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बाबू रामधीन भीखमखेड़वी

26 जुलाई 2022

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शहर से देहात को जानेवाली सड़क पर एक साइकिल-रिक्शा चला जा रहा था। रिक्शावाला रंगीन बनियान, हाफपैण्ट, लम्बे बाल, दुबले पतले जिस्मवाला नौजवान था। उसका पसीने से लथपथ चेहरा देखकर वेदना का फोटोग्राफ़ नही,बल्कि वेदना का कार्टून आँख के आगे आ जाता था।

रिक्शे पर अपनी दोनों जाँघो पर हाथों की मुट्ठियाँ जमाये हुए बद्री पहलवान बैठे थे। रिक्शे पर उनके पैरों के पास एक सन्दूक रखा हुआ था। दोनो पैर सन्दूक के सिरों पर जमाकर स्थापित कर दिये गये थे। इस तरह पैर टूटकर रिक्शे के नीचे भले ही गिर जाएं, सन्दूक के नीचे गिरने का कोई खतरा न था। 

सन्ध्या का बेमतलब सुहावना समय था। पहलवान का गाँव अभी तीन मील दूर होगा। उन्होने शेर की तरह मुँह खोलकर जम्हाई ली और उसी लपेट मे कहा,"इस साल फ़सल कमजोर जा रही है।"

रिक्शावाला कृषि-विज्ञान और अर्थशास्त्र पर गोष्ठी करने के मूड मे न था। वह चुपचाप रिक्शा चलाता रहा। पहलवान ने अब उससे साफ़-साफ़ पूछा, "किस जिले के हो? तुम्हारे उधर फसल की क्या हालत है?"

रिक्शेवाले ने सिर को पीछे नही मोड़ा । आँख पर आती बालों की लट को गरदन की लोचदार झटक के साथ मत्थे के ऊपर फेंककर उसने कहा, "फ़सल ?" हम दिहाती नही है ठाकुर साहब, खास शहर के रहने वाले है ।"इसके बाद वह कूल्हे मटका-मटकाकर जोर से रिक्शा चलाने लगा। आगे जाने वाले एक दूसरे रिक्शे को देखकर उसने घन्टी बजायी। 

पहलवान ने दूसरी जम्हाई ली और फ़सल की ओर फिर से ताकना शुरु कर दिया । रिक्शावाला सवारी की यह बेरुखी़ देखकर उलझन मे पड़ गया। रंग जमाने के लिए उसने आगे वाले रिक्शेवाले को ललकारा,"अबे ओ बाँगड़ू! चल बाँयी तरफ़ !"

आगे का रिक्शावाला बाँयी तरफ़ हो लिया। पहलवान का रिक्शा उसके पास से आगे निकल गया। निकलते निकलते इस रिक्शेवाले ने बांयी ओर के रिक्शावाले से पूछा, "क्यों, गोंडा का रहनेवाला है या बहराइच का?" 

वह रिक्शेवाला एक आदमी को कुछ गठरियों और एक गठरीनुमा बीबी के साथ लादकर धीरे-धीरे चल रहा था। इस भाईचारे से खुश होकर बोला "गोंडा मे रहते है भैया! "

शहरी रिक्शेवाले ने मुँह से सिनेमावाली सीटी बजाकर और आँखे फैलाकर कहा, "वही तो ।"

पहलवान ने इसे भी अनसुना कर दिया। सांस खींचकर कहा, "जरा इश्पीड बढाये रहो मास्टर! "

रिक्शावाला सीट पर उचक-उचककर रफ़्तार बढाने और साथ ही भाषण देने लगा: "ये गोंडा-बहराइच और इधर-उधर के रिक्शावाले आकर यहाँ का चलन बिगाड़ते है । दांये-बांये की तमीज नही । इनसे ज्यादा समझदार तो भूसा-गाड़ियों के बैल होते है । बिल्कुल हूश है । अंग्रेजी बाजारों मे बिरहा गाते निकलते है । मोची तक को रिक्शे पर बैठाकर उसे हुजूर, सरकार कहते है । कोई पूछ दे कि माल एवेन्यू का फ्रैम्पटन स्क्वयेर चलो तो दाँत निकाल देते है । इनके बाप ने भी कभी इन जगहों का नाम सुना हो तो -!" 

