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आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी

26 जुलाई 2022

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दो बड़े और छोटे कमरों का एक डाकबँगला था जिसे डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने छोड़ दिया था। उसके तीन ओर कच्ची दीवारों पर छ्प्पर डालकर कुछ अस्तबल बनाये गये थे। अस्तबलों से कुछ दूरी पर पक्की ईंटों की दीवार पर टिन डालकर एक दुकान-सी खोली गयी थी। एक ओर रेलवे-फाटक के पास पायी जाने वाली एक कमरे की गुमटी थी। दूसरी ओर एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे एक कब्र-जैसा चबूतरा था। अस्तबलों के पास एक नये ढंग की इमारत बनी थी जिस पर लिखा था, 'सामुदायिक मिलन-केन्द्र , शिवपालगंज।' इस सबके पिछवाडे़ तीन-चार एकड़ का ऊसर पड़ा था जिसे तोड़कर उसमें चरी बोयी गयी थी। चरी कहीं-कहीं सचमुच ही उग आयी थी। 

इन्हीं सब इमारतों के मिले-जुले रुप को छंगामल विद्यालय इण्टरमीजिएट कालिज, शिवपालगंज कहा जाता था। यहाँ से इण्टरमीजिएट पास करने वाले लड़के सिर्फ़ इमारत के आधार पर कह सकते थे कि हम शांतिनिकेतन से भी आगे हैं; हम असली भारतीय विद्यार्थी हैं;हम नहीं जानते कि बिजली क्या है, नल का पानी क्या है; पक्का फ़र्श किसको कहते हैं ; सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम है। हमने विलायती तालीम तक देशी परम्परा में पायी है और इसीलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं! हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है , बंद कमरे में ऊपर चढ़ जाता है। 

छंगामल कभी ज़िला-बोर्ड के चेयरमैन थे। एक फर्जी प्रस्ताव लिखवाकर उन्होंने बोर्ड के डाकबँगले को कालेज इस कॉलिज़ की प्रबन्ध-समिति के नाम उस समय लिख दिया था जब कॉलिज के पास प्रबन्ध-समिति को छोड़कर कुछ नहीं था। लिखने की शर्त के अनुसार कॉलिज का नाम छंगामल विद्यालय पड़ गया था। 

विद्यालय के एक-एक टुकड़े का अलग-अलग इतिहास था। सामुदायिक मिलन -केन्द्र गाँव-सभा के नाम पर लिये गये सरकारी पैसे से बनवाया गया था। पर उसमें प्रिंसिपल का दफ्तर था और कक्षा ग्यारह और बारह की पढ़ाई होती थी। अस्तबल -जैसी इमारतें श्रमदान से बनी थीं। टिन -शेड किसी फ़ौजी छावनी के भग्नावशेषों को रातोंरात हटाकर खड़ा किया गया था। जुता हुआ ऊसर कृषि-विज्ञान की पढ़ाई के काम आता था। उसमें जगह-जगह उगी हुई ज्वार प्रिंसिपल की भैंस के काम आती थी। देश में इंजीनियरों और डॉक्टरों की कमी है। कारण यह है कि इस देश के निवासी परम्परा से कवि हैं। चीज़ को समझने के पहले वे उस पर मुग्ध होकर कविता कहते हैं। भाखड़ा-नंगल बाँध को देखकर वे कहते हैं, 

"अहा! अपना चमत्कार दिखाने के लिए, देखो, प्रभु ने फिर से भारत-भूमि को ही चुना।" ऑपरेशन -टेबल पर पड़ी हुई युवती को देखकर वे मतिराम-बिहारी की कविताएँ दुहराने लग सकते हैं। 

भावना के इस तूफ़ान के बावजूद, और इसी तरह की दूसरी अड़चनों के बावजूद, इस देश को इंजीनियर पैदा करने हैं, शाक्टर बनाने हैं। इंजीनियर और डाक्टर तो असल में वे तब होंगे जब वे अमरीका या इंगलैण्ड जायेंगे , पर कुछ शुरुआती काम-टेक-ऑफ़ स्टेजवाला -यहाँ भी होना है। वह काम भी छंगामल विद्यालय इण्टर कॉलिज कर रहा था। 

साइंस का क्लास लगा था। नवाँ दर्जा। मास्टर मोतीराम, जो एक अरह बी.एस-सी . पास थे, लड़कों को आपेक्षिक घनत्व पढ़ा रहे थे। बाहर उस छोटे-से गाँव में छोटेपन की, बतौर अनुप्रास , छटा छायी थी। सड़क पर ईख से भरी बैलगाड़ियाँ शकर मिल की ओर जा रही थीं। कुछ मरियल लड़के पीछे से ईख खींच-खींचकर भाग रहे थे। आगे बैठा हुआ गाड़ीवान खींच-खींचकर गालियाँ दे रहा था। गालियों का मौलिक महत्व आवाज़ की ऊँचाई में है, इसीलिए गालियाँ और जवाबी गालियाँ एक- दूसरे को ऊँचाई पर काट रही थीं। लड़के नाटक का मज़ा ले रहे थे, साइंस पढ़ रहे थे। 

एक लड़के ने कहा , "मास्टर साहब, आपेक्षिक घनत्व किसे कहते हैं ?" 

