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यादों की डायरी

3 अक्टूबर 2022

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जब जब खोलता हूं 
अपनी यादों की डायरी 
तब तब निकल पड़ते हैं 
कुछ अहसास 
जो घुटकर रह गये अंतस में 
चीखते रहे अंदर ही अंदर 
पर बाहर ना आ सके ।
होठों ने आने ही नहीं दिया 
शायद डर के कारण 
कि कहीं बाहर आ गये तो 
प्रलय ना आ जाये । 
पर होठों को क्या पता कि 
प्रलय तो तब भी नहीं आई 
जब एक मां के सामने उसके 
बच्चों की बलि दे दी गई 
और वह दुहाई देती रह गई । 
एक पति के सामने ही
उसकी पत्नी की लाज लुटती रही 
और वह बेबस कुछ कर नहीं पाया ।
और तब भी नहीं जब 
प्रेम के नाम पर एक राक्षस 
किसी हसीन चेहरे को 
तेजाब से नहला गया था 
और वह लड़की 
एक जिंदा लाश बनकर रह गई । 
प्रलय तो तब भी नहीं आई 
जब दहेज के लिये सैकड़ों 
वधुओं को जिंदा जला दिया गया 
और तब भी नहीं जब 
दहेज विरोधी कानून का दुरुपयोग कर 
हजारों निर्दोषों को सलाखों में भेज दिया गया । 
तब भी नहीं जब धर्मांधता ने 
मानवता को रौंद डाला 
कुछ लोगों को "अछूत" बताकर 
उनका जीवन पशुओं से भी बदतर बना डाला । 
प्रलय तो तब भी नहीं आई थी 
जब "छुआछूत" कानून का दुरुपयोग कर 
न जाने कितने निर्दोष लोगों का 
जीवन नर्क बना डाला 
और तब भी नहीं जब 
वोटों के सौदागरों ने चंद वोटों की खातिर 
देश को जहन्नुम बना डाला । 
अथाह सागर में मोतियों सी 
छुपी हुई हैं अनगिनत यादें । 
उस इश्क की भी 
जिसे जता न पाये कभी लबों से 
और आंखों की भाषा वे पढ न सके ।
वक्त की आंधी से 
खुल जाते हैं कभी कभी 
इस डायरी के पन्ने 
स्वत : अनायास स्फूर्त । 
कौन पढना चाहता है 
दूसरे की डायरी ? 
खुद की तो कभी पढी नहीं । 
अरी डायरी ! 
चुपचाप पड़ी रह 
किसी कोने में 
क्योंकि , तेरी जगह वहीं है 
दिल का एक तिक्त कोना । 

श्री हरि 
3.10.22 


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