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सूर्य का स्वागत

दुष्यंत कुमार

50 अध्याय
2 लोगों ने लाइब्रेरी में जोड़ा
60 पाठक
28 जुलाई 2022 को पूर्ण की गई
निःशुल्क

दुष्यंत कुमार का जन्‍म उत्तर प्रदेश में बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था। जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था। हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था। उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे। इस समय सिर्फ़ 44 वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की। उनके पिता का नाम भगवत सहाय और माता का नाम रामकिशोरी देवी था। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला (गीतकार इन्‍द्रदेव भारती के पिता पं चिरंजीलाल के सानिन्‍ध्‍य में) तथा माध्यमिक शिक्षा नहटौर(हाईस्कूल) और चंदौसी(इंटरमीडिएट) से हुई। दसवीं कक्षा से कविता लिखना प्रारम्भ कर दिया। इंटरमीडिएट करने के दौरान ही राजेश्वरी कौशिक से विवाह हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में बी०ए० और एम०ए० किया। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा और डॉ० रामकुमार वर्मा का सान्निध्य प्राप्त हुआ। कथाकार कमलेश्वर और मार्कण्डेय तथा कविमित्रों धर्मवीर भारती, विजयदेवनारायण साही आदि के संपर्क से साहित्यिक अभिरुचि को नया आयाम मिला। मुरादाबाद से बी०एड० करने के बाद 1958 में आकाशवाणी दिल्ली में आये। मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग के अंतर्गत भाषा विभाग में रहे। आपातकाल के समय उनका कविमन क्षुब्ध और आक्रोशित हो उठा जिसकी अभिव्यक्ति कुछ कालजयी ग़ज़लों के रूप में हुई, जो उनके ग़ज़ल संग्रह 'साये में धूप' का हिस्सा बनीं। सरकारी सेवा में रहते हुए सरकार विरोधी काव्य रचना के कारण उन्हें सरकार का कोपभाजन भी बनना पड़ा। 30 दिसंबर 1975 की रात्रि में हृदयाघात से उनकी असमय मृत्यु हो गई। उन्हें मात्र 44 वर्ष की अल्पायु मिली। 

surya ka swagat

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पुस्तक के भाग

1

मापदण्ड बदलो

23 मई 2022
8
2
0

मेरी प्रगति या अगति का यह मापदण्ड बदलो तुम, जुए के पत्ते-सा मैं अभी अनिश्चित हूँ । मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं, कोपलें उग रही हैं, पत्तियाँ झड़ रही हैं, मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रह

2

कुंठा

23 मई 2022
3
1
0

मेरी कुंठा रेशम के कीड़ों-सी ताने-बाने बुनती, तड़प तड़पकर बाहर आने को सिर धुनती, स्वर से शब्दों से भावों से औ' वीणा से कहती-सुनती, गर्भवती है मेरी कुंठा –- कुँवारी कुंती! बाहर आने दूँ तो

3

एक स्थिति

23 मई 2022
3
0
0

हर घर में कानाफूसी औ’ षडयंत्र, हर महफ़िल के स्वर में विद्रोही मंत्र, क्या नारी क्या नर क्या भू क्या अंबर माँग रहे हैं जीने का वरदान, सब बच्चे, सब निर्बल, सब बलवान, सब जीवन सब प्राण, सुबह दोपहर

4

परांगमुखी प्रिया से

23 मई 2022
2
0
0

ओ परांगमुखी प्रिया! कोरे कागज़ों को रँगने बैठा हूँ असत्य क्यों कहूँगा तुमने कुछ जादू कर दिया। खुद से लड़ते खुद को तोड़ते हुए दिन बीता करते हैं, बदली हैं आकृतियाँ: मेरे अस्तित्व की इकाई को त

5

अनुरक्ति

23 मई 2022
2
0
0

जब जब श्लथ मस्तक उठाऊँगा इसी विह्वलता से गाऊँगा। इस जन्म की सीमा-रेखा से लेकर बाल-रवि के दूसरे उदय तक हतप्रभ आँखों के इसी दायरे में खींच लाना तुम्हें मैं बार बार चाहूँगा! सुख का होता स्खलन