पहलवान ने सिर हिलाया। कहा, "ठीक कहते हो मास्टर! उधर वाले बड़े दलिद्दर होते है । सत्तू खाते है और चना चबाकर रिक्शा चलाते है । चार साल मे बीमारी घेर लेती है तो घिघयाने लगते है ।"

रिक्शेवाले ने हिकारत से कहा,"चमड़ी चली जाय पर दमड़ी न जाए, बड़े मक्खीचूस होते है। पारसाल लू मे एक साला रिक्शा चलाते-चलाते सड़क पर ही टें बोल गया। देह पर बनियान न थी, पर टेंट से बाईस रुपये निकले।" 

पहलवान ने सिर हिलाकर कहा, "लू बड़ी खराब चीज होती है । जब चल रही हो तो घर से निकलना न चाहिए। खा-पीकर, दरवाजा बन्द करके पड़े रहना चाहिए।"

बात बड़ी मौलिक थी। रिक्शेवाले ने हेकड़ी से कहा, "मै तो यही करता हूँ। गर्मियों में बस शाम को सनीमी के टैम गाड़ी निकालता हूँ। पर ये साले दिहाती रिक्शावाले! इनकी न पूछिए ठाकुर साहब साले जान पर खेल जाते है । चवन्नी के पीछे मुँह से फेना गिराते हुए दोपहर को भी मीलों चक्कर काटते है । इक्के का घोड़ा भी उस वक्त पेड़ का साया नही छोड़ता, पर ये स्साले... ।"

मारे हिकारत के रिक्शेवाले का मुँह थूक से भर गया और गला रुँध गया। उसने थूककर बात खत्म कीं, "साले जरा-सी गर्म हवा लगे ही सड़क पर लेट जाते है । "

पहलवान की दिलचस्पी इस बातचीत मे खत्म हो गयी थी। वे चुप रहे। रिक्शावाले ने रिक्शा धीमा किया और बोला, "सिगरेट पी ली जाय ।"

पहलवान उतर पड़े और रिक्शे पर जोर देकर एक ओर खड़े हो गये। रिक्शेवाले ने सिगरेट सुलगा ली। कुछ देर वह चुपचाप सिगरेट पीता रहा, फिर मुँह से धुँए के गोल-गोल छल्ले छोड़कर बोला, "उधर के दिहाती रिक्शावाले दिन-रात बीड़ी फूँक-फूँककर दाँत खराब करते रहते है । " 

अब तक पीछे का रिक्शावाला भी आ गया। फटी धोती और नंगा बदन । वह कौंख-कौंखकर रिक्शा खींच रहा था । शहरी रिक्शेवाले को देखकर भाईचारे के साथ बोला, "भैया, तुम भी गोंडा के हो क्या?" सिगरेट फूँकते हुए इस रिक्शेवाले ने नाक सिकोड़कर कहा, "अबे, परे हट! क्या बकता है? "

वह रिक्शेवाला खिर्र-खिर्र करता हुआ आगे निकल गया।

सच तो यह है कि दुख मनुष्य को पहले फींचता है, फिर फींचकर निचोड़ता है, फिर निचोड़कर उसके चेहरे को घुग्घू-जैसा बनाकर उस पर दो-चार काली-सफेद लकीरें खींच देता है । फिर उसे सड़क पर लम्बे-लम्बे डगों से टहलने के लिए छोड़ देता है ।

आज के भावुकतापूर्ण कथाकारों ने न जाने किससे सीखकर बार-बार कहा है कि दुख मनुष्य को माँजता है । बात कुल इतनी नही है, सच तो यह है कि दुख मनुष्य को पहले फींचता है, फिर फींचकर निचोड़ता है, फिर निचोड़कर उसके चेहरे को घुग्घू-जैसा बनाकर उस पर दो-चार काली-सफेद लकीरें खींच देता है । फिर उसे सड़क पर लम्बे-लम्बे डगों से टहलने के लिए छोड़ देता है । दुख इन्सान के साथ यही करता है और उसने गोंडा के रिक्शावाले के साथ भी यही किया था । पर शहरी रिक्शावाले पर इसका कोई असर नही हुआ । सिगरेट फेंककर उसकी ओर बिना कोई ध्यान दिये उसने अपना रिक्शा तेज़ी से आगे बढाया । दूसरा भाषण शुरु हुआ :

"अपना उसूल तो यह है ठाकुर साहब, कि चोखा काम, चोखा दाम । आठ आने कहकर सात आने पर तोड़ नही करते । जो कह दिया सो कह दिया । एक बार एक साहब मेरी पीठ पर बैठे-बैठे घर के हाल-चाल पूछने लगे। बोले, सरकार ने तुम्हारी हालत खराब कर रखी है । रिक्शे पर रोक नही लगाती। कितनी बुरी बात है कि आदमी पर आदमी चढता है । मैने कहा, तो मत चढो । वे कहने लगे, मै तो इसलिए चढता हूँ कि लोग अगर रिक्शे का बायकाट कर दें तो रिक्शेवाले तो भूखों मर जाएंगे । उसके बाद वे फिर रिक्शावालों के नाम पर रोते रहे । बहुत रोये । रोते जाते थे और सरकार को गाली देते जाते थे। कहते जाते थे कि तुम यूनियन बनाओ, मोटर रिक्शा की माँग करो। न जाने क्या-क्या बकते जाते थे। मगर ठाकुर साहब, हमने भी कहा कि बेटा, झाड़े रहो । चाहे कितना रोओ हमारे लिए, किराए की अठन्नी मे एक पाई कम नही करूंगा।"

पहलवाने ने आँखे बन्द कर ली थी। जम्हाई लेकर बोले, "कुछ सिनेमा का गाना-वाना भी गाते हो कि बातें झलते रहोगे?"

