यह सन्नाटा
जो ढलती दुपहर के तट पर
संध्या के पीले फूल
अंजुली से बिखेर
अस्ताचल के तट पर
सिर धर सो जाता है।
यह किसी नाव के पाल खोल
कुहरे में डूबी
नदिया की
लहरों में गुम हो जाता है।
वह सदा अकेले यात्री की
अंगुली पकड़े
सूने कोसों पर चलता है।
बँसवट से देता हाँक
कभी मृगजल बन
सबको छलता है।
वह प्रिय-रथ ओझल
देख रहा
मुट्ठी भर धूल लिए
इन सूनी बाटों पर।
उजड़े मेलों की याद लिए
बैठा है शीश झुका
वह निर्जन कूलों, गुमसुम घाटों पर।
वह क़लम बांध कर एक
अजब
सोने की पीली साँकल में
सब शब्द और ध्वनियाँ
बटोर कर ले जाता है मिनिटों में।
वह गायक के कमरे के
कोने में सोई
वीणा के सारे तार तोड़
अंतिम झंकार तिरा कर
गुम हो जाता है
बाँसों के छूँछे झुरमुट में।
वह सन्नाटा
सदियों के आंगन में भी
कभी कभी
अनपहचाने पाहुन-सा आता है।
जो कालिदास के मन की
क्षिप्रा के तट पर
सब उपमाओं के पुष्प
विसर्जित कर
विरही-सा बैठा है,
वह कोई और नहीं केवल सन्नाटा है।
वह भटक रहा है युग युग से
टूटी मीनारों,
खंडहरों, मक़बरों और शमशानों में।
वह शाहजहाँ के
क़िले-बुर्ज से
सूनी सूनी दुपहर में
जाने किसको
हर दिन अज़ान दे जाता है।
शायद सन्नाटा
ख़ुद से घबरा कर
सन्नाटे को आवाज़ लगाता है।
वह ग़ालिब की सूनी मज़ार पर
दीया जला
छिप गया किसी
ख़ंदक़ में, गहरे गड्ढे में!
वह मायावी
आकाश में, झरते पत्तों की माला गूँथ
टेसू के
दीए जलाता है।
वह हर मन के
वट पीपल की
डालें नंगी कर जाता है।
यह सन्नाटा
जो अनपहचाने पाहुन जैसा आता है!
वह बड़े-बड़े इतिहास-नगर के
कोलाहल संगीत गान के
गट्ठर बांधे चला गया है
मनमौजी, कुबड़े बूढ़े सौदागर-सा।
देखो
वह नदिया-सा बह आया
हर द्वार
विसर्जन मांग रहा सब सुधियों का।
वह बजा शताब्दी के घंटे
यह बता रहा
युग बीत गया।
वह अपनी गूंगी भाषा में
दे रहा सूचना
तुम्हें अनागत यात्री की।
क्या तुमने उसे पहिचाना?
जो तुम से यह कह गया अभी
सन्नाटे में रहने वालो!
तुम भी केवल सन्नाटा हो;
वह कोई और नहीं केवल सन्नाटा है।