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ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती

27 मई 2022

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ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती

ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती


इन सफ़ीलों में वो दरारे हैं

जिनमें बस कर नमी नहीं जाती


देखिए उस तरफ़ उजाला है

जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती


शाम कुछ पेड़ गिर गए वरना

बाम तक चाँदनी नहीं जाती


एक आदत-सी बन गई है तू

और आदत कभी नहीं जाती


मयकशो मय ज़रूर है लेकिन

इतनी कड़वी कि पी नहीं जाती


मुझको ईसा बना दिया तुमने

अब शिकायत भी की नहीं जाती

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रचनाएँ
दुष्यंत कुमार की प्रसिद्ध रचनाएँ
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दुष्यंत की इस कविता का मिजाज बदलाव के पक्ष में है। वह राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में बदलाव चाहता है, तभी तो वह दरख्त के नीचे साये में भी धूप लगने की बात करता है और वहाँ से उम्र भर के लिए कहीं और चलने को कहता है। वह तो पत्थर दिल लोगों को पिघलाने में विश्वास रखता है। समकालीन हिन्दी कविता विशेषकर हिन्दी रचनाएँ के क्षेत्र में जो लोकप्रियता दुष्यंत कुमार को मिली, वो दशकों बाद विरले किसी कवि को नसीब होती है। दुष्यंत एक कालजयी कवि हैं और ऐसे कवि समय काल में परिवर्तन हो जाने के बाद भी प्रासंगिक रहते हैं। दुष्यंत का लेखन का स्वर सड़क से संसद तक गूँजता है।
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सूना घर

27 मई 2022
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सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को। पहले तो लगा कि अब आईं तुम, आकर अब हँसी की लहरें काँपी दीवारों पर खिड़कियाँ खुलीं अब लिये किसी आनन को। पर कोई आया गया न कोई बोला खुद मैंने ही घर का दरवाजा खोल

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एक आशीर्वाद

27 मई 2022
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जा तेरे स्वप्न बड़े हों। भावना की गोद से उतर कर जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें। चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये रूठना मचलना सीखें। हँसें  मुस्कुराएँ  गाएँ। हर दीये की रोशनी देखकर ललचाये

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सूर्यास्त: एक इम्प्रेशन

27 मई 2022
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सूरज जब किरणों के बीज-रत्न धरती के प्रांगण में बोकर हारा-थका स्वेद-युक्त रक्त-वदन सिन्धु के किनारे निज थकन मिटाने को नए गीत पाने को आया, तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया, ऊपर से लहरों की अ

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एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है

27 मई 2022
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एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो इस अँ

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ये शफ़क़ शाम हो रही है अब

27 मई 2022
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ये शफ़क़ शाम हो रही है अब और हर गाम हो रही है अब जिस तबाही से लोग बचते थे वो सरे आम हो रही है अब अज़मते—मुल्क इस सियासत के हाथ नीलाम हो रही है अब शब ग़नीमत थी, लोग कहते हैं सुब्ह बदनाम हो

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पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं

27 मई 2022
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पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो—बारिश और है ऐ

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नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं

27 मई 2022
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नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है मेरे बयान को बंदिश निगल न जाए कहीं यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन ये बर्फ आं

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धर्म

27 मई 2022
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तेज़ी से एक दर्द मन में जागा मैंने पी लिया, छोटी सी एक ख़ुशी अधरों में आई मैंने उसको फैला दिया, मुझको सन्तोष हुआ और लगा  हर छोटे को बड़ा करना धर्म है ।

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इस मोड़ से तुम मुड़ गई

27 मई 2022
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इस मोड़ से तुम मुड़ गई फिर राह सूनी हो गई। मालूम था मुझको कि हर धारा नदी होती नहीं हर वृक्ष की हर शाख फूलों से लदी होती नहीं फिर भी लगा जब तक क़दम आगे बढ़ाऊँगा नहीं, कैसे कटेगा रास्ता यदि गुनगुन