रिक्शेवाले ने कहा, "यहाँ तो ठाकुर साहब दो ही बातें है, रोज़ सिनेमा देखना और फटाफट सिगरेट पीना। गाना भी सुना देता, पर इस वक्त गला खराब है ।"

पहलवान हँसे, "तब फिर क्या? शहर का नाम डुबोये हो।"

रिक्शावाला इस अपमान को शालीनता के साथ हज़म कर गया। फिर कुछ सोचकर उसने धीरे-से "लारी लप्पा, लारी लप्पा' की धुन निकालनी शुरु की। पहलवान ने उधर ध्यान नही दिया । उसने सवारी की तबियत को गिरा देखकर फिर बात शुरु की, " हमारे भाई भी रिक्शा चलाते है, पर सिर्फ़ खास-खास मुहल्लों मे सवारियाँ ढोते है । एक सुलतानपुरी रिक्शेवाले को उन्होने दो-चार दाँव सिखाये तो वह रोने लगा। बोला, जान ले लो पर धरम न लो । हम इस काम के लिए सवारी न लादेंगे । हमने कहा कि भैया बन्द करो, गधे को दुलकी चलाकर घोड़ा न बनाओ ।"

शिवपालगंज नज़दीक आ रहा था। उन्होने रिक्शेवाले को सनद-जैसी देते हुए कहा, "तुम आदमी बहुत ठीक हो। सबको मुँह न लगाना चाहिए । तुम्हारा तरीका पक्का है ।" फिर वे कुछ सोचकर बोले, "पर तुम्हारी तन्दुरुस्ती कुछ ढीली-ढाली है । कुछ महीने डण्ड-बैठक लगा डालो। फिर देखो क्या होता है।अब पहलवानी मे क्या रखा है? लड़ाई मे जब ऊपर से बम गिरता है तो नीचे बड़े बड़े पहलवान ढेर हो जाते है । हाथ मे तमंचा हो तो पहलवान हुए तो क्या, और न हुए तो क्या?""उससे क्या होगा?" रिक्शावाले ने कहा, "मै भी पहलवान हो जाऊंगा। पर अब पहलवानी मे क्या रखा है? लड़ाई मे जब ऊपर से बम गिरता है तो नीचे बड़े बड़े पहलवान ढेर हो जाते है । हाथ मे तमंचा हो तो पहलवान हुए तो क्या, और न हुए तो क्या?" कुछ रुककर रिक्शावाले ने इत्मीनान से कहा, " पहलवानी तो अब दिहात मे ही चलती है ठाकुर साहब! हमारे उधर तो अब छुरेबाज़ी का ज़ोर है ।"

इतनी देर बाद बद्री पहलवान को अचानक अपमान की अनूभूति हुई। हाथ बढकर उन्होने रिक्शावाले की बनियान चुटकी से पकड़कर खींची और कहा, "अबे, घन्टे-भर से यह 'ठाकुर साहब', 'ठाकुर साहब' क्या लगा रखा है! जानता नही, मै बाँभन हूँ!"

यह सुनकर रिक्शावाला पहले तो चौंका, पर बाद मे उसने सर्वोदयी भाव ग्रहण कर लिया । "कोई बाद नही पण्डितजी, कोई बात नही ।" कहकर वह सड़क के किनारे प्रकृति की शोभा निहारने लगा।

रामाधीन का पूरा नाम बाबू रामधीन भीखमखेड़वी था । भीखमखेड़वी शिवपालगंज से मिला हुआ एक गाँव था, जो अब 'यूनानो-मिस्त्र-रोमाँ' की तरह जहान से मिट चुका था। यानी वह मिटा नही था, सिर्फ़ शिवपालगंजवाले बेवकूफी के मारे उसे मिटा हुआ समझते थे। भीखमखेड़ा आज भी कुछ झोपड़ों मे माल-विभाग के कागज़ात मे और बाबू रामाधीन की पुरानी शायरी मे सुरक्षित था।

बचपन मे बाबू रामाधीन भीखमखेड़ा गाँव से निकलकर रेल की पटरी पकड़े हुए शहर तक पहुँचे थे, वहाँ से किसी भी ट्रेन मे बैठने की योजना बनाकर वे बिना किसी योजना के कलकत्ते मे पहुँच गये थे। कलकत्ते मे उन्होने पहले एक व्यापारी के यहाँ चिट्ठी ले जाने का काम किया, फिर माल ले जाने का, बाद मे उन्होने उसके साझे मे कारोबार करना शुरु कर दिया । अन्त मे वे पूरे कारोबार के मालिक हो गये।

