दुख को कोई नहीं चाहता। हर कोई सुख की खोज में भटकता रहता है। यह मान लिए गया है कि दुख के लिए कोई प्रयास करने जरूरत नहीं होती है। वह तो हमारे आसपास ही रहता है, उसे देखने के लिए गर्दन उठाने की भी जरूरत नहीं है। लेकिन भारतीय परंपराएं, शास्त्र और दर्शन इससे सहमत नहीं हैं। वे इस बारे में कुछ और ही कहते हैं। ज्यादातर ग्रंथ एक स्वर से कहते हैं कि सुख हमारा स्वभाव है। वह कहीं बाहर नहीं है। अष्टावक्र ने तो यहां तक कहा है कि ‘हमेशा सुख से जियो, सुख से उठो और बैठो, तब दुनिया जिसे दुख कहती है, उसे भी सुख की तरह महसूस करने लगोगे।’ लेकिन हम यहीं आकर शास्त्रों से अनजाने हो जाते हैं। तब हमारे दिमाग में बंटेड रसेल का सवाल गूंजने लगता है, ‘अगर दुनिया सच में सुखी हो जाए, तो धर्मगुरुओं का क्या होगा?’ यह आज के समय पर सबसे बड़ी टिप्पणी है। इससे मुंह चुराना आसान नहीं है।
*दरअसल, हम हमेशा दुविधा में जीने के आदी हो गए हैं। हम पातंजलि पर गर्व करते हैं, लेकिन जब वह कहते हैं कि अपने मन को पहाड़, पेड़-पौधे, नदी आदि पर टिकाओ। उससे प्यार करने लगो, उसमें खुशी की अनुभूति होगी, तब हम कितना ध्यान देते हैं उनके कथन पर? हमारा मन जिस सुख के पीछे पागल है, उसके पीछे धन-संपत्ति का बोध है। ऐश्वर्य उसका लक्ष्य है। हम यह भूल जाना चाहते हैं कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दुख को भूलने और नकारने की क्षमता अपने अंदर पैदा करना चाहते हैं। तभी तो ओशो ने कहा था, ‘सुख की खोज एक बुनियादी भूल है। दुख को अस्वीकार कर सुख को तलाशना गलत है, क्योंकि सुख दुख का ही हिस्सा है। जो ऐसी भूल करते हैं, वे उन लोगों में हैं, जो जन्म खोजते हैं और मरना नहीं चाहते, जवानी तो खोजते हैं, मगर बूढ़ा होना नहीं चाहते।’*
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