6

कैद परिंदे का बयान

23 मई 2022
1
0
0

तुमको अचरज है--मैं जीवित हूँ! उनको अचरज है--मैं जीवित हूँ! मुझको अचरज है--मैं जीवित हूँ! लेकिन मैं इसीलिए जीवित नहीं हूँ- मुझे मृत्यु से दुराव था, यह जीवन जीने का चाव था, या कुछ मधु-स्मृतियाँ

7

धर्म

23 मई 2022
1
0
0

तेज़ी से एक दर्द मन में जागा मैंने पी लिया, छोटी सी एक ख़ुशी अधरों में आई मैंने उसको फैला दिया, मुझको सन्तोष हुआ और लगा  हर छोटे को बड़ा करना धर्म है ।

8

ओ मेरी जिंदगी

23 मई 2022
1
0
0

मैं जो अनवरत तुम्हारा हाथ पकड़े स्त्री-परायण पति सा इस वन की पगडंडियों पर भूलता-भटकता आगे बढ़ता जा रहा हूँ, सो इसलिए नहीं कि मुझे दैवी चमत्कारों पर विश्वास है, या तुम्हारे बिना मैं अपूर्ण हूँ,

9

मैं और मेरा दुख

23 मई 2022
1
0
0

दुख : किसी चिड़िया के अभी जन्मे बच्चे सा किंतु सुख : तमंचे की गोली जैसा मुझको लगा है। आप ही बताएँ कभी आप ने चलती हुई गोली को चलते, या अभी जन्मे बच्चे को उड़ते हुए देखा है? 

10

ओ मेरी जिंदगी

23 मई 2022
1
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0

मैं जो अनवरत तुम्हारा हाथ पकड़े स्त्री-परायण पति सा इस वन की पगडंडियों पर भूलता-भटकता आगे बढ़ता जा रहा हूँ, सो इसलिए नहीं कि मुझे दैवी चमत्कारों पर विश्वास है, या तुम्हारे बिना मैं अपूर्ण हूँ,

11

मैं और मेरा दुख

23 मई 2022
1
0
0

दुख : किसी चिड़िया के अभी जन्मे बच्चे सा किंतु सुख : तमंचे की गोली जैसा मुझको लगा है। आप ही बताएँ कभी आप ने चलती हुई गोली को चलते, या अभी जन्मे बच्चे को उड़ते हुए देखा है?

12

शब्दों की पुकार

23 मई 2022
1
0
0

एक बार फिर हारी हुई शब्द-सेना ने मेरी कविता को आवाज़ लगाई “ओ माँ! हमें सँवारो। थके हुए हम बिखरे-बिखरे क्षीण हो गए, कई परत आ गईं धूल की, धुँधला सा अस्तित्व पड़ गया, संज्ञाएँ खो चुके...! ले

13

दिग्विजय का अश्व

23 मई 2022
1
0
0

“—आह, ओ नादान बच्चो! दिग्विजय का अश्व है यह, गले में इसके बँधा है जो सुनहला-पत्र मत खोलो, छोड़ दो इसको। बिना-समझे, बिना-बूझे, पकड़ लाए मूँज की इन रस्सियों में बाँधकर क्यों जकड़ लाए? क्या करो

14

मुक्तक

23 मई 2022
1
0
0

सँभल सँभल के’ बहुत पाँव धर रहा हूँ मैं पहाड़ी ढाल से जैसे उतर रहा हूँ मैं क़दम क़दम पे मुझे टोकता है दिल ऐसे गुनाह कोई बड़ा जैसे कर रहा हूँ मैं। तरस रहा है मन फूलों की नई गंध पाने को खिली धूप म

15

दिन निकलने से पहले

23 मई 2022
1
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“मनुष्यों जैसी पक्षियों की चीखें और कराहें गूँज रही हैं, टीन के कनस्तरों की बस्ती में हृदय की शक्ल जैसी अँगीठियों से धुआँ निकलने लगा है, आटा पीसने की चक्कियाँ जनता के सम्मिलित नारों की सी आवाज़

16

परिणति

23 मई 2022
1
0
0

आत्मसिद्ध थीं तुम कभी! स्वयं में समोने को भविष्यत् के स्वप्न नयनों से वेगवान सुषमा उमड़ती थी, आश्वस्त अंतस की प्रतिज्ञा की तरह तन से स्निग्ध मांसलता फूट पड़ती थी जिसमें रस था: पर अब तो बच्चों

