़ा तीन अलग गिलास में लेकर आई। और सेंटर टेबल पर रखकर अपने सामने की खाली कुर्सी खींचकर बैठ गई और अपने हिस्से का गिलास उठा सिप करने लगी।आखिर वह भी एम०डी० करने के बाद दिल्ली में फेलोशिप ज्वाइन किया है।खैर इन सबका क्या मतलब! उन दोनों गिलास वैसे ही रखे रहे, शायद अंदर चल रहे विचारों के भारीपन के कारण उसी में उलझे रहे होंगे तभी वे अपने अपने हिस्से का गिलास देखकर भी अनदेखा कर गये।अब तो डा० चेतना ने अपने अलग अलग हाथों से उनके कन्धे झकझोरने शुरू किए और कहा कि अनदेखी के शिकार बने गिलासों को भी देख तो लो जो किसी मकसद से टेबल पर रखें हैं। कभी कभी अनदेखा बना रहने के लिए हकीकत की बातों या घटनाओं को पर्दे के पीछे कर दिया करते हैं शायद इसलिए कि गोपनीयता या राज़ आम रास्ते पर बिखर न जाए।
यहां सवाल सही, ग़लत, सुसंस्कार और कुसंस्कार का नहीं है बल्कि अस्तित्व और वर्चस्व में रहने का है।और सामने वाले को मनचाहे निर्मित वातावरण में चर्चित रखने का है।शकुनि तो कौरवों में लोलुप बुद्धि का बढ़ावा तो देता ही था पर लोग अब लोग कृष्ण में शकुनित्व होने का रिसर्च करने लगे हैं जिससे भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे अपराजेय व्यक्तित्व भी हार मानकर अस्तित्व खो बैठता है। अब भले ही इन्हें अधर्म का साथ देने का लांछन लग रहा हो। इन बातों में कोई तथ्य नहीं नज़र आता । हमें लगता है हर इंसान में अपनी व्यक्तिगत त्रुटि तो निसर्ग से मिली ही है।
यही तो संचार के अहमियत को दर्शाता है।
समय के साथ बहते पल की कोई भी अनुकूलता रास आ जाए और दीपक समेत पूरे लौ पर चिपक जाए और मन की भावनाओं को पढ़ आस्तीन के सांप बन विरोध में कौन सा राज बनाकर जड़ दें ,यह सब सोच से परे है।इनकी ताकत इतनी हावी है कि सिंहासन पर बैठाना है तो ये ही सही ,अथवा इनके अन्य हथकंडों से बचना मुश्किल है।बस इनके मोल भाव में खरा उतरना चाहिए।
इन तीनों के अलग अलग दिशाओं से आये विचारों से बुन रहे मकड़जाल के बीच अचानक उनका साथी पत्रकार "आकाश" आ धमका।पता नहीं वह बाहर किस बात से जूझता आ रहा होगा ।पर तैश में डा० चेतना से बोला कि पता नहीं क्यों ? मनुष्य का हृदय क्यों सिकुड़ता जा रहा है। भावना, आकांक्षा, आस्था क्यों पतनोन्मुख हो रही है? लोगों के दिमाग में शकुनि जैसे शख्सियत की पैठ क्यों होती जा रही हैं? जबकि वे जानते हैं कि क्लाइमेक्स पर " जैसी करनी वैसी भरनी " ही सार्थक होनी है। तभी अंदर से उसकी मां "कमला" आई और बोली। हां, सनातन के शीतल, सुगंधित बयार के उल्टी दिशा में चलने से विकार ही आते हैं क्योंकि विपरीत में बदबूदार, सड़ा गला, कूड़ा-करकट का मार्ग ही मिलता है लेकिन मानस रोगियों को इससे क्या लेना देना, उन्हें कैंसर और एच आइ वी प्लस जैसे रोगों के संग जीने में ही मजा आता है। इससे पहले परिवार फिर देखा देखी समाज,शहर दर शहर प्रभावित होता है। क्योंकि उन्हें यह सरल लगता है।उनके धर्म में "आध्यात्म दर्शन" और "आचार धर्म" सम्मिलित रूप से प्रतिष्ठित नहीं होता।
हमें भी समझ में आने लगा था कि समाज को नई और साफ सुथरी दिशा देने के लिए चिन्तन चरित्र का परिष्कार होना ही चाहिए।यह कहना जितना सरल है ,करना उतना कठिन है क्योंकि लोगों में अपने आपाधापी से फुर्सत नहीं हैं,इसकी संख्या सैकड़ों और हजारों में नहीं बल्कि करोड़ों में हैं इस वृहद समुदाय को कैसे शामिल किया जा सकता है? यह यक्ष प्रश्न है। धर्म का कार्य क्षेत्र चेतना को सुसंस्कृत बनाना है।पर जब धर्म और अधर्म में दुतरफा बहाव हो तो चिन्तन और चरित्र का समन्वय कैसे किया जा सकता है क्योंकि हमारा दैनिक जीवन क्रूरता से पिसता जा रहा है। हम सभी देवता बनने का पाखण्ड करने लगे हैं। पता नहीं ईश्वर का वह कैसा अवतार होगा जो भविष्य के समाज के इस प्रवृत्ति को भांप सके और मेजारिटी को उचित दिशा की ओर जाने के लिए कन्विंस कर सके।हमारी धारणा बलवती होती जा रही है कि कम से कम उस पशुता को ही बचा कर रख लें जो विकासवाद ने विरासत में दी है। पशुता को सभ्य बनाने के लिए जाने कितने मजहब काम कर रहें हैं और अवतारों की लाइन लगी है। फिर भी पशुता के भीतर की जो महानता दिन प्रतिदिन क्षीण होकर गायब होती जा रही है उसको बचाने और बढ़ाने की सार्थक कोशिश हो।