श्रीकान्त वर्मा की कविताओं में कवि के अनुभव आज के जीवित संस्कारों से सीधे टकरा रहे हैं। कवि को मालूम है कि राजनीति के घुसपैठियों ने शब्दावली बदल-बदल कर लम्बे-चौड़े वादों से जनता को बहकाया है और जनता मूर्खों की तरह उस तरफ आशा लगाए बैठी है। श्रीकान्त वर्मा ने सारी परिस्थितियों के संयोजन में अपनी और युग - जीवन की विसंगतियों को एक साथ प्रस्तुत कर यथार्थ के साथ तीव्र और तीखी उत्तेजना को व्यंजित किया है। अनेक स्थलों पर उनका अनुभव आक्रोश की उत्तेजनाओं से मुक्त होकर कहीं अधिक गहरे स्तर पर व्यंजित हुआ है।उनकी कविताएँ वामपन्थी थीं और व्यवस्था विरोधी हैं। श्रीकान्त वर्मा की कविताएँ कविता के प्रचलित रूप का सचेत अतिक्रमण है। द्वंद्व या टकराहट यहाँ केवल शाब्दिक वस्तु में नहीं है बल्कि उसके बाहर दूर तक है। दृश्य और श्रव्य दोनों तरह की संवेदन-क्षमता का विस्तार इन कविताओं में दरअसल अर्थ का ही विस्तार है।
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