कारोबार अफ़ीम का था। कच्ची अफ़ीम पच्छिम से आती थी, उसे कई ढंगो से कलकत्ते मे ही बड़े व्यापारियों के यहाँ पहुँचाने की आढत उनके ही हाथ मे थी। वहाँ से देश के बाहर भेजने का काम भी वे हाथ मे ले सकते थे, पर वे महत्वाकांक्षी न थे, अपनी आढ़त का काम वे चुपचाप करते थे और बचे समय मे पच्छिम के जिलों से आने वाले लोगो की सोहबत कर लेते थे । वहाँ वे अपने क्षेत्र के आदमियों मे काफी मशहूर थे; लोग उनकी अशिक्षा की तारीफ करते थे और उनका नाम लेकर समझाने की कोशिश करते थे कि अकबर आदि अशिक्षित बादशाहों ने किस ख़ूबी से हुकूमत चलायी होगी। 

अफीम के कारोबार मे अच्छा पैसा आता था और दूसरे व्यापारियों से इसमे ज्यादा स्पर्धा भी नही रखनी पड़ती थी। इस व्यापार मे सिर्फ़ एक छोटी-सी यही खराबी थी कि यह कानून के खिलाफ़ पड़ता था। इसका ज़िक्र आने पर बाबू रामाधीन अपने दोस्तों मे कहते थे, "इस बारे मे मै क्या कर सकता हूँ? कानून मुझसे पूछकर तो बनाया नही गया था। "

जब बाबू रामाधीन अफ़ीम कानून के अन्तर्गत गिरफ़्तार होकर मजिस्ट्रेट के सामने पेश हुए तो वहाँ भी उन्होने यही रवैया अपनाया। उन्होने अंग्रेजी कानून की निन्दा करते हुए महात्मा गाँधी का हवाला दिया और यह बताने की कोशिश की कि विदेशी कानून मनमाने ढंग से बनाये गये है और हर एक छोटी सी बात को ज़ुर्म का नाम दे दिया गया है । उन्होने कहा, "जनाब, अफ़ीम एक पौधे से पैदा होती है । पौधा उगता है तो उसमे खूबसूरत से सफेद फूल निकलते है । अंग्रेजी मे उसे पॉपी कहते है । उसी की एक दूसरी किस्म भी होती है जिसमे लाल फूल निकलते है । उसे साहब लोग बँगले पर लगाते है । उस फूल की एक तीसरी किस्म भी होती है जिसे डबुल पॉपी कहते है । हजूर, ये सब फूल-पत्तों की बातें है, इनसे जुर्म का क्या सरोकार? उसी सफ़ेद फूलवाले पॉपी के पौधे से बाद मे यह काली-काली चीज निकलती है । यह दवा के काम आती है, इसका कारोबार जुर्म नही हो सकता। जिस कानून मे यह ज़ुर्म बताया गया है, वह काला कानून है । वह हमे बरबाद करने के लिए बनाया गया है ।"

सजा तो उस जमाने मे हो ही जाती थी, असली चीज सज़ा के पहले इजलास मे दिया जाने वाला लैक्चर था। बाबू रामाधीन को मालूम था कि इस तरह लेक्चर देकर सैकड़ो लोग क्रांतिकारियों से लेकर अहिंसावादियों तक शहीद हो चुके है और उन्हे यकीन था कि इस लेक्चर से उन्हे भी शहीद बनने मे आसानी होगी।इस लेक्चर के बावजूद बाबू रामाधीन को दो साल की सजा हो गयी। पर सजा तो उस जमाने मे हो ही जाती थी, असली चीज सज़ा के पहले इजलास मे दिया जाने वाला लैक्चर था। बाबू रामाधीन को मालूम था कि इस तरह लेक्चर देकर सैकड़ो लोग क्रांतिकारियों से लेकर अहिंसावादियों तक शहीद हो चुके है और उन्हे यकीन था कि इस लेक्चर से उन्हे भी शहीद बनने मे आसानी होगी। पर सज़ा भुगतकर आने के बाद उन्हे पता चला कि शहीद होने के लिए उन्हे अफीम-कानून नही, नमक-कानून तोड़ना चाहिए था। कुछ दिन कलकत्ते मे घूम-फिरकर उन्होने देख लिया कि वे बाजार मे उखड़ चुके है, अफसोस मे उन्होने एकाध शेर कहे और इस बार टिकट लेकर वे अपने गाँव वापस लौट आये। आकर वे शिवपालगंज मे बस गये।