17

वासना का ज्वार

23 मई 2022
1
0
0

क्या भरोसा लहर कब आए? किनारे डूब जाएँ? तोड़कर सारे नियंत्रण इस अगम गतिशील जल की धार कब डुबोदे क्षीण जर्जर यान? (मैं जिसे संयम बताता हूँ) आह! ये क्षण! ये चढ़े तूफ़ान के क्षण! क्षुद्र इस व्यक

18

एक पत्र का अंश

23 मई 2022
1
0
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मुझे लिखना वह नदी जो बही थी इस ओर! छिन्न करती चेतना के राख के स्तूप, क्या अब भी वहीं है? बह रही है? या गई है सूख वह पाकर समय की धूप? प्राण! कौतूहल बड़ा है, मुझे लिखना, श्वाँस देकर खाद परती

19

गीत तेरा

23 मई 2022
1
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0

गीत तेरा मन कँपाता है। शक्ति मेरी आजमाता है। न गा यह गीत, जैसे सर्प की आँखें कि जिनका मौन सम्मोहन सभी को बाँध लेता है, कि तेरी तान जैसे एक जादू सी मुझे बेहोश करती है, कि तेरे शब्द जिनमें हू

20

जभी तो

23 मई 2022
1
0
0

नफ़रत औ’ भेद-भाव केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं रह गया है अब। मैंने महसूस किया है मेरे घर में ही बिजली का सुंदर औ’ भड़कदार लट्टू कुरसी के टूटे हुए बेंत पर, खस्ता तिपाई पर, फटे हुए बिस्तर पर, छिन्न

21

मोम का घोड़ा

23 मई 2022
3
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1

मैने यह मोम का घोड़ा, बड़े जतन से जोड़ा, रक्त की बूँदों से पालकर सपनों में ढालकर बड़ा किया, फिर इसमें प्यास और स्पंदन गायन और क्रंदन सब कुछ भर दिया, औ’ जब विश्वास हो गया पूरा अपने सृजन पर, त

22

यह क्यों

25 मई 2022
1
0
0

हर उभरी नस मलने का अभ्यास रुक रुककर चलने का अभ्यास छाया में थमने की आदत यह क्यों ? जब देखो दिल में एक जलन उल्टे उल्टे से चाल-चलन सिर से पाँवों तक क्षत-विक्षत यह क्यों ? जीवन के दर्शन पर दि

23

मंत्र हूँ

25 मई 2022
1
0
0

मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं! एक बूँद आँसू में पढ़कर फेंको मुझको ऊसर मैदानों पर खेतों खलिहानों पर काली चट्टानों पर....। मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं आज अगर चुप हूँ धूल भरी बाँसुरी सरी

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स्वप्न और परिस्थितियाँ

25 मई 2022
1
0
0

सिगरेट के बादलों का घेरा बीच में जिसके वह स्वप्न चित्र मेरा जिसमें उग रहा सवेरा साँस लेता है, छिन्न कर जाते हैं निर्मम हवाओं के झोंके; आह! है कोई माई का लाल? जो इन्हें रोके, सामने आकर सीना ठोंके

25

अभिव्यक्ति का प्रश्न

25 मई 2022
1
0
0

प्रश्न अभिव्यक्ति का है, मित्र! किसी मर्मस्पर्शी शब्द से या क्रिया से, मेरे भावों, अभावों को भेदो प्रेरणा दो! यह जो नीला ज़हरीला घुँआ भीतर उठ रहा है, यह जो जैसे मेरी आत्मा का गला घुट रहा है,

26

दीवार

25 मई 2022
1
0
0

दीवार, दरारें पड़ती जाती हैं इसमें दीवार, दरारें बढ़ती जाती हैं इसमें तुम कितना प्लास्टर औ’ सीमेंट लगाओगे कब तक इंजीनियरों की दवा पिलाओगे गिरने वाला क्षण दो क्षण में गिर जाता है, दीवार भला कब तक

