shabd-logo

उलझी दुनिया

2 सितम्बर 2015

163 बार देखा गया 163
उलझी उलझी सी दुनिया में उलझे उलझे से लोगों में गुम थी मैं भी बहकी सी उलझी सी भूल गयी थी मुस्काने को पर अभी अभी कही से मीठी सी हंसी खनक उठी है कानों में चिंता है चिता कहते है सब फिर भी झुलसे रहते ज्वालाओं में झूठी हंसी हम हँसते है फिरते रहते घटनाओ में जो घटना है वो घटना है फिर भी रोते है और तड़पते है सुलझा नहीं पते इनको हम रोज़ परिस्थितियों के दलदल में धंसते है रो रो के खो देते अनमोल ये पल जीवन के क्या पता कुछ ऐसा हो की अफ़सोस रहे फिर जीने में उलझी उलझी सी दुनिया में उलझे उलझे से लोगो में । शिप्रा राहुल चन्द्र
उषा यादव

उषा यादव

बहुत सुन्दर रचना !

23 सितम्बर 2015

योगिता वार्डे ( खत्री )

योगिता वार्डे ( खत्री )

अति सुन्दर रचना !

22 सितम्बर 2015

अर्चना गंगवार

अर्चना गंगवार

उलझी उलझी सी दुनिया में उलझे उलझे से लोगों में गुम थी मैं भी बहकी सी उलझी सी भूल गयी थी मुस्काने को.............बहुत खूब

3 सितम्बर 2015

शिप्रा चन्द्र

शिप्रा चन्द्र

धन्यवाद भैया

2 सितम्बर 2015

ओम प्रकाश शर्मा

ओम प्रकाश शर्मा

पर अभी अभी कही से मीठी सी हंसी खनक उठी है कानों में... अति सुन्दर भावाभिव्यक्ति ! मनोज्ञ रचना !

2 सितम्बर 2015

1

विलाप

10 जुलाई 2015
0
7
2

बार बार तो मार रहे हो ... फिर अबकी मार दिया ... मेरी बिटिया को मार दिया .. मेरी नन्ही को मार दिया ... मार दिया हाय मार दिया .. बह बह के आंसू सूख गए... कलेजे पर पत्थर गाड़ दिया ... हाय जालिम ने मार दिया ... मुट्ठी भींच जाती है ... आँखे हो उठी है विस्फारित ... तुम हँसते हो ज़हरीली हंसी ... फ

2

अजगर

10 जुलाई 2015
0
4
1

कैसा ये मुख खोले अजगर है .... जैसे ज़िंदगी का कोई पहर है .... ये आ रहा है निगलने को ... सरक रहा है धीरे धीरे ... कितना भयानक है ये ... मुझे पुकार रहा ... मै हूँ पहाड़ की चोटी पर ... ये लटक रहा है किसी पेड़ की टहनी पर ... सूरज डूब रहा है ... अँधेरा होने को चला है .... मै कैसे आई इधर ,अचरज हो र

3

हम तुम

10 जुलाई 2015
0
7
6

एक रस्साकसी सी ... घिसती गई ज़िंदगी ... तुम मुझे बटते रहे मैं तुम्हे बटती रही ... खींचती रही दुनिआ अरड़ावन की तरह ... कभी तुम गरजते रहे .... कभी मैं बरसती रही .... लड़ते झगड़ते निकल गये.... वो ज़िंदगी के पल .... अब सोचती हूँ .... तुम्हारी वो पहले की बातें ... वो अच्छाइयां ... मेरे प्रति तुम्हा

4

सन्नाटी रात

28 अगस्त 2015
0
8
2

काली अंधियारी कभी उजली रात आसमान में जागती न सोती रात अभी अभी तो दिवस की चिता जल रही थी संध्या के तट पर बैठ गयी धीरे से सट कर चालक बड़ी ये निशा ,संध्या थी भोलीभाली धीरे धीरे खिसक खिसक के ग्रास लिया लालिमा को , कर के अंधकारमय जगत अब पैर पसार इत्मनान से तकती रात ये सन्नाटि रात मै देख रही थी