उन्होने लोगों को इतना तक सच बता दिया कि उनकी आढत की दुकान बन्द हो गयी है । इससे आगे बताने की जरुरत न थी। उन्होने एक छोटा सा कच्चा पक्का मकान बनवा लिया, कुछ खेत लेकर किसानी शुरु कर दी, गाँव के लड़को को कौड़ी की जगह ताश से जुआ खेलना सिखा दिया और दरवाजे पर पड़े पड़े कलकत्ता प्रवास के किस्से सुनाने मे दक्षता प्राप्त कर ली। तभी गाँव-पंचायते बनी और कलकते की करामात के सहारे उन्होने अपने एक चचेरे भाई को सभापति भी बनवा दिया। शुरु मे लोगो को पता ही न था कि सभापति होता क्या है, इसलिए उनके भाई को इस पद के लिए चुनाव तक नही लड़ना पड़ा। कुछ दिनो बाद लोगों ओ पता चल गया कि गाँव मे दो सभापति है जिनमे बाबू रामाधीन गाँव-सभा की जमीन का पट्टा देने लिए है और उनका चचेरा भाई, जरुरत पड़े तो ग़बन के मुकदमे मे जेल जाने के लिए है ।

बाबू रामाधीन का एक जमाने तक गाँव मे बड़ा दौर-दौरा रहा। उनके मकान के सामने एक छप्पर का बँगला पड़ा था जिसमे गाँव के नौजवान जुआ खेलते थे, एक ओर भंग की ताजी पत्ती घुटती थी । वातावरण बड़ा काव्यपूर्ण था। उन्होने गाँव मे पहली बार कैना, नैस्टशिर्यम, लार्कस्पर आदि अंग्रेजी फूल लगाये थे। इनमे लाल रंग के कुछ फूल थे, जिसने बारे वे कभी-कभी कहते थे, "यह पॉपी है और यह साला डबल पॉपी है ।"

भीमखेड़वी के नाम से ही प्रकट था कि वे शायर भी होंगे। अब तो वे नही थे, पर कलकत्ता के अच्छे दिनो मे वे एकाध बार शायर हो गये थे। 

उर्दू कवियों की सबसे बड़ी विशेषता उनका मातृभूमि-प्रेम है । इसलिए बम्बई और कलकत्ता मे भी वे अपने गाँव या कस्बे का नाम अपने नाम के पीछे बाँधे रहते है और उसे खटखटा नही समझते। अपने को गोंडवी, सलोनवी और अमरोहवी कहकर वे कलकत्ता-बम्बई के कूप-मण्डूक लोगों को इशारे से समझाते है कि सारी दुनिया तुम्हारे शहर ही मे सीमित नही है। जहाँ बम्बई है, वहाँ गोंडा भी है।

जिसे अपने को बम्बई मे 'संडीलवी' कहते हुए शरम नही आती, वहीं कुरता-पायजामा पहनकर और मुँह मे चार पान और चार लिटर थूक भरकर न्यूयार्क के फुटपाथों पर अपने देश की सभ्यता का झण्डा खड़ा कर सकता है ।एक प्रकार से यह बहुत अच्छी बात है, क्योंकि जन्मभूमि के प्रेम से ही देश-प्रेम पैदा होता है । जिसे अपने को बम्बई मे 'संडीलवी' कहते हुए शरम नही आती, वहीं कुरता-पायजामा पहनकर और मुँह मे चार पान और चार लिटर थूक भरकर न्यूयार्क के फुटपाथों पर अपने देश की सभ्यता का झण्डा खड़ा कर सकता है । जो कलकत्ता मे अपने को बाराबंकवी कहते हुए हिचकता है, वह यकीनन विलायत मे अपने को हिन्दुस्तानी कहते हुए हिचकेगा।

इसी सिद्धान्त के अनुसार रामाधीन कलकत्ता मे अपने दोस्तो के बीच बाबू रामाधीन भीखमखेड़वी के नाम से मशहूर हो गये थे।

यह सब दानिश टाँडवी की सोहबत मे हुआ था। वे टाँडवी की देखा-देखी उर्दू कविता मे दिलचस्पी लेने लगे और चूँकि कविता मे दिलचस्पी लेने की शुरुवात कविता लिखने से होती है, इसलिए दूसरों के देखते-देखते हुन्होने एक दिन एक शेर लिख डाला। जब उसे टाँडवी साहब ने सुना तो, जैसा कि एक शायर को दूसरे शायर के लिए कहना चाहिए, कहा, "अच्छा शेर कहा है ।"

रामाधीन ने कहा, " मैने तो शेर लिखा है, कहा नही है ।"

वे बोले, "गलत बात है । शेर लिखा नही जा सकता । "

"पर मै तो लिख चुका हूँ।"