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आज सडकों पर

27 मई 2022
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आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख । एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख । अब यकीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह

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बहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई

27 मई 2022
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बहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई सड़क पे फेंक दी तो ज़िंदगी निहाल हुई बड़ा लगाव है इस मोड़ को निगाहों से कि सबसे पहले यहीं रौशनी हलाल हुई कोई निजात की सूरत नहीं रही, न सही मगर निजात की क

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मेरी कुण्ठा

27 मई 2022
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मेरी कुंठा रेशम के कीड़ों सी ताने-बाने बुनती तड़प-तड़पकर बाहर आने को सिर धुनती, स्वर से शब्दों से भावों से औ' वीणा से कहती-सुनती, गर्भवती है मेरी कुंठा – कुँवारी कुंती! बाहर आने दूँ तो ल

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तुलना

27 मई 2022
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गडरिए कितने सुखी हैं । न वे ऊँचे दावे करते हैं न उनको ले कर एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं। जबकि  जनता की सेवा करने के भूखे सारे दल भेडियों से टूटते हैं । ऐसी-ऐसी बातें और ऐसे-ऐसे शब्द

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यह क्यों

27 मई 2022
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हर उभरी नस मलने का अभ्यास रुक रुककर चलने का अभ्यास छाया में थमने की आदत यह क्यों ? जब देखो दिल में एक जलन उल्टे उल्टे से चाल-चलन सिर से पाँवों तक क्षत-विक्षत यह क्यों ? जीवन के दर्शन पर दि

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किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम

27 मई 2022
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किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम किसी का हाथ उठ्ठा और अलकों तक चला आया वो बरगश्ता थे कुछ हमसे उन्हें क्योंकर यक़ीं आता चलो अच्छा हुआ एहसास पलकों तक चला आया जो हमको ढूँढने निकला तो फ

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हो गई है पीर पर्वत

27 मई 2022
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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में ह

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लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है

27 मई 2022
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लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है आप दीवार गिराने के लिए आए थे आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है ख़ामुशी शोर से सुनते थे कि घबराती है ख़ामुशी शोर मचान

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ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती

27 मई 2022
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ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती इन सफ़ीलों में वो दरारे हैं जिनमें बस कर नमी नहीं जाती देखिए उस तरफ़ उजाला है जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती शाम कुछ पेड़ गिर गए वरना बाम

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घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है

27 मई 2022
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घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुँचती है एक नदी जैसे दहानों तक पहुँचती है अब इसे क्या नाम दें, ये बेल देखो तो कल उगी थी आज शानों तक पहुँचती है खिड़कियां, नाचीज़ गलियों से मुख़ातिब है अब लपट शायद

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मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे

27 मई 2022
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मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे इस बूढ़े पीपल की छाया में सुस्ताने आएँगे हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेड़ो मत हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आएँगे थोड़ी आँच बची रहने दो थोडा धु

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बाएँ से उड़के दाईं दिशा को गरुड़ गया

27 मई 2022
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बाएँ से उड़के दाईं दिशा को गरुड़ गया कैसा शगुन हुआ है कि बरगद उखड़ गया इन खँडहरों में होंगी तेरी सिसकियाँ ज़रूर इन खँडहरों की ओर सफ़र आप मुड़ गया बच्चे छलाँग मार के आगे निकल गये रेले में फँस

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हालाते-जिस्म, सूरते—जाँ और भी ख़राब

27 मई 2022
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हालाते जिस्म, सूरती—जाँ और भी ख़राब चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी चिमनी में घुट

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तीन दोस्त

27 मई 2022
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सब बियाबान, सुनसान अँधेरी राहों में खंदकों खाइयों में रेगिस्तानों में, चीख कराहों में उजड़ी गलियों में थकी हुई सड़कों में, टूटी बाहों में हर गिर जाने की जगह बिखर जाने की आशंकाओं में लोहे की सख्