5

सुप्रभात

30 अगस्त 2015
0
7
1

रात की काली छाया विदा हुई उषा की कालियां चटकी उठकर अंगड़ाई ली धीरे धीरे धुंध को चीर रौशनी हुई धुली धुली दिखने लगे पेड़ ,नदिया ,पोखर विचरण करती अनेको छायाएँ नयी नयी चमक उठी ओस की बूंदें मासूम रुई की फाहे सी हवा है मस्ति में लहराती अरे हां ,ये भी तो निद्रा से जगी खिल गए पुष्प नवशिशु से मुस्काते चहक चह

6

उलझी दुनिया

2 सितम्बर 2015
0
8
5

उलझी उलझी सी दुनिया में उलझे उलझे से लोगों में गुम थी मैं भी बहकी सी उलझी सी भूल गयी थी मुस्काने को पर अभी अभी कही से मीठी सी हंसी खनक उठी है कानों मेंचिंता है चिता कहते है सब फिर भी झुलसे रहते ज्वालाओं में झूठी हंसी हम हँसते है फिरते रहते घटनाओ में जो घटना है वो घटना हैफिर भी रोते है और तड़

7

मुक्ति

3 सितम्बर 2015
0
8
3

स्थिर स्थिर सी बातें स्थिर स्थिर से वो पल कुछ कहा था जो तुम भूल गए कुछ अनकहा जो मुझको याद रहा ठहराव हो जैसे पानी का हलचल थी कुछ मद्धिम मद्धिम टूटे थे सपने छन से पर आवाज नहीं सुनी तुमने किरची किरची चुभती पाँव में दर्द थे जो नासूर बने अब बात करते हो चलने की बढ़ने की न है अब तथा न कोई उमंग तुम कहते हो

8

पनछहा प्रेम

8 सितम्बर 2015
0
6
2

कुछ राग रागनियाँ हो चंचल सी बहती हैं रक्त संचार में ये बहती है फिर कहती है हो किस मधुर संसार में क्यों बजती है छन से पायल की झंकार कानो में क्यों आती है झिझक सी तेरे मेरे संवादों में मैं चाहती हूं कुछ कहना कहते कहते रुक जाती हूं तुम सुनते हो मेरी अनकही बातैं फिर हौले से मुस्काते हो मैं झूठ मूठ क

9

कोलाहल का आनंद

9 सितम्बर 2015
0
10
4

इस भरे बाजार में कितनी सारी दुकाने हैं छोटी ,बड़ी, ढेरो घूम रहे है फेरी वाले कुछ जमे है फुटपाथों पर सब करते रोजगार बेच रहे सपनो को लोगों का रेलमपेला है दाये बाएं , आगे पीछे खरीदार है झुंझलाए से कर रहे है तोल मोल कैसे है घबराये से इस गर्मी के मौसम में देखो पसीने पोछ रहे नहीं आई बरखा रानी पर बादल को

10

खुशबू

18 सितम्बर 2015
0
4
2

खुशबू है महकी अभी अभी यही कही यही कही बह गयी उसी एक पल निर्जल निर्जल निर्जल ये रोग हुआ अंजाना सारा जग लगता हुआ बेगाना हूक सी उठती जिया में कसक है कोई जैसे दबी हुई देखा था तुम्हे कल ही देखते ही ये भान हुआ कसक कसमसाती थी वही तेरे चेहरे पर भी तड़प इसी रोग की थी शायद माथे की शिकन पर उभर आई थी तुम हो या म

11

घुटन

21 सितम्बर 2015
0
11
6

यहाँ हवा नहीं है घुटी घुटी गर्म है साँसे समय ही समय चारो तरफ है दीवारे झरोखा नहीं खिड़की नहीं देखती हूँ घूरती हूँ इन्ही को ढूढ़ती हूँ न जाने क्या क्या पर ये सब तकती मुझे निरुत्तर हवा है कैसी गर्म गर्म घूमती चारो तरफ अपना अस्तित्व दर्शाती छूती है आ के बार बार और एक घुटन दे जाती बहार बह रही जो हवा स

12

इक्षा पात्र

22 सितम्बर 2015
0
7
1

आँख खुली दुनिया देखी अति सरल लगी समय चलता रहा निर्विघ्न इक्षा पात्र ले के मैं भी चलती रही निर्विघ्न चलती रही बढ़ती रही जुगत करती भरने की उसे जुगत की हौसला बढ़ा दबा के इक्षा पात्रतैरने लगी इक्षाओ के सागर में सांस रोक रोक के डुबकी लगाती डुबकी लगाती बारम्बार भरने को इसे आखिरकार एक पल ऐसा लगा हासिल हो गय

