*सनातन धर्म में देवता , यक्ष , किन्नर , गंधर्व एवं पितर आदि की मान्यता रही है | इनमें से पितरों को छोड़ कर के शेष सभी कुछ सेवा , सत्कार, पूजा - पाठ करने के बाद ही आपको कुछ प्रदान करते हैं परंतु इससे अलग हमारे पितर हमको अपने जीवन काल में ही सबकुछ दे करके तब जाते है | पितर कौन हैं ? यह हमारे परिवार के ही सदस्य होते हैं जो पिछला शरीर त्याग चुके हैं किंतु अभी उनको अगला शरीर नहीं प्राप्त हुआ है | इस मध्यवर्ती स्थिति में रहते हुए भी अपना स्तर मनुष्य जैसा ही अनुभव करते हैं | यह ध्रुव सत्य है कि मरने के बाद भी जीवात्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता | वह किसी न किसी रूप में बना ही रहता है | हमको अपने आसपास या अनेक पुस्तकों में पुनर्जन्म की घटनाएं देखने - सुनने पढ़ने को मिलती हैं | कई बार पुनर्जन्म का सत्यापन भी हो चुका है | पुनर्जन्म क्यों होता है ? जब जन्मकाल में उन आत्माओं की अभिलाषाओं की पूर्ति नहीं हो पाती वे अधूरी रह जाती हैं तो उनका पुनर्जन्म होता है | पितर ऐसी उच्चतम अवस्था होती है जो मरण और जन्म के बीच की अवधि को प्रेत बनकर व्यतीत करती है परंतु अपने उच्च स्वभाव - संस्कार के कारण यथासंभव दूसरे की सहायता करती रहती हैं | उनमें मनुष्यों की अपेक्षा अधिक शक्ति होती है सूक्श्म जगत से संबंध होने के कारण वह भविष्य के बारे में देख सकते हैं और अपने परिजनों को स्वप्न के माध्यम से या किसी न किसी माध्यम से आने वाले खतरों से सावधान भी करने का प्रयास करते हैं | हमारे पितर हर समय हमारी सहायता किया करते हैं इसलिए प्रत्येक मनुष्य को अपने पितरों का श्रद्धा पूर्वक तर्पण / श्राद्ध आदि करते रहना चाहिए जिससे कि वे शांति प्रदान करते रहे तथा जीवन सुखमय बना रहे |*
*आज के आधुनिक युग में पितरों को मानने वालों की संख्या बहुत कम बची है | यही कारण है कि आज श्राद्धादि कर्मकांड बहुत कम देखने को मिलते हैं | जो करते भी हैं वे इसे एक रस्म मानकर ही कर रहे हैं ! श्रद्धा का अभाव स्पष्ट देखने को मिल रहा है | आज का मनुष्य वार्षिक श्राद्ध की तो बात ही छोड़ दो अपने पिता या किसी भी संबंधी का दाह कर्म करने के बाद दशगात्र तक की संपूर्ण विधि का भी पालन नहीं करना चाहता | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज देख रहा हूं कि लोग मृतक संबंधी कर्मकांड भी नहीं करना चाहते हैं | जब मृतक का प्राथमिक कर्मकांड एवं पिंडदान आदि विधि विधान के साथ नहीं हो पाता है तो वह जीवात्मा उग्र प्रेत का स्वरूप धारण करती हैं जिससे परिवार के साथ साथ अन्य लोग भी त्रस्त रहते हैं | जहां पूर्व काल में मृत्यु की तिथि से लेकर के वर्ष पर्यंत तक मृतक व्यक्ति के हितार्थ अनेक प्रकार के कर्मकांड बताए गए हैं वही आज दशगात्र का विधान भी ढंग से नहीं हो पा रहा है | इसके बाद भी मनुष्य सुखी रहना चाहता है यह कैसे संभव है ? अनेकों प्रकार की तीर्थ स्थानों में जाकर देवी देवताओं से अपनी कामना की पूर्ति का वरदान मांगने वाले लोग अपने पितरों को संतुष्ट नहीं कर पा रहे क्योंकि उनको लगता है कि जो मर गया , जिसका जीवन समाप्त हो गया उस से हमारा कोई संबंध ही नहीं रह गया | जबकि सच यह है ये पितर अपने परिवार की ओर आशा भरी दृष्टि से देखा करते हैं और जब उनकी इच्छा पूर्ति नहीं होती तो परिवार अनेक प्रकार की आधि - व्याधियों से घिर जाता है | इसलिए आवश्यक है कि प्रत्येक मनुष्य अपने पितरों का श्राद्ध श्रद्धा पूर्वक अवश्य करें |*
*पितरों का श्राद्ध ना करके अन्य देवी देवताओं की कृपा दृष्टि प्राप्त करने वाले लोग कुछ भी नहीं प्राप्त कर पाते | यदि सुखी बने रहना है तो श्रद्धापूर्वक पितरों का श्राद्ध करते रहना ही होगा |*