वे बोले, "आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी।" 

एक दूसरे लड़के ने कहा, "अब आप, देखिए , साइंस नहीं अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं।" 

वे बोले, "साइंस साला अंग्रेजी के बिना कैसे आ सकता है?" 

लड़कों ने जवाब में हँसना शुरु कर दिया। हँसी का कारण हिन्दी -अंग्रेजी की बहस नहीं , 'साला' का मुहावरेदार प्रयोग था। 

वे बोले, "यह हँसी की बात नहीं है। " 

लड़कों को यक़ीन न हुआ। वे और ज़ोर से हँसे। इस पर मास्टर मोतीराम खुद उन्हीं के साथ हँसने लगे। लड़के चुप हो गये। 

उन्होंने लड़कों को माफ कर दिया। बोले, 

"रिलेटिव डेंसिटी नहीं समझते हो तो आपेक्षिक घनत्व को यों-दूसरी तरकीब से समझो। आपेक्षिक माने किसी के मुक़ाबले का। मान लो, तुमने एक आटाचक्की खोल रखी है और तुम्हारे पड़ोस में तुम्हारे पड़ोसी ने दूसरी आटाचक्की खोल रखी है। तुम महीने में उससे पाँच सौ रुपया पैदा करते हो और तुम्हारा पड़ोसी चार सौ। तो तुम्हें उसके मुक़ाबले ज़्यादा फायदा हुआ। इसे साइंस की भाषा में कह सकते हैं कि तुम्हारा आपेक्षिक लाभ ज़्यादा है। समझ गये?" 

एक लड़का बोला, 

"समझ तो गया मास्टर साहब , पर पूरी बात शुरु से ही ग़लत है। आटाचक्की से इस गाँव में कोई भी पाँच सौ रुपया महीना नहीं पैदा कर सकता।" 

मास्टर मोतीराम ने मेज़ पर हाथ पटककर कहा , "क्यों नहीं कर सकता ! करनेवाला क्या नहीं कर सकता!" 

लड़का इस बात से और बात करने की कला से प्रभावित नहीं हुआ। बोला, 

"कुछ नहीं कर सकता। हमारे चाचा की चक्की धकापेल चलती है, पर मुश्किल से दो सौ रुपया महीना पैदा होता है।" 

"कौन है तुम्हारा चाचा?" मास्टर मोतीराम की आवाज़ जैसे पसीने से तर हो गयी। उन्होंने उस लड़के को ध्यान से देखते हुए पूछा, 

"तुम उस बेईमान मुन्नू के भतीजे तो नहीं हो?" 

लड़के ने अपने अभिमान को छिपाने की कोशिश नहीं की। लापरवाही से बोला, "और नहीं तो क्या?" 

बेईमान मुन्नू बड़े ही बाइज़्ज़त आदमी थे। अंग्रेज़ों में, जिनके गुलाबों में शायद ही कोई ख़ुशबू हो, एक कहावत है: गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो , वह वैसा ही ख़ुशबूदार बना रहेगा। वैसे ही उन्हें भी किसी भी नाम से क्यों न पुकारा जाये, बेईमान मुन्नू उसी तरह इत्मीनान से आटा-चक्की चलाते थे, पैसा कमाते थे, बाइज़्जत आदमी थे। वैसे बेईमान मुन्नू ने यह नाम ख़ुद नहीं कमाया था। यह उन्हें विरासत में मिला था। बचपन से उनके बापू उन्हें प्यार के मारे बेईमान कहते थे, माँ उन्हें प्यार के मारे मुन्नू कहती थी। पूरा गाँव अब उन्हें बेईमान मुन्नू कहता था। वे इस नाम को उसी सरलता से स्वीकार कर चुके थे, जैसे हमने जे.बी.कृपलानी के लिए आचार्यजी, जे.एल .नेहरु के लिए पण्डितजी या एम.के. गांधी के लिए महात्माजी बतौर नाम स्वीकार कर लिया है। 

मास्टर मोतीराम बेईमान मुन्नू के भतीजे को थोड़ी देर तक घूरते रहे। फिर उन्होंने साँस खींचकर कहा, "जाने दो!" 

उन्होंने खुली हुई किताब पर निगाह गड़ा दी। जब उन्होंने निगाह उठायी तो देखा, लड़कों की निगाहें उनकी ओर पहले से ही उठी थीं। उन्होंने कहा, "क्या बात है?" 

एक लड़का बोला,"तो यही तय रहा कि आटा-चक्की से महीने में पाँच सौ रुपया नहीं पैदा किया जा सकता?" 

"कौन कहता है?" मास्टर साहब बोले, 

"मैंने ख़ुद आटा-चक्की से सात-सात सौ रुपया तक एक महीने में खींचा है। पर बेईमान मुन्नू की वजह से सब चौपट होता जा रहा है।" 

बेईमान मुन्नू के भतीजे ने शालीनता से कहा , "इसका अफ़सोस ही क्या , मास्टर साहब! यह तो व्यापार है। कभी चित, कभी पट। कम्पटीशन में ऐसा ही होता है।" 

"ईमानदार और बेईमान का क्या कम्पटीशन? क्या बकते हो?" मास्टर मोतीराम ने डपटकर कहा। तब तक कॉलिज का चपरासी उनके सामने एक नोटिस लेकर खड़ा हो गया। नोटिस पढ़ते-पढ़ते उन्होंने कहा, 

"जिसे देखो मुआइना करने को चला आ रहा है---पढ़ानेवाला अकेला, मुआइना करने वाले दस- दस!" 

