*सनातन धर्म में श्राद्ध का बड़ा महत्त्व है | श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है | मृतात्मा के प्रति श्रद्धा पूर्वक किए गए कार्य को श्राद्ध कहते हैं ` श्राद्ध से श्रद्धा जीवित रहती है | पितरों के लिए श्रद्धा प्रकट करने का माध्यम केवल श्राद्ध ही है | यह हमारी संस्कृति की महानता है कि तर्पण के द्वारा उनके जीवन का उत्थान होगा वहीं शांति मिलेगी तो उनकी अंतरात्मा से श्राद्ध करने वाले के प्रति शांतिदायिक सद्प्रेरणा निकलेंगी | श्राद्ध करने से पितरों का उद्धार हो जाता है | हमारे शास्त्रों में लिखा है "देवकार्यादपि सदा पितृकार्य विशिष्यते" अर्थात् :- देवकार्य से पितृकार्य विशिष्ट होता है , परंतु एक विशेष बात का ध्यान रखना चाहिए कि श्राद्ध में जिस व्यक्ति का श्राद्ध करना हो उसके नाम , गोत्र , पिता , पितामह , प्रपितामह के नाम , गोत्र का उच्चारण करके उनके निमित्त पिंडदान किया जाता है | यदि नाम एवं गोत्र में या संकल्प बोलने में कहीं कोई त्रुटि हुई तो पितरों को श्राद्ध एवं पिंडदान का भाग नहीं मिल पाता | श्रीमद्भागवत में धुंधुकारी की कथा आती है जिसके लिए गोकर्ण ने गया आदि तीर्थों में श्राद्ध किया परंतु उसका उद्धार नहीं हुआ | इसका कारण यह था कि धुंधकारी गोकर्ण का सगा भाई नहीं था उसके माता - पिता , गोत्र आदि भिन्न थे और गोकर्ण को इसका ज्ञान नहीं था | अत: पिता का नाम और गोत्र का नाम सही ना होने से उसे पिंड की प्राप्ति नहीं हुई और उसका उद्धार नहीं हुआ | तब गोकर्ण ने श्रीमद्भागवत कथा सुनाकर के उसे प्रेतत्व से मुक्ति दिलाई थी | कहने का तात्पर्य है कि श्राद्ध में संकल्प का शुद्ध होना बहुत आवश्यक है क्योंकि देवता यदि मन की भावना जानकर संतुष्ट हो जाते हैं तो पितरों को संतुष्टि संकल्प पूर्वक किए गए श्राद्ध से होती है |*
*आज लोग श्राद्ध तो करते हैं परंतु फिर भी उनके घर में पितृदोष निकलता है | अनेक लोग यह भी कहते हैं कि मैंने समय-समय पर अपने पितरों का श्राद्ध किया है , उनके लिए पिंडदान ; तर्पण किया है परंतु फिर भी हमारी जन्मकुंडली में पितृदोष स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है | सब कुछ करने के बाद भी यदि पितृदोष दिखाई पड़ रहा है तो यह मान लेना चाहिए कि पितर हम से संतुष्ट नहीं हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" इन कारणों पर विचार करता हूं तो यह पाता हूं कि आज अधिकतर लोगों को अपने गोत्र का ही पता नहीं है | यदि उनको गोत्र का पता भी है तो ब्राह्मण ऐसे मिलते हैं जो शुद्ध संकल्प पढ़ना भी नहीं जानते | यजमान भी किसी प्रकार अपना काम निकालना चाहता है और ब्राह्मण भी आज दक्षिणा के लिए यजमान का कार्य जल्दबाजी में बिना कार्य विशेष के ज्ञान के संपन्न करवा रहा है | जबकि श्राद्ध आदि कर्मों में जहां सूक्ष्म आत्माओं को संतुष्ट करने का विषय हो वहां पर संकल्प का शुद्ध होना जितना आवश्यक है उससे कहीं आवश्यक है श्राद्धकर्ता के मन की भावना | पितरों के प्रति श्रद्धा , क्योंकि श्रद्धा के बिना श्राद्ध कभी संपन्न हो ही नहीं सकता | लोग अपने मन में पितरों के प्रति श्रद्धा नहीं उत्पन्न कर पाते , विद्वान ब्राह्मणों को बुला नहीं पाते उसके बाद शिकायत करते हैं कि सारे कार्य संपन्न करने के बाद भी हमारे पितर असंतुष्ट हैं | संकल्प में बड़ी शक्ति होती है परंतु यह भी सत्य है कि संकल्प का शुद्ध उच्चारण एवं श्राद्धकर्ता के मन की भावना कितनी निर्मल है उसी के अनुसार पितर संतुष्ट होते हैं और घर में कभी भी पितृदोष नहीं परिलक्षित होता |*
*श्राद्ध - तर्पण करते समय पितरों के प्रति श्रद्धा का भाव रखने के साथ ही यह भी अवश्य देखना चाहिए कि हमारा ब्राह्मण भी विद्वान हो जिससे कि वह हमारे कार्य को निर्विघ्नता पूर्वक संपन्न कर सके और उस कार्य का यथोचित लाभ हमको मिले |*