रात की काली छाया विदा हुई
उषा की कालियां चटकी
उठकर अंगड़ाई ली
धीरे धीरे धुंध को चीर
रौशनी हुई धुली धुली
दिखने लगे पेड़ ,नदिया ,पोखर
विचरण करती अनेको छायाएँ नयी नयी
चमक उठी ओस की बूंदें
मासूम रुई की फाहे सी
हवा है मस्ति में लहराती
अरे हां ,ये भी तो निद्रा से जगी
खिल गए पुष्प
नवशिशु से मुस्काते
चहक चहक के चिड़िया उडी
गाती कुछ रागनिया नयी नयी
बदल रहा आकाश का रंग
दिखने लगी बहते पानी में
चमकती हलकी रोशनी की कनी
अब गयी रात्रि सेज सजा अलसाई
थक कर सोने के लिए
और दिवस आया है
नहा धोकर तारो ताज़ा
खड़ी है दुनिया स्वागत करती
दिवस का
झिलमिल झिलमिल मुस्काती हुई ।
शिप्रा राहुल चन्द्र