" नही, तुमने शेर कहा है । शेर कहा जाता है । यही मुहाविरा है ।" उन्होने रामाधीन को शेर कहने की कुछ आवश्यक तरकीबे समझायी। उनमे एक यह थी कि शायरी मुहाविरे के हिसाब से होती है, मुहाविरा शायरी के हिसाब से नही होता। दूसरी बात शायर के उपनाम की थी। टाँडवी ने उन्हे सुझाया कि तुम अपना उपनाम ईमान शिवपालगंजी रखो। पर ईमान से तो उन्हे यह एतराज था कि उन्हे इसका मतलब नही मालूम; 'शिवपालगंजी' इसलिए ख़ारिज हुआ कि उनके असली गाँव का नाम भीखमखेड़ा था और उपनाम से ही उन्हे इसलिए ऐतराज हुआ कि अफ़ीम के कारोबार मे उनके कई उपनाम चलते थे और उन्हे कोई नया उपनाम पालने का शौंक न था। परिणाम यह हुआ कि वे शायरी के क्षेत्र मे बाबू रामाधीन भीखमखेड़वी बनकर रह गये।

'कलूटी लड़कियाँ हर शाम मुझको छेड़ जाती है । " - इस मिसरे से शुरु होने वाली एक कविता उन्होने अफ़ीम की डिबियों पर लिखी थी। 

पर शायरी की बात सिर्फ़ दानिश टाँडवी की सोहबत तक रही। जेल जाने पर उनसे आशा की जाती थी कि दूसरे महान साहित्यकारों और कवियों की तरह अपने जेल-जीवन के दिनो मे वे अपनी कोई महान कलाकृति रचेंगे और बाद मे एक लम्बी भूमिका के साथ उसे जनता को पेश करेंगे; पर वे दो साल जेल के खाने की शिकायत और कैदियों से हँसी-मजाक करने, वार्डरो की गालियाँ सुनने और भविष्य के सपने देखने मे बीत गये।

शिवपालगंज मे आकर गँजहा लोगो के सामने अपनी वरिष्टता दिखाने के लिए उन्होने फिर से अपने नाम के साथ भीखमखेड़वी का खटखटा बाँधा। बाद मे जब बिना किसी कारण के, सिर्फ़ गाँव की या पूरे भारत की सभ्यता के असर से वे गुटबन्दी के शिकार हो गये, तो उन्होने एकाध शेर लिखकर यह भी साबित किया कि भीखमखेड़वी सिर्फ़ भूगोल का ही नही, कविता का भी शब्द है ।

कुछ दिन हुए, बद्री पहलवान ने शिवपालगंज से दस मील आगे एक दूसरे गाँव मे आटाचक्की की मशीन लगायी थी। चक्की ठाठ से चली और वैद्यजी के विरोधियों ने कहना शुरु कर दिया कि उसका सम्बंध कॉलिज के बजट से है । इस जन-भावना को रामाधनी ने अपनी इस अमर कविता द्वारा प्रकट किया था :

क्या करिशमा है कि ऐ रामाधीन भीखमखेड़वी,

खोलने कॉलिज चले, आटे की चक्की खुल गयी!

गाँव के बाहर बद्री पहलवान का किसी ने रिक्शा रोका। कुछ अँधेरा हो गया था और रोकने वाले का चेहरा दूर से साफ नही दिख रहा था। बद्री पहलवान ने कहा, "कौन है बे?"

" अबे-तबे न करो पहलवान! मै रामाधीन हूँ।" कहता हुआ एक आदमी रिक्शे के पास आकर खड़ा हो गया। रिक्शेवाले ने एकदम से बीच सड़क पर रिक्शा रोक दिया। आदमी धोती-कुर्ता पहने था। पर धुँधलके मे दूसरे आदमियों के मुकाबले उसे पहचानना हो तो धोती-कुरते से नही, उसके घुटे हुए सिर से पहचाना जाता। रिक्शे का हैंडिल पकडकर वह बोला, " मेरे घर मे डाका पड़ने जा रहा है, सुना?"

पहलवान ने रिक्शेवाले की पीठ मे एक अँगुली कोंचकर उसे आगे बढने का इशारा किया और कहा, "तो अभी से क्यों टिलाँ-टिलाँ लगाये हो? जब डाका पड़ने लगे तब मुझे बुला लेना।"

रिक्शेवाले ने पैडिल पर जोर दिया, पर रामाधीन ने उसका हैंडिल इस तरह पकड़कर रखा था कि उसके इस ज़ोर ने उस ज़ोर को काट दिया। रिक्शा अपनी जगह रहा। बद्री पहलवान ने भुनभुनाकर कहा, "मै सोच रहा था कि कौन आफत आ गयी जो सड़क पर रिक्शा पकड़कर रांड़ की तरह रोने लगे।" रामाधीन बोले, "रो नही रहा है । शिकायत कर रहा हूँ। वैद्यजी के घर मे तुम्हीं एक आदमी हो, बाकी तो सब पन्साखा है । इसलिए तुमसे कह रहा हूँ। एक चिट्ठी आयी है, जिसमे डकैतो ने मुझसे पाँच हज़ार रुपया माँगा है । कहा है कि अमावस की रात को दक्खिनवाले टीले पर दे जाओ....."बद्री पहलवान ने अपनी जाँघ पर हाथ मारकर कहा, "मन हो तो दे आओ, न मन हो तो एक कौड़ी भी देने की ज़रुरत नहीं। इससे ज्यादा क्या कहें। चलो रिक्शेवाले!" घर नजदीक है, बाहर पिसी हुई भंग तैयार होगी, पीकर, नहा-धोकर, कमर मे बढिया लँगोट कसकर, ऊपर से एक कुरता झाड़कर, बैठक मे हुमसकर बैठा जायेगा लोग पूछेंगे, पहलवान, क्या कर आये? वे आँखे बन्द करके दूसरों के सवाल सुनेंगे, दूसरों को ही जवाब देने देंगे। देह की ताकत और भंग के घुमाव मे सारे संसार की आवाजें मच्छरो की भन्नाहट-सी जान पड़ेंगी।