27

आत्म-वर्जना

25 मई 2022
1
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अब हम इस पथ पर कभी नहीं आएँगे। तुम अपने घर के पीछे जिन ऊँची ऊँची दीवारों के नीचे मिलती थीं, उनके साए अब तक मुझ पर मँडलाए, अब कभी न मँडलाएँगें। दुख ने झिझक खोल दी वे बिनबोले अक्षर जो मन की अभ

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दो पोज़

25 मई 2022
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सद्यस्नात  तुम जब आती हो मुख कुन्तलो से ढँका रहता है बहुत बुरे लगते हैं वे क्षण जब राहू से चाँद ग्रसा रहता है । पर जब तुम केश झटक देती हो अनायास तारों-सी बूँदें बिखर जाती हैं आसपास मुक्त हो

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एक मनस्थिति का चित्र

25 मई 2022
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मानसरोवर की गहराइयों में बैठे हंसों ने पाँखें दीं खोल शांत, मूक अंबर में हलचल मच गई गूँज उठे त्रस्त विविध-बोल शीष टिका हाथों पर आँख झपीं, शंका से बोधहीन हृदय उठा डोल।

30

पुनर्स्मरण

25 मई 2022
2
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आह-सी धूल उड़ रही है आज चाह-सा काफ़िला खड़ा है कहीं और सामान सारा बेतरतीब दर्द-सा बिन-बँधे पड़ा है कहीं कष्ट-सा कुछ अटक गया होगा मन-सा राहें भटक गया होगा आज तारों तले बिचारे को काटनी ही पड़ेगी

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सूर्यास्त: एक इम्प्रेशन

25 मई 2022
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सूरज जब   किरणों के बीज-रत्नन  धरती के प्रांगण में बोकर हारा-थका स्वेद-युक्त रक्त-वदन सिन्धु के किनारे निज थकन मिटाने को नए गीत पाने को आया, तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया, ऊपर से लहरों

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सत्य

25 मई 2022
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दूर तक फैली हुई है जिंदगी की राह ये नहीं तो और कोई वृक्ष देगा छाँह गुलमुहर, इस साल खिल पाए नहीं तो क्या! सत्य, यदि तुम मुझे मिल पाए नहीं तो क्या!

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क्षमा

25 मई 2022
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"आह! मेरा पाप-प्यासा तन किसी अनजान, अनचाहे, अकथ-से बंधनों में बँध गया चुपचाप मेरा प्यार पावन हो गया कितना अपावन आज! आह! मन की ग्लानि का यह धूम्र मेरी घुट रही आवाज़! कैसे पी सका विष से भरे वे

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कागज़ की डोंगियाँ

25 मई 2022
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यह समंदर है। यहाँ जल है बहुत गहरा। यहाँ हर एक का दम फूल आता है। यहाँ पर तैरने की चेष्टा भी व्यर्थ लगती है। हम जो स्वयं को तैराक कहते हैं, किनारों की परिधि से कब गए आगे? इसी इतिवृत्त में हम घूम

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पर जाने क्यों

25 मई 2022
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माना इस बस्ती में धुआँ है खाई है, खंदक है, कुआँ है; पर जाने क्यों? कभी कभी धुआँ पीने को भी मन करता है; खाई-खंदकों में जीने को भी मन करता है; यह भी मन करता है यहीं कहीं झर जाएँ, यहीं किसी भूखे

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इनसे मिलिए

25 मई 2022
1
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पाँवों से सिर तक जैसे एक जनून बेतरतीबी से बढ़े हुए नाख़ून कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दाग़िल पाँव जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस पिण्डलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस

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माया

25 मई 2022
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दूध के कटोरे सा चाँद उग आया। बालकों सरीखा यह मन ललचाया। (आह री माया! इतना कहाँ है मेरे पास सरमाया? जीवन गँवाया!)