एक लड़के ने कहा , "बड़ी खराब बात है !" 

वे चौंककर क्लास की ओर देखने लगे। बोले , "यह कौन बोला?" 

एक लड़का अपनी जगह से हाथ उठाकर बोला , "मैं मास्टर साहब! मैं पूछ रहा था कि आपेक्षिक घनत्व निकालने का क्या तरीका है !" 

मास्टर मोतीराम ने कहा , 

"आपेक्षिक घनत्व निकालने के लिए उस चीज़ का वजन और आयतन यानी वॉल्यूम जानना चाहिए -उसके बाद आपेक्षिक घनत्व निकालने का तरीका जानना चाहिए। जहाँ तक तरीके की बात है, हर चीज के दो तरीके होते हैं। एक सही तरीका, एक गलत तरीका। सही तरीके का सही नतीजा निकलता है, ग़लत तरीके का गलत नतीजा। इसे एक उदाहरण देकर समझाना जरुरी है। मान लो तुमने एक आटा -चक्की लगायी। आटा-चक्की की बढ़िया नयी मशीन है, खूब चमाचम रखी है, जमकर ग्रीज लगायी गयी है। इंजन नया है, पट्टा नया है। सब कुछ है , पर बिजली नहीं है , तो क्या नतीजा निकलेगा ?" 

पहले बोलने वाले लड़के ने कहा, "तो डीजल इंजिन का इस्तेमाल करना पड़ेगा। मुन्नू चाचा ने किया था!" 

मास्टर मोतीराम बोले, 

"यहाँ अकेले मुन्नू चाचा ही के पास अक्ल नहीं है। इस कस्बे में सबसे पहले डीजल इंजिन कौन लाया था ? जानता है कोई?" 

लड़को ने हाथ उठाकर कोरस में कहा, 

"आप ! आप लाये थे!" मास्टर साहब ने सन्तोष के साथ मुन्नू के भतीजे की ओर देखा और हिकारत से बोले , 

"सुन लिया। बेईमान मुन्नू ने तो डीजल इंजिन मेरी देखा-देखी चलाया था। पर मेरी चक्की तो यह कॉलिज खुलने से पहले से चल रही थी। मेरी ही चक्की पर कॉलिज की इमारत के लिए हर आटा पिसवानेवाले से सेर-सेर भर आटे का दान लिया गया। मेरी ही चक्की में पिसकर वह आटा शहर में बिकने के लिए गया। मेरी ही चक्की पर कॉलिज की इमारत का नक्शा बना और मैनेजर काका ने कहा कि, 'मोती, कॉलिज में तुम रहोगे तो मास्टर ही, पर असली प्रिंसीपली तुम्हीं करोगे। ' सबकुछ तो मेरी चक्की पर हुआ और अब गाँव में चक्की है तो बेईमान मुन्नू की! मेरी चक्की कोई चीज ही न हुई !" 

लड़के इत्मीनान से सुनते रहे। यह बात वे पहले भी सुन चुके थे और किसी भी समय सुनने के लिए तैयार रहते थे। उन पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा। पर मुन्नू के भतीजे ने कहा , 

"चीज तो मास्टर साहब आपकी भी बढ़िया है और मुन्नू चाचा की भी। पर आपकी चक्की पर धान कूटनेवाली मशीन ओवरहालिंग माँगती है। धान उसमें ज्यादा टूटता है।" 

मास्टर मोतीराम ने आपसी तरीके से कहा, 

"ऐसी बात नहीं है। मेरे-जैसी धान की मशीन तो पूरे इलाके में नहीं है। पर बेईमान मुन्नू कुटाई-पिसाई का रेट गिराता जा रहा है। इसीलिए लोग उधर ही मुँह मारता है।" 

"यह तो सभी जगह होता है," लड़के ने तर्क किया। 

"सभी जगह नहीं, हिन्दुस्तान ही में ऐसा होता है। हाँ--" उन्होंने कुछ सोचकर कहा, 

"तो रेट गिराकर अपना घाटा दूसरे लोग तो दूसरे लोग तो दूसरी तरह से- ग्राहकों का आटा चुराकर-पूरा कर लेते हैं। अब मास्टर मोतीराम जिस शख़्स का नाम है, वह सब कुछ कर सकता है, यही नहीं कर सकता।" 

एक लड़के ने कहा , "आपेक्षिक घनत्व निकालने का तरीका क्या निकला ?" 

वे जल्दी से बोले , "वही तो बता रहा था।" 

उनकी निगाह खिड़की के पास, सड़क पर ईख की गाड़ियों से तीन फीट ऊपर जाकर, उससे भी आगे क्षितिज पर अटक गयी। कुछ साल पहले के चिरन्तन भावाविष्ट पोजवाले कवियों की तरह वे कहते रहे , 

"मशीन तो पूरे इलाके में वह एक थी; लोहे की थी, पर शीशे-जैसी झलक दिखाती थी--?" 

अचानक उन्होंने दर्जे की ओर सीधे देखकर कहा , "तुमने क्या पूछा था ?" 

