कैसा ये मुख खोले अजगर है ....
जैसे ज़िंदगी का कोई पहर है ....
ये आ रहा है निगलने को ...
सरक रहा है धीरे धीरे ...
कितना भयानक है ये ...
मुझे पुकार रहा ...
मै हूँ पहाड़ की चोटी पर ...
ये लटक रहा है किसी पेड़ की टहनी पर ...
सूरज डूब रहा है ...
अँधेरा होने को चला है ....
मै कैसे आई इधर ,अचरज हो रहा है ...
मै तो ढूंढ रही थी माँ का आँचल ...
कैसे आई यहाँ कुछ पता नहीं मुझे ...
इधर देखती हूँ तो है पाताल की गहराई की घाटी सी ...
इधर खड़ी है लम्बी लम्बी दीवारे उसकी दासी सी ...
रेंग रेंग के आ रहा मेरी तरफ सरकते सरकते .....
मै ताक रही हूँ इसकी चमकीली काया सिसकते सिसकते ...
इसकी चमकीली आँखों में ये नूर है कैसा बसा हुआ ...
लगता है जैसे कोई तिलस्म है रचा हुआ ....
मालूम है ये करगा धोखा मुझसे ...
पर जा रही हूँ मै न जाने क्यों बढ़ के ...
घूम रही है धरा ...
नाच रहे है ये चाँद सितारे ...
कैसे है ये सब डरे डरे से ...
कर रहे है चुपके से मुझे इशारे ....
रुक जाओ मूर्ख क्यों जा रही है.....
ये पथ है पतन का ....
गर्त में गिर जाओगी ....
वापस न जा पाओगी ....
जिसको समझती हो तुम माँ का आँचल ....
भरा है उसमे क्रोध हलाहल ....
बैठाएगा अपनी गोद में ...
माँ का रूप लेकर ...
बहलाएगा फूसलायेगा ...
हौले हौले सर सहलाएगा ...
फिर जकड़ेगा अपने बंधन में तुम्हे ...
बढ़ती जाएगी वो जकड़न धीमे धीमे ....
बंधन ये कसता जायेगा ....
तड़प उठोगी ,कसक उठोगी ...
मुख खोलोगी बोलने को ...
बोल न सकोगी ...
अवरूद्ध करेगा पहले ,शिराओं में बहते रक्त संचार को ....
पहिए पीसेगा पसलियों को ....
चूर करेगा अस्थियो को बड़े दुलार से ....
मर जाओगी , जड़ हो जाओगी ....
शिकंजे से इसके निकल न पाओगी ....
और इस अन्नंतकाल में खो जाओगी ....
पर कैसा है ये तिलिस्म ...
किसने रचा है इंद्रजाल ...
चली जा रही हूँ उस ओर ...
बहुत थकान है भरी ....
अब तो जाना ही पड़ेगा ...
पलके है बोझिल और भरी ...
आँखों में है नींद बड़ी ....
अरे देखो वो माँ की गोद है ...
या मारीचिका कोई ....
क्यों मन कर रहा है ज़ोर ज़ोर से रोने को ...
चली मै चली अन्नंतकाल में सोने के लिए ...
अनंतकाल में सोने के लिए ......
शिप्रा राहुल चन्द्र