आज की शिक्षा प्रणाली से कौन वाक़िब नहीं है? सब जानते हैं कि किस तरह विद्यालयों में बच्चों के भविष्य को फांसी पर लटकाया जा रहा है। ऐसी दशा को देखकर लगता है शिक्षक के जगह पर जल्लाद को पढ़ाने का काम सौंप गया है।
हम धूर्त सियार की कहानी से रूबरू हैं- जो अपने शरीर में नीला रंग लगने के कारण खुद को जंगल का राजा कह बैठता है और सभी जानवर उसे मानते भी हैं परंतु सियार अचानक अपने साथियों की हुवाँ......हुवाँ.......की आवाज सुनकर वह भी धुन मिलाने लगता है और सच्चाई सामने आ जाती है और धूर्त सियार मारा जाता है। कुछ इसी तरह की समान घटना स्कूलों में देखी जा रही है। निकम्मे लोग जिसे कहीं से रोजी-रोटी का जुगाड़ नहीं होती आखीर रोजगार देगा कौन? उसके लिए काबिल भी तो होना चाहिए। ऐसे में राशन दूकान की तरह स्कूल के धंधे इतने प्रसिद्ध हो गए हैं की लोग चाट-समोसे की दुकान के बजाय स्कूल खोलने लगे हैं।
किसी तरह थोड़ी-बहुत पूंजी लगाकर एक बड़ा पोस्टर छपाकर स्कूल खोल देते हैं और वैसे शिक्षक की खोज करते हैं जो कम-से-कम वेतन पर काम करे। अब कोई शिक्षित और काबिल व्यक्ति अपनी सेवा हजार-दो हजार में बेचेगा नहीं और यहीं से सिलसिला शुरुआत होती है निकम्मे की खोज की और धूर्त सियार की तरह घूम रहे निकम्मे पढाई के समय जी चुराने वाले लोग शिक्षक का महान दर्जा पा लेते हैं।
ऐसे शिक्षकों से बच्चों का पूर्ण विकास का सवाल भी नहीं उठता। ऐसे शिक्षकों के चलते शिक्षा का गला घूंटा जा रहा है। बच्चे का भविष्य निर्माण किस प्रकार की होगी इसका परिणाम तो हम सभी जानते हैं।
बच्चों का शोषण होता है साथ-साथ अभिभावक को शिकार बनाया जाता है। इतने खर्चे बताये जाते हैं कि लोगों के होठों पर इसके ही चर्चे रहते हैं। "मैं बेटे की पढाई में लाखों खर्चे कर रही हूँ।" अधिक खर्चे वाले संस्थान से लोग अपनी पहचान तक बनाना चाहते हैं। तभी तो लोग ईज्जत के साथ शान से कहते हैं। "मेरे बच्चे फलाँ विद्यालय में पढ़ते हैं,जानते हो महीने का खर्च कितना है,पुरे पंद्रह हजार खर्चे हैं।"
क्या शिक्षा को खर्चों से आँका जाने से ही इसकी गुणवत्ता का पता चलता है? नहीं! गुणवत्तापूर्ण शिक्षा खुद बोलती है।इसकी पहचान छात्रों की प्रतिभा से होती है,किसी खर्च से नहीं।