लड़के ने अपना सवाल दोहराया, पर उसके पहले ही उनका ध्यान दूसरी ओर चला गया था। लड़कों ने भी कान उठाकर सुना, बाहर ईख चुरानेवालों और ईख बचानेवालों की गालियों के ऊपर, चपरासी के ऊपर पड़नेवाली प्रिंसिपल की फटकार के ऊपर- म्यूजिक-क्लास से उठनेवाली हारमोनियम की म्याँव-म्याँव के ऊपर-अचानक ' भक-भक-भक' की आवाज होने लगी थी। मास्टर मोतीराम की चक्की चल रही थी। 

यह उसी की आवाज थी। यही असली आवाज थी। अन्न-वस्त्र की कमी की चीख पुकार , दंगे-फसाद के चीत्कार , इन सबके तर्क के ऊपर सच्चा नेता जैसे सिर्फ़ आत्मा की आवाज सुनता है, और कुछ नहीं सुन पाता ; वही मास्टर मोतीराम के साथ हुआ। उन्होंने और कुछ नहीं सुना। सिर्फ़ 'भक-भक-भक ' सुना। 

वे दर्जे से भागे। 

लड़कों ने कहा, " क्या हुआ मास्टर साहब? अभी घण्टा नहीं बजा है।" 

वे बोले, " लगता है , मशीन ठीक हो गयी। देखें, कैसी चलती है। " 

वे दरवाजे तक गये , फिर अचानक वहीं से घूम पड़े। चेहरे पर दर्द-जैसा फैल गया था, जैसे किसी ने ज़ोर से चुटकी काटी हो। वे बोले, " किताब में पढ़ लेना। आपेक्षिक घनत्व का अध्याय जरुरी है।" 

उन्होंने लार घूँटी। रुककर कहा , "इम्पार्टेंट है।" कहते ही उनका चेहरा फिर खिल गया। 

भक ! भक! भक! कर्तव्य बाहर के जटिल कर्मक्षेत्र में उनका आह्वान कर रहा था। लड़कों और किताबों का मोह उन्हें रोक न सका। वे चले गये। 

दिन के चार बजे प्रिंसिपल साहब अपने कमरे से बाहर निकले। दुबला-पतला जिस्म, उसके कुछ अंश ख़ाकी हाफ़ पैंट और कमीज़ से ढके थे। पुलिस सार्जेंटोंवाला बेंत बगल में दबा था। पैर में सैंडिल। कुल मिलाकर काफी चुस्त और चालाक दिखते हुए; और जितने थे, उससे ज़्यादा अपने को चुस्त और चालाक समझते हुए। 

उनके पीछे-पीछे हमेशा की तरह, कॉलिज का क्लर्क चल रहा था। प्रिंसिपल साहब की उससे गहरी दोस्ती थी। 

वे दोनों मास्टर मोतीराम के दर्जे के पास से निकले। दर्जा अस्तबलनुमा इमारत में लगा था। दूर ही से दिख गया कि उसमें कोई मास्टर नहीं है। एक लड़का नीचे से जाँघ तक फटा हुआ पायजामा पहने मास्टर की मेज पर बैठा रो रहा था। प्रिंसिपल को पास से गुजरता देख और ज़ोर से रोने लगा। उन्होंने पूछा , " क्या बात है? मास्टर साहब कहाँ गये हैं?" 

वह लड़का अब खड़ा होकर रोने लगा। एक दूसरे लड़के ने कहा , " यह मास्टर मोतीराम का क्लास है।" 

फिर प्रिंसिपल को बताने की जरुरत नहीं पड़ी कि मास्टर साहब कहाँ गये। क्लर्क ने कहा , 

"सिकण्डहैण्ड मशीन चौबीस घण्टे निगरानी माँगती है। कितनी बार मास्टर मोतीराम से कहा कि बेच दो इस आटाचक्की को, पर कुछ समझते ही नहीं हैं। मैं खुद एक बार डेढ़ हजार रुपया देने को तैयार था।" 

प्रिंसिपल साहब ने क्लर्क से कहा, "छोड़ो इस बात को! उधर के दर्जे से मालवीय को बुला लाओ।" 

क्लर्क ने एक लड़के से कहा, " जाओ, उधर के दर्जे से मालवीय को बुला लाओ। " 

थोड़ी देर में एक भला-सा दिखनेवाला नौजवान आता हुआ नजर आया। प्रिंसिपल साहब ने उसे दूर से देखते ही चिल्लाकर कहा, "भाई मालवीय, यह क्लास भी देख लेना।" 

मालवीय नजदीक आकर छप्पर का एक बाँस पकड़कर खड़ा हो गया और बोला, " एक ही पीरियड में दो क्लास कैसे ले सकूँगा?" 