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अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला

27 मई 2022
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अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला मैंने भी सुना है अब जाएगा तेरा डोला इन राहों के पत्थर भी मानूस थे पाँवों से पर मैंने पुकारा तो कोई भी नहीं बोला लगता है ख़ुदाई में कुछ तेरा दख़ल भी है इस बा

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ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है

27 मई 2022
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ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है आपसे मिल कर हमें अक्सर लगा है हुस्न में अब जज़्बा—ए—अमज़द नहीं है प

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आग जलती रहे

27 मई 2022
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एक तीखी आँच ने इस जन्म का हर पल छुआ, आता हुआ दिन छुआ हाथों से गुजरता कल छुआ हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा, फूल-पत्ती, फल छुआ जो मुझे छूने चली हर उस हवा का आँचल छुआ प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता आग

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तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं

27 मई 2022
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तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह तू

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ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो

27 मई 2022
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ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो दर्दे—दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे आज सैयाद

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मुक्तक

27 मई 2022
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सँभल सँभल के’ बहुत पाँव धर रहा हूँ मैं पहाड़ी ढाल से जैसे उतर रहा हूँ मैं क़दम क़दम पे मुझे टोकता है दिल ऐसे गुनाह कोई बड़ा जैसे कर रहा हूँ मैं। तरस रहा है मन फूलों की नई गंध पाने को खिली धूप म

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रोज़ जब रात को बारह का गजर होता

27 मई 2022
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रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए वो घरौंदा ही सही, मिट्टी का भी घर होता है सिर से सीने में कभी पेट से पाओं में कभी इक

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अब तो पथ यही है

27 मई 2022
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जिंदगी ने कर लिया स्वीकार, अब तो पथ यही है| अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है, एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है, यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है, क्यों करूँ आकाश की मनु

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वो निगाहें सलीब है

27 मई 2022
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वो निगाहें सलीब है हम बहुत बदनसीब हैं आइये आँख मूँद लें ये नज़ारे अजीब हैं ज़िन्दगी एक खेत है और साँसे जरीब हैं सिलसिले ख़त्म हो गए यार अब भी रक़ीब है हम कहीं के नहीं रहे घाट औ’ घर क़

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ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ

27 मई 2022
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ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ मुझे किस क़दर नया है, मैं जो दर्द सह रहा हूँ ये ज़मीन तप रही थी ये मकान तप रहे थे तेरा इंतज़ार था जो मैं इसी जगह रहा हूँ मैं ठिठक गया था लेकिन तेरे

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अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए

27 मई 2022
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अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए तेरी सहर हो मेरा आफ़ताब हो जाए हुज़ूर! आरिज़ो-ओ-रुख़सार क्या तमाम बदन मेरी सुनो तो मुजस्सिम गुलाब हो जाए उठा के फेंक दो खिड़की से साग़र-ओ-मीना ये तिशनगी जो

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मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ

27 मई 2022
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मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ एक जंगल है तेरी आँखों में मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ तू किसी रेल-सी गुज़रती है मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ हर तरफ़ ऐतराज़ होता है मैं अगर

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अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार

27 मई 2022
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अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार आप बच कर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं रहगुज़र घेरे हुए मुर्दे खड़े हैं बेशुमार रोज़ अखबारों में पढ़कर यह ख़्याल आया ह

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लफ़्ज़ एहसास—से छाने लगे, ये तो हद है

27 मई 2022
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लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है आप दीवार गिराने के लिए आए थे आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है ख़ामुशी शोर से सुनते थे कि घबराती है ख़ामुशी शोर मचान

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मापदण्ड बदलो

27 मई 2022
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मेरी प्रगति या अगति का यह मापदण्ड बदलो तुम, जुए के पत्ते-सा मैं अभी अनिश्चित हूँ । मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं, कोपलें उग रही हैं, पत्तियाँ झड़ रही हैं, मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रह

