‘साये में धूप’ या दुष्यंत कुमार आज आधुनिक हिन्दी ग़ज़ल में पर्याय सरीखे हो चुके हैं। कालजयी कृति, सौ पचास साल बाद बने या लेखक रचयिता के जीवनकाल में ही बहुचर्चित हो जाये, इसका निर्णय पाठक-समाज करता है। मंच से ओझल हो रही हिन्दी कविता अथवा गीत विधा से आगे आकर दुष्यंत कुमार ने जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में और एमरजेंसी के दिनों में भी जो रचनात्मक जलवा दिखाया, एक केंद्र सदैर होकर हमारे सामने जीवंत शब्दों में आ रहा है।‘ये धुएं का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूंमुझे किस कदर नया है, मैं जो दर्द सह रहा हूं।मेरे दिल पे हाथ रखो मेरी बेबसी को समझो,मैं इधर से बन रहा हूं मैं इधर से ढह रहा हूं।यहां कौन देखता है यहां कौन सोचता हैकि ये बात क्या हुई है मैं जो शे’र कह रहा हूं।’यहां पीड़ा दुधारी है, दोनों तरफ से आम-अवाम और शायर का मंच। मुल्क को पैगाम देने के वास्ते ही कवि मकानों के साथ तपती हुई ज़मीन को लेकर आ रहा है और समाज पर छा रहा है।
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