रोनेवाला लड़का रो रहा था। क्लास के पीछे कुछ लड़के जोर-जोर से हँस रहे थे। 

बाकी इन लोगों के पास कुछ इस तरह भीड़ की शक्ल में खड़े हो गये थे जैसे चौराहे पर ऐक्सिडेंट हो गया हो। 

प्रिंसिपल साहब ने आवाज तेज करके कहा, " ज्यादा कानून न छाँटो। जब से तुम खन्ना के साथ उठने-बैठने लगे हो, तुम्हें हर काम में दिक्कत मालूम होती है।" 

मालवीय प्रिंसिपल साहब का मुँह देखता रह गया। क्लर्क ने कहा, 

"सरकारी बसवाला हिसाब लगाओ मालवीय। एक बस बिगड़ जाती है तो सब सवारियाँ पीछे आनेवाली दूसरी बस में बैठा दी जाती हैं। इन लड़कों को भी वैसे ही अपने दर्जे में ले जाकर बैठा लो। " 

उसने बहुत मीठी आवाज में कहा, "पर यह तो नवाँ दर्जा है। मैं वहाँ सातवें को पढ़ा रहा हूँ। " 

प्रिंसिपल साहब की गरदन मुड़ गयी। समझनेवाले समझ गये कि अब उनके हाथ हाफ़ पैंट की जेबों में चले जायेंगे और वे चीखेंगे। वही हुआ। वे बोले, "मैं सब समझता हूँ। तुम भी खन्ना की तरह बहस करने लगे हो। मैं सातवें और नवें का फर्क समझता हूँ। हमका अब प्रिंसिपली करै न सिखाव भैया। जौनु हुकुम है, तौनु चुप्पे कैरी आउट करौ। समझ्यो कि नाहीं?" 

प्रिंसिपल साहब पास के ही गाँव के रहने वाले थे। दूर-दूर के इलाकों में वे अपने दो गुणों के लिए विख्यात थे। एक तो खर्च का फर्जी नक्शा बनाकर कॉलिज के लिए ज्यादा-से- ज्यादा सरकारी पैसा खींचने के लिए, दूसरे गुस्से की चरम दशा में स्थानीय अवधी बोली का इस्तेमाल करने के लिए। जब वे फर्जी नक्शा बनाते थे तो बड़ा-से-बड़ा ऑडीटर भी उसमें कलम न लगा सकता था; जब वे अवधी बोलने लगते थे तो बड़ा-से -बड़ा तर्कशास्त्री भी उनकी बात का जवाब न दे सकता था। 

मालवीय सिर झुकाकर वापस चला गया। प्रिंसिपल साहब ने फटे पायजामेवाले लड़के की पीठ पर एक बेंत झाड़कर कहा , 

"जाओ। उसी दर्जे में जाकर सब लोग चुपचाप बैठो। जरा भी साँस ली तो खाल खींच लूँगा।" 

लड़कों के चले जाने पर क्लर्क ने मुस्कराकर कहा, "चलिए, अब खन्ना मास्टर का भी नज़ारा देख लें।" 

खन्ना मास्टर का असली नाम खन्ना था। वैसे ही, जैसे तिलक, पटेल , गाँधी, नेहरु-आदि हमारे यहाँ जाति के नहीं, बल्कि व्यक्ति के नाम हैं। इस देश में जाति-प्रथा को खत्म करने की यही एक सीधी-सी तरकीब है। जाति से उसका नाम छीनकर उसे किसी आदमी का नाम बना देने से जाति के पास और कुछ नहीं रह जाता। वह अपने -आप ख़त्म हो जाती है। 

खन्ना मास्टर इतिहास के लेक्चरार थे, पर इस वक्त इण्टरमीजिएट के दर्जे में अंग्रेजी पड़ा रहे थे। वे दाँत पीसकर कह रहे थे ,

" हिन्दी में तो बड़ी -बड़ी प्रेम-कहानियाँ लिखा करते हो पर अंग्रेजी में कोई जवाब देते हुए मुँह घोडे़-जैसा लटक जाता है।" 

एक लड़का दर्जे में सिर लटकाये खड़ा था। वैसे तो घी-दूध की कमी और खेल -कूद की तंगी से हर औसत विद्यार्थी मरियल घोड़े-जैसा दिखता है, पर इस लड़के के मुँह की बनावट कुछ ऐसी थी कि बात इसी पर चिपककर रह गयी थी। दर्जे के लड़के जोर से हँसे। खन्ना मास्टर ने अंग्रेजी में पूछा, 

"बोलो, 'मेटाफर' का क्या अर्थ है?" 

लड़का वैसे ही खड़ा रहा। कुछ दिन पहले इस देश में शोर मचा था कि अपढ़ आदमी बिना सींग-पूँछ का जानवर होता है। उस हल्ले में अपढ़ आदमियों के बहुत से लड़कों ने देहात में हल और कुदालें छोड़ दीं और स्कूलों पर हमला बोल दिया। हज़ारों की तादाद में आये हुए ये लड़के स्कूलों, कॉलिजों, यूनिवर्सिटियों को बुरी तरह से घेरे हुए थे। शिक्षा के मैदान में भभ्भड़ मचा हुआ था। अब कोई यह प्रचार करता हुआ नहीं दीख पड़ता था कि अपढ़ आदमी जानवर की तरह है। बल्कि दबी जबान में यह कहा जाने लगा था कि ऊँची तालीम उन्हीं को लेना चाहिए जो उसके लायक हों, इसके लिए 'स्क्रीनिंग ' होना चाहिए। इस तरह घुमा-फिराकर इन देहाती लड़कों को फिर से हल की मूठ पकड़ाकर खेत में छोड़ देने की राय दी जा रही थी। पर हर साल फेल होकर , दर्जे में सब तरह की डाँट-फटकार झेलकर और खेती की महिमा पर नेताओं के निर्झरपंथी व्याख्यान सुनकर भी वे लड़के हल और कुदाल की दुनिया में वापस जाने को तैयार न थे। वे कनखजूरे की तरह स्कूल से चिपके हुए थे और किसी भी कीमत पर उससे चिपके रहना चाहते थे। 