सपनो मे डूबते-उतरते हुए बद्री को इस वक़्त सड़क पर रोका जाना बहुत खला। उन्होने रिक्शेवाले को डपट कर दोबारा कहा, "तुमसे कह रहा हूँ, चलो।"

पर वह चलता कैसे? रामाधीन का हाथ अब भी रिक्शे के हैण्डिल पर था। उन्होने कहा, "रुपये की बात नही। मुझसे कोई क्या खाकर रुपया लेगा? मै तो तुमसे बस इतना कहना चाहता था कि रुप्पन को हटक दो। अपने को कुछ ज्यादा समझने लगे है । नीचे-नीचे चलें, आसमान की.....।"

बद्री पहलवान अपनी जाँघों पर जोर लगाकर रिक्शे से नीचे उतर पड़े। रामाधीन को पकड़कर रिक्शेवाले से कुछ दूर ले गये और बोले, "क्यों अपनी ज़बान खराब करने जा रहे हो? क्या किया रुप्पन ने?"

रामाधीन ने कहा, "मेरे घर यह डाकेवाली चिट्ठी रुप्पन ने ही भिजवायी है । मेरे पास इसका सबूत है ।"

पहलवान भुनभुनाये, "दो-चार दिन के लिए बाहर निकलना मुश्किल है । इधर मै गया, इधर यह चोंचला खड़ा हो गया। " कुछ सोचकर बोले, "तुम्हारे पास सबूत है तो फिर घबराने की क्या बात?" रामाधीन को अभय-दान देते हुए उन्होने जोर देकर कहा, " तो फिर तुम्हारे यहाँ डाका-वाका न पड़ेगा। जाओ, चैन से सोओ। रुप्पन डाका नही डालते, लौण्डे है, मसखरी की होगी।" 

रामाधीन कुछ तीखेपन से बोले, "सो तो मै भी जानता हूँ-रुप्पन ने मसखरी की है । पर यह मसखरी भी कोई मसखरी है ।"

बद्री पहलवान ने सहमति प्रकट की। कहा, "तुम ठीक कहते हो। टुकाची ढंग की मसखरी है ।" 

सड़क पर एक ट्रक तेजी से आ रहा था। उसकी रोशनी मे आँख झिलमिलाते हुए बद्री ने रिक्शेवाले से कहा, रिक्शा किनारे करो। सड़क तुम्हारे बाप की नही है ।"

रामाधीन बद्री के स्वभाव को जानते थे। इस तरह की बात सुनकर बोले, "नाराज़ होने की बात नही है पहलवान! पर सोचो, यह भी कोई बात हुई।"

वे रिक्शे की तरफ बढ आये थे। बैठते हुए बोले, "जब डाका ही नही पड़ना है तो क्या बहस! चलो रिक्शेवाले।" चलते-चलते उन्होने कहा "रुप्पन को समझा दूँगा। यह बात ठीक नही है ।" 

रामाधीन ने पीछे से आवाज ऊँची करके कहा, "उसने मेरे यहाँ डाका पड़ने की चिट्ठी भेजी है । इस पर सिर्फ़ समझाओगे? यह समझाने की नही, जुतिआने की बात है ।"

रिक्शा चल दिया था। पहलवान ने बिना सिर घुमाये जवाब दिया, "बहुत बुरा लगा हो तो तुम भी मेरे यहाँ वैसी ही चिट्ठी भिजवा देना।"

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रचनाएँ
श्री लाल शुक्ल की प्रसिद्ध कहानियाँ
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श्रीलाल शुक्ल (जन्म-31 दिसम्बर 1925 - निधन- 28 अक्टूबर 2011) समकालीन कथा-साहित्य में उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिये विख्यात साहित्यकार माने जाते थे। उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की। 1949 में राज्य सिविल सेवा से नौकरी शुरू की। 1983 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त हुए। उनका विधिवत लेखन 1954 से शुरू होता है और इसी के साथ हिंदी गद्य का एक गौरवशाली अध्याय आकार लेने लगता है।श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं का एक बड़ा हिस्सा गाँव के जीवन से संबंध रखता है। ग्रामीण जीवन के व्यापक अनुभव और निरंतर परिवर्तित होते परिदृश्‍य को उन्होंने बहुत गहराई से विश्‍लेषित किया है। यह भी कहा जा सकता है कि श्रीलाल शुक्ल ने जड़ों तक जाकर व्यापक रूप से समाज की छान बीन कर, उसकी नब्ज को पकड़ा है। और कई कहानियाँ तथा लेख लिखे ।
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इस उम्र में