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तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया

27 मई 2022
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तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया पांवों की सब जमीन को फूलों से ढंक लिया किससे कहें कि छत की मुंडेरों से गिर पड़े हमने ही ख़ुद पतंग उड़ाई थी शौकिया अब सब से पूछता हूं बताओ तो कौन था वो बदनसीब

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उसे क्या कहूँ

27 मई 2022
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किन्तु जो तिमिर-पान औ' ज्योति-दान करता करता बह गया उसे क्या कहूँ कि वह सस्पन्द नहीं था ? और जो मन की मूक कराह ज़ख़्म की आह कठिन निर्वाह व्यक्त करता करता रह गया उसे क्या कहूँ गीत का छन्द नह

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इनसे मिलिए

27 मई 2022
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पाँवों से सिर तक जैसे एक जनून बेतरतीबी से बढ़े हुए नाख़ून कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दाग़िल पाँव जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस पिण्डलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस

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होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये

27 मई 2022
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होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये इस पर कटे परिंदे की कोशिश तो देखिये गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन सूखा मचा

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होली की ठिठोली

27 मई 2022
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पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर । संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर । अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया, पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर । कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका, वे हँस के

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धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है

27 मई 2022
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धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है एक छाया सीढ़ियाँ चढ़ती—उतरती है यह दिया चौरास्ते का ओट में ले लो आज आँधी गाँव से हो कर गुज़रती है कुछ बहुत गहरी दरारें पड़ गईं मन में मीत अब यह मन नहीं है एक

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अपाहिज व्यथा

27 मई 2022
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अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ, तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ । ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है, इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ । अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी, उजाले में अब ये हवन कर रह

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गीत का जन्म

27 मई 2022
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एक अन्धकार बरसाती रात में बर्फ़ीले दर्रों-सी ठंडी स्थितियों में अनायास दूध की मासूम झलक सा हंसता, किलकारियां भरता एक गीत जन्मा और देह में उष्मा स्थिति संदर्भॊं में रोशनी बिखेरता सूने आकाशों मे

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टेपा सम्मेलन के लिए ग़ज़ल

27 मई 2022
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याद आता है कि मैं हूँ शंकरन या मंकरन आप रुकिेए फ़ाइलों में देख आता हूँ मैं हैं ये चिंतामन अगर तो हैं ये नामों में भ्रमित इनको दारु की ज़रूरत है ये बतलाता हूँ मैं मार खाने की तबियत हो तो भट्टाच

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इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है

27 मई 2022
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इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है। एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों, इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है। एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,

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तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए

27 मई 2022
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तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए छोटी—छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठा कर फेंक दीं जाने कैसी उँगलियाँ हैं, जाने क्या अँद

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गांधीजी के जन्मदिन पर

27 मई 2022
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मैं फिर जनम लूंगा फिर मैं इसी जगह आउंगा उचटती निगाहों की भीड़ में अभावों के बीच लोगों की क्षत-विक्षत पीठ सहलाऊँगा लँगड़ाकर चलते हुए पावों को कंधा दूँगा गिरी हुई पद-मर्दित पराजित विवशता को बाँ

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सूचना

27 मई 2022
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कल माँ ने यह कहा  कि उसकी शादी तय हो गई कहीं पर, मैं मुसकाया वहाँ मौन रो दिया किन्तु कमरे में आकर जैसे दो दुनिया हों मुझको मेरा कमरा औ' मेरा घर ।

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प्रेरणा के नाम

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तुम्हें याद होगा प्रिय जब तुमने आँख का इशारा किया था तब मैंने हवाओं की बागडोर मोड़ी थीं, ख़ाक में मिलाया था पहाड़ों को, शीष पर बनाया था एक नया आसमान, जल के बहावों को मनचाही गति दी थी किंतु--वह

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एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा

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एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा मौसम एक गुलेल लिये था पट—से नीचे आन गिरा बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे काँटे तेज़ हवा हमने घर बैठे—बैठे ही सारा मंज़र देख किया चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छ

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एक आशीर्वाद

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जा तेरे स्वप्न बड़े हों। भावना की गोद से उतर कर जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें। चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये रूठना मचलना सीखें। हँसें   मुस्कुराएँ   गाएँ। हर दीये की रोशनी देखकर लल

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आज वीरान अपना घर देखा

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आज वीरान अपना घर देखा तो कई बार झाँक कर देखा पाँव टूटे हुए नज़र आये एक ठहरा हुआ सफ़र देखा होश में आ गए कई सपने आज हमने वो खँडहर देखा रास्ता काट कर गई बिल्ली प्यार से रास्ता अगर देखा ना

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कौन यहाँ आया था

27 मई 2022
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कौन यहाँ आया था कौन दिया बाल गया सूनी घर-देहरी में ज्योति-सी उजाल गया पूजा की बेदी पर गंगाजल भरा कलश रक्खा था, पर झुक कर कोई कौतुहलवश बच्चों की तरह हाथ डाल कर खंगाल गया आँखों में तिरा आय

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वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है

27 मई 2022
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वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर झोले में उसके पास

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कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये

27 मई 2022
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कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे ये लोग

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ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए

27 मई 2022
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ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए पर पाँवों किसी तरह से राहों पे तो आए हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए जैसे किसी बच्चे को खिलोने न मिले हों फिरता हूँ कई

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बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं

27 मई 2022
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बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं, और नदियों के किनारे घर बने हैं । चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर, इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं । इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं, जिस तरह टूटे हुए ये आइने है

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विदा के बाद प्रतीक्षा

27 मई 2022
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परदे हटाकर करीने से रोशनदान खोलकर कमरे का फर्नीचर सजाकर और स्वागत के शब्दों को तोलकर टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ और देखता रहता हूँ मैं। सड़कों पर धूप चिलचिलाती है चिड़िया तक दिखायी नही देती

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जाने किस—किसका ख़्याल आया है

27 मई 2022
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जाने किस—किसका ख़्याल आया है इस समंदर में उबाल आया है एक बच्चा था हवा का झोंका साफ़ पानी को खंगाल आया है एक ढेला तो वहीं अटका था एक तू और उछाल आया है कल तो निकला था बहुत सज—धज के आज लौटा

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चीथड़े में हिन्दुस्तान

27 मई 2022
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एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है, आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है। ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए, यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है। एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो, इस

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कुंठा

27 मई 2022
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मेरी कुंठा रेशम के कीड़ों-सी ताने-बाने बुनती, तड़प तड़पकर बाहर आने को सिर धुनती, स्वर से शब्दों से भावों से औ' वीणा से कहती-सुनती, गर्भवती है मेरी कुंठा –- कुँवारी कुंती! बाहर आने दूँ तो

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तुमको निहरता हूँ सुबह से ऋतम्बरा

27 मई 2022
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तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा—डरा पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है मेरी नज़र में अब भी

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फिर कर लेने दो प्यार प्रिये

27 मई 2022
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अब अंतर में अवसाद नहीं चापल्य नहीं उन्माद नहीं सूना-सूना सा जीवन है कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं तव स्वागत हित हिलता रहता अंतरवीणा का तार प्रिये  इच्छाएँ मुझको लूट चुकी आशाएं मुझसे छूट चुकी सु

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दो पोज़

27 मई 2022
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सद्यस्नात तुम जब आती हो मुख कुन्तलों  से ढँका रहता है बहुत बुरे लगते हैं वे क्षण जब राहू से चाँद ग्रसा रहता है । पर जब तुम केश झटक देती हो अनायास तारों-सी बूँदें बिखर जाती हैं आसपास मुक्त ह