घोड़े के मुँहवाला यह लड़का भी इसी भीड़ का एक अंग था ; दर्जे में उसे घुमा -फिराकर रोज-रोज बताया जाता कि जाओ बेटा, जाकर अपनी भैंस दुहो और बैलों की पूँछ उमेठो; शेली और कीट्स तुम्हारे लिए नहीं हैं। पर बेटा अपने बाप से कई शताब्दी आगे निकल चुका था और इन इशारों को समझने के लिए तैयार नहीं था। उसका बाप आज भी अपने बैलों के लिए बारहवीं शताब्दी में प्रचलित गँडासे से चारा काटता था। उस वक्त लड़का एक मटमैली किताब में अपना घोड़े- सा मुँह छिपाकर बीसवीं शताब्दी के कलकत्ते की रंगीन रातों पर गौर करता रहता था। इस हालत में वह कोई परिवर्तन झेलने को तैयार न था। इसलिए वह मेटाफर का मतलब नहीं बता सकता था और न अपने मुँह की बनावट पर बहस करना चाहता था। 

कॉलिज के हर औसत विद्यार्थी की तरह यह लड़का भी पोशाक के मामले में बेतकल्लुफ था। इस वक्त वह नंगे पाँव, एक ऐसे धारीदार कपड़े का मैला पायजामा पहने हुए खड़ा था जिसे शहरवाले प्रायः स्लीपिंग सूट के लिए इस्तेमाल करते हैं। वह गहरे कत्थई रंग की मोटी कमीज़ पहने था, जिसके बटन टूटे थे। सिर पर रुखे और कड़े बाल थे। चेहरा बिना धुला हुआ और आँखें गिचपिची थीं। देखते ही लगता था, वह किसी प्रोपेगैंडा के चक्कर में फँसकर कॉलिज की ओर भाग आया है। 

लड़के ने पिछले साल किसी सस्ती पत्रिका से एक प्रेम-कथा नकल करके अपने नाम से कॉलिज की पत्रिका में छाप दी थी। खन्ना मास्टर उसकी इसी ख़्याति पर कीचड़ उछाल रहे थे। उन्होंने आवाज बदलकर कहा, 

" कहानीकार जी, कुछ बोलिए तो, मेटाफर क्या चीज होती है?" 

लड़के ने अपनी जाँघें खुजलानी शुरु कर दीं। मुँह को कई बार टेढ़ा-मेढ़ा करके वह आखिर में बोला , 

"जैसे महादेवीजी की कविता में वेदना का मेटाफर आता है----। " 

खन्ना मास्टर ने कड़ककर कहा, "शट-अप! यह अंग्रेजी का क्लास है।" लड़के ने जाँघें खुजलानी बन्द कर दीं। 

वे ख़ाकी पतलून और नीले रंग की बुश्शर्ट पहने थे और आँखों पर सिर्फ चुस्त दिखने के लिए काला चश्मा लगाये थे। कुर्सी के पास से निकलकर वे मेज के आगे आ गये। अपने कूल्हे का एक संक्षिप्त भाग उन्होंने मेज से टिका लिया। लड़के को वे कुछ और कहने जा रहे थे , तभी उन्होंने क्लास के पिछले दरवाजे पर प्रिंसिपल साहब को घूरते पाया। उन्हें बरामदे में खड़े हुए क्लर्क का कन्धा-भर दीख पड़ा। 

वे मेज़ का सहारा छोड़कर सीधे खड़े हो गये और बोले, "जी , शेली की एक कविता पढ़ा रहा था। " 

प्रिंसिपल ने एक शब्द पर दूसरा शब्द पर दूसरा शब्द लुढ़काते हुए तेज़ी से कहा, " पर आपकी बात सुन कौन रहा है? ये लोग तो तस्वीरें देख रहे हैं।" 

वे कमरे के अन्दर आ गये। बारी-बारी से दो लड़कों की पीठ में उन्होंने अपना बेंत चुभोया। वे उठकर खड़े हो गये। एक गन्दे पायजामे, बुश्शर्ट और तेल बहाते हुए बालोंवाला चीकटदार लड़का था; दूसरा घुटे सिर , कमीज और अण्डरवियर पहने हुए पहलवानी धज का। प्रिंसिपल साहब ने उनसे कहा, 

"यही पढ़ाया जा रहा है?" 

झुककर उन्होंने पहले लड़के की कुर्सी से एक पत्रिका उठा ली। यह सिनेमा का साहित्य था। एक पन्ना खोलकर उन्होंने हवा में घुमाया। लड़कों ने देखा, किसी विलायती औरत के उरोज तस्वीर में फड़फड़ा रहे हैं। उन्होंने पत्रिका जमीन पर फेंक दी और चीखकर अवधी में बोले, "यहै पढ़ि रहे हौ?" 

