अलगनी सी रोज उतारती हूँ एक चुप्पी मिट्टी के इस तन में हौसला भरती हूँ चुप्पी की बाती को डुबोकर एक और दिन की तीली से उसे जलाकर ख्यालों ख़्वाबों को प्रकाशित करती हूँ ... जितना संभव था जो हो सकता था वो मैंने किया बंधू फिर भी, तुम शिकायतों को हवा देते हो मेरे ख़्वाबों, ख्यालों को नकारात्मक दृष्टि से देखते