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अपनी प्रेमिका से

27 मई 2022
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मुझे स्वीकार हैं वे हवाएँ भी जो तुम्हें शीत देतीं और मुझे जलाती हैं किन्तु इन हवाओं को यह पता नहीं है मुझमें ज्वालामुखी है तुममें शीत का हिमालय है। फूटा हूँ अनेक बार मैं, पर तुम कभी नहीं पिघ

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ईश्वर को सूली

27 मई 2022
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मैंने चाहा था कि चुप रहूँ, देखता जाऊँ जो कुछ मेरे इर्द-गिर्द हो रहा है। मेरी देह में कस रहा है जो साँप उसे सहलाते हुए, झेल लूँ थोड़ा-सा संकट जो सिर्फ कडुवाहट बो रहा है। कल तक गोलियों की आवाज़े

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चिंता

27 मई 2022
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आजकल मैं सोचता हूँ साँपों से बचने के उपाय रात और दिन खाए जाती है यही हाय-हाय कि यह रास्ता सीधा उस गहरी सुरंग से निकलता है जिसमें से होकर कई पीढ़ियाँ गुज़र गईं बेबस! असहाय!! क्या मेरे सामने विकल्

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देश

27 मई 2022
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संस्कारों की अरगनी पर टंगा एक फटा हुआ बुरका कितना प्यारा नाम है उसका-देश, जो मुझको गंध और अर्थ और कविता का कोई भी शब्द नहीं देता सिर्फ़ एक वहशत, एक आशंका और पागलपन के साथ, पौरुष पर डाल दिया

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पुनर्स्मरण

27 मई 2022
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आह-सी धूल उड़ रही है आज चाह-सा काफ़िला खड़ा है कहीं और सामान सारा बेतरतीब दर्द-सा बिन-बँधे पड़ा है कहीं कष्ट-सा कुछ अटक गया होगा मन-सा राहें भटक गया होगा आज तारों तले बिचारे को काटनी ही पड़ेगी

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क्षमा

27 मई 2022
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"आह! मेरा पाप-प्यासा तन किसी अनजान, अनचाहे, अकथ-से बंधनों में बँध गया चुपचाप मेरा प्यार पावन हो गया कितना अपावन आज! आह! मन की ग्लानि का यह धूम्र मेरी घुट रही आवाज़! कैसे पी सका विष से भरे वे

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प्रेरणा के नाम

27 मई 2022
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तुम्हें याद होगा प्रिय जब तुमने आँख का इशारा किया था तब मैंने हवाओं की बागडोर मोड़ी थीं, ख़ाक में मिलाया था पहाड़ों को, शीष पर बनाया था एक नया आसमान, जल के बहावों को मनचाही गति दी थी. किंतु--वह

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समय

27 मई 2022
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नहीं! अभी रहने दो! अभी यह पुकार मत उठाओ! नगर ऐसे नहीं हैं शून्य! शब्दहीन! भूला भटका कोई स्वर अब भी उठता है--आता है! निस्वन हवा में तैर जाता है! रोशनी भी है कहीं? मद्धिम सी लौ अभी बुझी नहीं,

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अनुभव-दान

27 मई 2022
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"खँडहरों सी भावशून्य आँखें नभ से किसी नियंता की बाट जोहती हैं। बीमार बच्चों से सपने उचाट हैं; टूटी हुई जिंदगी आँगन में दीवार से पीठ लगाए खड़ी है; कटी हुई पतंगों से हम सब छत की मुँडेरों पर पड़े ह

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सत्य बतलाना

27 मई 2022
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सत्य बतलाना तुमने उन्हें क्यों नहीं रोका? क्यों नहीं बताई राह? क्या उनका किसी देशद्रोही से वादा था? क्या उनकी आँखों में घृणा का इरादा था? क्या उनके माथे पर द्वेष-भाव ज्यादा था? क्या उनमें कोई

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हालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राब

27 मई 2022
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हालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राब चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी चिमनी में घुट

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