कमरे में सन्नाटा छा गया। 'महादेवी की वेदना ' का प्रेमी मौका ताककर चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गया। प्रिंसिपल साहब ने क्लास के एक छोर से दूसरे छोर पर खड़े हुए खन्ना मास्टर को ललकारकर कहा, 

" आपके दर्जे में डिसिप्लिन की यह हालत है! लड़के सिनेमा की पत्रिकाएँ पढ़ते हैं! और आप इसी बूते पर जोर डलवा रहे हैं कि आपको वाइस प्रिंसिपल बना दिया जाये! इसी तमीज से वाइस प्रिंसिपली कीजियेगा! भइया, यहै हालु रही तौ वाइस प्रिंसिपली तो अपने घर रही, पारसाल की जुलाई माँ डगर-डगर घूम्यौ।" 

कहते -कहते अवधी के महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की आत्मा उनके शरीर में एक ओर से घुसकर दूसरी ओर से निकल गयी। वे फिर खड़ी बोली पर आ गये, 

"पढ़ाई-लिखाई में क्या रखा है! असली बात है डिसिप्लिन ! समझे, मास्टर साहब?" 

यह कहकर प्रिंसिपल उमर खैयाम के हीरो की तरह, "मै पानी-जैसा आया था औ' आँधी-जैसा जाता हूँ " की अदा से चल दिये। पीठ-पीछे उन्हें खन्ना मास्टर की भुनभुनाहट सुनायी दी। 

वे कॉलिज के फाटक से बाहर निकले। सड़क पर पतलून-कमीज पहने हुए एक आदमी आता हुआ दीख पड़ा। साइकिल पर था। पास से जाते-जाते उसने प्रिंसिपल साहब को और प्रिंसिपल साहब ने उसे सलाम किया। उसके निकल जाने पर क्लर्क ने पूछा, 

"यह कौन चिडीमार है?" 

"मलेरिया-इंसपेक्टर है--नया आया है। बी.डी. ओ. का भांजा लगता है। बड़ा फितरती है। मैं कुछ बोलता नहीं। सोचता हूँ, कभी काम आयेगा। कभी काम आयेगा।" 

क्लर्क ने कहा, "आजकल ऐसे ही चिड़ीमारों से काम बनता है। कोई शरीफ आदमी तो कुछ करके देता ही नहीं। " 

थोड़ी देर तक दोनों चुपचाप सड़क पर चलते रहे। प्रिंसिपल ने अपनी बात फिर से शुरु की, "हर आदमी से मेल-जोल रखना ज़रुरी है। इस कॉलिज के पीछे गधे तक को बाप कहना पड़ता है।" 

क्लर्क ने कहा, "सो तो देख रहा हूँ। दिन-भर आपको यही करते बीतता है।" 

वे बोले, "बताइए, मुझसे पहले भी यहाँ पाँच प्रिंसिपल रह चुके हैं। कौनो बनवाय पावा इत्ती बड़ी पक्की इमारत ?" वे प्रकृतिस्थ हुए, " यहाँ सामुदायिक केन्द्र बनवाना मेरा ही बूता था। है कि नहीं?" 

क्लर्क ने सर हिलाकर 'हाँ' कहा। 

थोड़ी देर में वे चिन्तापूर्वक बोले, "मैं फिर इसी टिप्पस में हूँ कि कोई चण्डूल फँसे तो इमारत के एकाध ब्लाक और बनवा डाले जायें।" 

क्लर्क चुपचाप साथ-साथ चलता रहा। अचानक ठिठककर खड़ा हो गया। प्रिंसिपल साहब भी रुक गये। क्लर्क बोला, "दो इमारतें बननेवाली हैं। " 

प्रिंसिपल ने उत्साह से गर्दन उठाकर कहा, "कहाँ ?" 

"एक तो अछूतों के लिए चमड़ा कमाने की इमारत बनेगी। घोड़ा- डॉक्टर बता रहा था। दूसरे, अस्पताल के लिए हैज़े का वार्ड बनेगा। वहाँ ज़मीन की कमी है। कॉलिज ही के आसपास टिप्पस से ये इमारतें बनवा लें--फिर धीरे- से हथिया लेंगे।" 

प्रिंसिपल साहब निराशा से साँस छिड़कर आगे चल पड़े। कहने लगे, "मुझे पहले ही मालूम था। इनमें टिप्पस नहीं बैठेगा।" 

कुछ देर दोनों चुपचाप चलते रहे। 

सड़क के किनारे एक आदमी दो-चार मज़दूरों को इकट्ठा करके उन पर बिगड़ रहा था। प्रिंसिपल साहब उनके पास खड़े हो गये। दो-चार मिनट उन्होंने समझने की कोशिश की कि वह आदमी क्यों बिगड़ रहा है। मज़दूर गिड़गिड़ा रहे थे। प्रिंसिपल ने समझ लिया कि कोई ख़ास बात नहीं है, मजदूर और ठेकेदार सिर्फ अपने रोज -रोज के तरीकों का प्रदर्शन कर रहे हैं और बातचीत में ज़िच पैदा हो गयी है। उन्होंने आगे बढ़कर मजदूरों से कहा,

" जाओ रे, अपना-अपना काम करो। ठेकेदार साहब से धोखाधड़ी की तो जूता पड़ेगा।" 

मजदूरों ने प्रिंसिपल साहब की ओर कृतज्ञता से देखा। फुरसत पाकर वे अपने-अपने काम में लग गये। ठेकेदार ने प्रिंसिपल से आत्मीयता के साथ कहा, 

" सब बेईमान हैं। जरा-सी आँख लग जाये तो कान का मैल तक निकाल ले जायें। ड्योढ़ी मजदूरी माँगते हैं और काम का नाम सुनकर काँखने लगते हैं। " 

प्रिंसिपल साहब ने कहा , " सब तरफ यही हाल है। हमारे यहाँ ही लीजिए--कोई मास्टर पढ़ाना थोड़े ही चाहता है? पीछे पड़ा रहता हूँ तब कहीं---!" 

वह आदमी ठठाकर हँसा। बोला, "मुझे क्या बताते हैं? यही करता रहता हूँ। सब जानता हूँ।" रुककर उसने पूछा , "इधर कहाँ जा रहे थे?" 

इसका जवाब क्लर्क ने दिया, " वैद्यजी के यहाँ। चेकों पर दस्तखत करना है।" 

"करा लाइए।" उसने प्रिंसिपल को खिसकने का इशारा दिया। जब वे चल दिये तो उसने पूछा, "और क्या हाल-चाल है?" 

प्रिंसिपल रुक गये। बोले , 

"ठीक ही है। वही खन्ना-वन्ना लिबिर- सिबिर कर रहे हैं , आप लोगों के और मेरे खिलाफ प्रोपेगैंडा करते घूम रहे हैं।" 

उसने जोर से कहा , 

" आप फिक्र न कीजिए। ठाठ से प्रिंसिपली किये जाइए। उनको बता दीजिए कि प्रोपेगैंडा का जवाब है डण्डा। कह दीजिए कि यह शिवपालगंज है, ऊँचा-नीचा देखकर चलें।" 

प्रिंसिपल साहब अब आगे बढ़ गये तो क्लर्क बोला, " ठेकेदार साहब को भी कॉलिज-कमेटी का मेम्बर बनवा लीजिए। काम आयेंगे।" 

प्रिंसिपल साहब सोचते रहे। क्लर्क ने कहा, 

" चार साल पहले की तारीख में संरक्षकवाली रसीद काट देंगे। प्रबन्धक कमेटी में भी इनका होना जरुरी है। तब ठीक रहेगा।" 

प्रिंसिपल साहब ने तत्काल कोई जवाब नहीं दिया। कुछ रुककर बोले, "वैद्यजी से बात की जायेगी। ये ऊँची पालिटिक्स की बातें हैं। हमारे -तुम्हारे कहने से क्या होगा?" 

एक दूसरा आदमी साइकिल पर जाता हुआ दिखा। उसे उतरने का इशारा करके प्रिंसिपल साहब ने कहा, " नन्दापुर में चेचक फैल रही है और आप यहाँ झोला दबाये हुए शायरी कर रहे हैं?" 

उसने हाथ जोड़कर पूछा , " कब से? मुझे तो कोई इत्तिला नहीं है।" 

प्रिंसिपल साहब ने भौंहें टेढ़ी करके कहा, 

"तुम्हें शहर से फुरसत मिले तब तो इत्तिला हो। चुपचाप वहाँ जाकर टीके लगा आओ, नहीं तो शिकायत हो जायेगी। कान पकड़कर निकाल दिये जाओगे। यह टेरिलीन की बुश्शर्ट रखी रह जायेगी।" 

वह आदमी घिघियाता हुआ आगे बढ़ गया। प्रिंसिपल साहब क्लर्क से बोले' 

"ये यहाँ पब्लिक हेल्थ के ए.डी .ओ. हैं। जिसकी दुम में अफसर जुड़ गया , समझ लो, अपने को अफलातून समझने लगा।" 

"ये भी न जाने अपने को क्या लगाते हैं! राह से निकल जाते हैं, पहचानते तक नहीं।" 

"मैंने भी सोचा, बेटा को झाड़ दिया दिया जाये।" 

क्लर्क ने कहा, "मैं जानता हूँ। यह भी एक ही चिड़ीमार है। "

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रचनाएँ
श्री लाल शुक्ल की प्रसिद्ध कहानियाँ
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श्रीलाल शुक्ल (जन्म-31 दिसम्बर 1925 - निधन- 28 अक्टूबर 2011) समकालीन कथा-साहित्य में उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिये विख्यात साहित्यकार माने जाते थे। उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की। 1949 में राज्य सिविल सेवा से नौकरी शुरू की। 1983 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त हुए। उनका विधिवत लेखन 1954 से शुरू होता है और इसी के साथ हिंदी गद्य का एक गौरवशाली अध्याय आकार लेने लगता है।श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं का एक बड़ा हिस्सा गाँव के जीवन से संबंध रखता है। ग्रामीण जीवन के व्यापक अनुभव और निरंतर परिवर्तित होते परिदृश्‍य को उन्होंने बहुत गहराई से विश्‍लेषित किया है। यह भी कहा जा सकता है कि श्रीलाल शुक्ल ने जड़ों तक जाकर व्यापक रूप से समाज की छान बीन कर, उसकी नब्ज को पकड़ा है। और कई कहानियाँ तथा लेख लिखे ।
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