वक़्त तो वक़्त है
अच्छा बुरा
रेंगता चलता दौड़ता
चाल है चलता एक सी
ये न थमता न रुकता
किसी के लिए
बस छोड़ देता
अपने पैरो के निशान
कुछ हसीं लम्हे
कुछ गुदगुदाते दिन
कुछ तड़पती रातें
कुछ बेपरवाह अलसाई दोपहरिया
और कुछ हंसती रोती खिलखिलाती
कड़वी बिलखती यादें
वक़्त की इस निर्विघ्न यात्रा में
बढ़ते रहना है आगे
और आगे
उससे भी आगे
पर ज़िंदगी की आपाधापी में
जब भी बढ़ना और आगे
तो धीरे से हौले से
उन लम्हों को
पलकों में सजा के देख लेना
बस एक पल के लिए
एक पल के लिए
शायद किसी और को
है अपने ही वक़्त का इंतज़ार
रख देना अपने कदमो को
निशाँ है वही
करते तेरा इंतज़ार
अपने ही वक़्त का इंतज़ार . . . .
शिप्रा राहुल चन्द्र