काली अंधियारी कभी उजली रात
आसमान में जागती न सोती रात
अभी अभी तो दिवस की चिता जल
रही थी संध्या के तट पर
बैठ गयी धीरे से सट कर
चालक बड़ी ये निशा ,संध्या थी भोलीभाली
धीरे धीरे खिसक खिसक के ग्रास लिया
लालिमा को , कर के अंधकारमय जगत
अब पैर पसार इत्मनान से तकती रात
ये सन्नाटि रात
मै देख रही थी मूक निशब्द
इस बढ़ते अँधेरे को
पर इस अँधेरे में भी ये कैसा उजाला है
बहुतेरी बातें जो दिन के उजाले में
देखने का सुनने का man नहीं करता
पर वो ही है सत्य इस जगत में ,
पर जो है असत्य युक्तिहीन बुद्धिहीन
देखना तो उसे है ।
इसीलिए आँखों को पैना किये
बैठी हु सन्नाटे में , देखने के लिए
उस अदेखे को ।
कितना उजाला है इस अँधेरे में
तो दुनिया इतने अँधेरे में क्यों जी रही है ।
शिप्रा राहुल चन्द्र