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संधिस्थल

25 मई 2022
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साँझ। दो दिशाओं से दो गाड़ियाँ आईं रुकीं। ‘यह कौन देखा कुछ झिझक संकोच से पर मौन। ‘तुमुल कोलाहल भरा यह संधिस्थल धन्य!’ दोनों एक दूजे के हृदय की धड़कनों को सुन रहे थे शांत, जैसे ऐंद्रजालिक

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प्रेरणा के नाम

25 मई 2022
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तुम्हें याद होगा प्रिय जब तुमने आँख का इशारा किया था तब मैंने हवाओं की बागडोर मोड़ी थीं, ख़ाक में मिलाया था पहाड़ों को, शीष पर बनाया था एक नया आसमान, जल के बहावों को मनचाही गति दी थी, किंतु--वह

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सूचना

25 मई 2022
1
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कल माँ ने यह कहा  कि उसकी शादी तय हो गई कहीं पर, मैं मुसकाया वहाँ मौन रो दिया किन्तु कमरे में आकर जैसे दो दुनिया हों मुझको मेरा कमरा औ' मेरा घर ।

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समय

25 मई 2022
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नहीं! अभी रहने दो! अभी यह पुकार मत उठाओ! नगर ऐसे नहीं हैं शून्य! शब्दहीन! भूला भटका कोई स्वर अब भी उठता है--आता है! निस्वन हवा में तैर जाता है! रोशनी भी है कहीं? मद्धिम सी लौ अभी बुझी नहीं,

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आँधी और आग

25 मई 2022
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अब तक ग्रह कुछ बिगड़े बिगड़े से थे इस मंगल तारे पर नई सुबह की नई रोशनी हावी होगी अँधियारे पर उलझ गया था कहीं हवा का आँचल अब जो छूट गया है एक परत से ज्यादा राख़ नहीं है युग के अंगारे पर।

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अनुभव-दान

25 मई 2022
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"खँडहरों सी भावशून्य आँखें नभ से किसी नियंता की बाट जोहती हैं। बीमार बच्चों से सपने उचाट हैं; टूटी हुई जिंदगी आँगन में दीवार से पीठ लगाए खड़ी है; कटी हुई पतंगों से हम सब छत की मुँडेरों पर पड़े ह

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उबाल

25 मई 2022
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गाओ...! काई किनारे से लग जाए अपने अस्तित्व की शुद्ध चेतना जग जाए जल में ऐसा उबाल लाओ...!

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सत्य बतलाना

25 मई 2022
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सत्य बतलाना तुमने उन्हें क्यों नहीं रोका? क्यों नहीं बताई राह? क्या उनका किसी देशद्रोही से वादा था? क्या उनकी आँखों में घृणा का इरादा था? क्या उनके माथे पर द्वेष-भाव ज्यादा था? क्या उनमें कोई

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तीन दोस्त

25 मई 2022
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सब बियाबान, सुनसान अँधेरी राहों में खंदकों खाइयों में रेगिस्तानों में, चीख कराहों में उजड़ी गलियों में थकी हुई सड़कों में, टूटी बाहों में हर गिर जाने की जगह बिखर जाने की आशंकाओं में लोहे की सख्

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उसे क्या कहूँ

25 मई 2022
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किन्तु जो तिमिर-पान औ' ज्योति-दान करता करता बह गया उसे क्या कहूँ कि वह सस्पन्द नहीं था ? और जो मन की मूक कराह ज़ख़्म की आह कठिन निर्वाह व्यक्त करता करता रह गया उसे क्या कहूँ गीत का छन्द नह

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सत्यान्वेषी

25 मई 2022
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फेनिल आवर्त्तों के मध्य अजगरों से घिरा हुआ विष-बुझी फुंकारें सुनता-सहता, अगम, नीलवर्णी, इस जल के कालियादाह में दहता, सुनो, कृष्ण हूँ मैं, भूल से साथियों ने इधर फेंक दी थी जो गेंद उसे लेने आय

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नई पीढ़ी का गीत

25 मई 2022
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जो मरुस्थल आज अश्रु भिगो रहे हैं, भावना के बीज जिस पर बो रहे हैं, सिर्फ़ मृग-छलना नहीं वह चमचमाती रेत! क्या हुआ जो युग हमारे आगमन पर मौन? सूर्य की पहली किरन पहचानता है कौन? अर्थ कल लेंगे हमारे आज

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सूर्य का स्वागत

25 मई 2022
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आँगन में काई है, दीवारें चिकनीं हैं, काली हैं, धूप से चढ़ा नहीं जाता है, ओ भाई सूरज! मैं क्या करूँ? मेरा नसीबा ही ऐसा है! खुली हुई खिड़की देखकर तुम तो चले आए, पर मैं अँधेरे का आदी, अकर्मण्य.

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