13

नयी नज़र

27 सितम्बर 2015
0
3
0

नयी है वो हर एक नज़र चाहत नयी नजरिया नया सबकी आँखों में बहते कल्पना के अथाह समंदर नया सृजन अनोखा सृजन और कोई नहीं रच सकता वैसा रचनात्मकता नयी भाव नए खुले है घोड़े कल्पना के बेलगाम सरपट सरपट दौड़ रहे ब्रह्माण्ड में अनंत में न है कोई सीमा न कोई बंधन जी रहे दुनिया नयी उनछुयी दुनिया अदेखे रंग वो पहला है ,

14

इश्क़

28 सितम्बर 2015
0
7
0

मनमौजी बड़ा ये बेईमान दिल इश्क़ हुआ जब से इसकी धड़कन बढ़ गयी लम्हा लम्हा पता नहीं कब इसकी रंगत चढ़ गयी कैसे हुआ ये मजबूर की तेरी निगाहो से निगाहे मिल गयी नहीं चल पाती बिन तेरे एक कदम भी इश्क़ की बेड़ी पैरो में कस गयी दर्पण में दिखता अश्क़ तेरा असमंजस में मैं पड़ गयी तुम हो या मैं हूँ कुछ होश नहीं आता मुझे द

15

कसक

22 अक्टूबर 2015
0
6
0

बहुत दिनों के बाद अहसास हुआ एक अजीब सा खालीपन क्यों घेरता मुझे सब कुछ तो सही है पर सुकून नहीं पा पाता मुझे हंसी तो है होठो पर पर खनक नहीं देखती है ये आँखे पर  चमक नहीं है जब  सब  कुछ  ठीक लगे तो कुछ  न ठीक होने की तड़प भी है अजीबो  गरीब गम दर्द भी है कही पर वो कसक नहीं है वो कसक नहीं है ..           

16

वक़्त

27 अक्टूबर 2015
0
8
2

वक़्त तो वक़्त है अच्छा बुरा रेंगता चलता दौड़ता चाल है चलता एक सी ये न थमता न रुकता किसी के लिए बस छोड़ देता अपने पैरो के निशान कुछ हसीं लम्हे कुछ गुदगुदाते दिन कुछ तड़पती रातें कुछ बेपरवाह अलसाई दोपहरिया और कुछ हंसती रोती खिलखिलाती कड़वी बिलखती यादें वक़्त की इस निर्विघ्न यात्रा में बढ़ते रहना है आगे और आग

17

अंदाज़

3 नवम्बर 2015
0
7
2

मुस्कुराने के नहीं ढूंढते बहाने खिलखिला के हँसते है अब ज़िंदगी ने करवट जो ली जीने का दम  भरते  है अब ज़मी पर पैर  टिकते   नहीं आसमा छूने की तमन्ना रखते है अब राह  है कांटो भरी तो क्या गम  है चुभ न जाए ये कुछ इस तरह बच कर निकलते है अब मन करता है जो भी अब ख्वाहिशो का दामन कस कर पकड़ते है अब आँखों में ये

18

उलझन

7 नवम्बर 2015
0
9
5

मेरी एक कविता खो  गयी  है ढूंढती फिर रही हूं सब  जगह किताबो के बीच  में मेज़ की दराज में पर्स की जेब में हैरान हूं परेशान हूं मिल नहीं रही उलझन है भरी क्या लिखा था कुछ याद नहीं पर जो भी था आप सब पढ़ते तो शायद खुश होते आनंद उठाते औरो को भी पढ़वाते पर क्या अब कहु की खो गयी है मेरी एक कविता खो गयी है किस

19

पहली होली

22 मार्च 2016
0
5
4

लाल गुलाबी पीला नारंगी सैया हमरे है सतरंगी झकमक झकमक कुरता पहिने मुह में पान दबाये चाल चले है हाय मधु रंगी कदमो की आहट सुनते ही खट से किवड़िया कर दी बंद गागर भरी रंग की ले कर छुप गयी किनारे मस्ती भरी थी आज बहुरंगी धक्का दे के खोले दरवज्जा उड़ेली गागर भर भर के जब तक जब तक नैना खोले भागी झटपट जैसे हिरणी

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए