अलगनी सी रोज उतारती हूँ एक चुप्पी
मिट्टी के इस तन में
हौसला भरती हूँ
चुप्पी की बाती को डुबोकर
एक और दिन की तीली से उसे जलाकर
ख्यालों ख़्वाबों को प्रकाशित करती हूँ ...
जितना संभव था
जो हो सकता था
वो मैंने किया बंधू
फिर भी,
तुम शिकायतों को हवा देते हो
मेरे ख़्वाबों, ख्यालों को नकारात्मक दृष्टि से देखते हो
तो ... सफाई किसे और क्यूँ !
कोई भी रिश्ता सफाई से
लंबी उमर नहीं पाता
और अचानक हुए भूकम्प से
भरभराई दीवारें
पूर्ववत शक्ल कहाँ पाती हैं !
...
तुम्हारी सारी निष्ठा
इस बात में है
कि मेरा कहा यदि नहीं होगा
तो मेरी वक्र दृष्टि
कुटिल मुस्कान का सवेरा होगा
तो यकीनन यह मुमकिन नहीं ...
मेरे पास कोई ज़िद नहीं
ना ही कोई पुश्तैनी अमीरी है !
हाँ,
मेरा मन सपने बहुत देखता है
एक टूटता है
तो वह दूसरा उठा लेता है
देखना मुझे चार काँधे भी मेरे सपने देंगे
क्योंकि वही मेरी हकीकत है
मेरी पूंजी
...
तुम कहो
रोओगे मेरा नाम लेकर
या ताउम्र पछताओगे ?