26 जुलाई 2022
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व्यंग के नाम पर, या सच तो यह है कि किसी भी विधा के नाम पर पत्र-पत्रिकाओं के लिए जल्दबाजी में आएँ-बायँ-शायँ लिखने का जो चलन है, उसके अंतर्गत कुछ दिन पहले मैंने एक निबंध लिखा था। वह एक पाक्षिक पत्रिका म

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वह एक प्रेम पत्र था

26 जुलाई 2022
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तहसील का मुख्यालय होने के बावजूद शिवपालगंज इतना बड़ा गाँव न था कि उसे टाउन एरिया होने का हक मिलता। शिवपालगंज में एक गाँव सभा थी और गाँववाले उसे गाँव-सभा ही बनाये रखना चाहते थे ताकि उन्हें टाउन-एरियावा

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नैतिकता कोने में पड़ी चौकी हैं

26 जुलाई 2022
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गांव में एक आदमी रहता था जिसका नाम गयादीन था। वह जोड़-बाकी, गुणा-भाग में बड़ा काबिल माना जाता था, क्योंकि उसका पेशा सूदखोरी था। उसकी एक दुकान थी जिस पर कपड़ा बिकता था और रूपये का लेन-देन होता था। उसके

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यह पालिसी इन्सानियत के खिलाफ़ है

26 जुलाई 2022
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छत पर कमरे के सामने टीन पड़ी थी। टीन के नीचे रंगनाथ था। रंगनाथ के नीचे चारपाई थी। दिन के दस बजे थे। अब आप मौसम का हाल सुनिए। कल रात को बादल दिखायी दिये थे, वे अब तक छट चुके थे। हवा तेज और ठण्डी थी। प

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क्या यही इन्सानियत है ?

26 जुलाई 2022
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छंगामल विद्यालय इण्टर कालेज की स्थापना 'देश के नव-नागरिकों को महान आदर्शो की ओर प्रेरित करने एवं उन्हें उत्तम शिक्षा देकर राष्ट्र का उत्थान करने हेतु' हुई थी। कालिज का चमकीले नारंगी कागज पर छपा हुआ 'स

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कभी न उखड़ने वाला गवाह

26 जुलाई 2022
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कोऑपरेटिव यूनियन का गबन बड़े ही सीधे-सादे ढ़ंग से हुआ था। सैकड़ों की संख्या में रोज होते रहनेवाले ग़बनों की अपेक्षा इसका यही सौन्दर्य था कि यह शुद्ध गबन था, इसमें ज्यादा घुमाव-फिराव न था। न इसमें जाली

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कर्फ़ोन है सर्फाला ?

26 जुलाई 2022
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शिवपालगंज गॉंव था, पर वह शहर से नजदीक और सड़क के किनारे था। इसलिए बड़े बड़े नेताओं और अफसरों को वहॉं तक आने में सैद्धान्तिक एतराज नहीं हो सकता था। कुओं के अलावा वहॉं कुछ हैण्डपम्प भी लगे थे, इसलिए बाह

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पुरुष बली नहिं होत है

26 जुलाई 2022
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छत के ऊपर एक कमरा था जो हमेशा संयुक्त परिवार के पाठ्य पुस्तक जैसा खुला पड़ा रहता था। कोने मे रखी हुई मुगदरो की जोड़ी इस बात का ऐलान करती थी कि सरकारी तौर पर यह कमरा बद्री पहलवान का है। वैसे परिवार के

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बाबू रामधीन भीखमखेड़वी

26 जुलाई 2022
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शहर से देहात को जानेवाली सड़क पर एक साइकिल-रिक्शा चला जा रहा था। रिक्शावाला रंगीन बनियान, हाफपैण्ट, लम्बे बाल, दुबले पतले जिस्मवाला नौजवान था। उसका पसीने से लथपथ चेहरा देखकर वेदना का फोटोग्राफ़ नही,बल

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जाना रंगनाथ का शिवपाल गंज

26 जुलाई 2022
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शहर का किनारा। उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था। वहीं एक ट्र्क खड़ा था। उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों से बलात्कार करने के लिये हुआ है। जैसे कि सत्य के होते

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वे पैदाइशी नेता थे

26 जुलाई 2022
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थाना शिवपालगंज में एक आदमी ने हाथ जोड़कर दरोगाजी से कहा,  "आजकल होते-होते कई महीने बीत गये। अब हुजूर हमारा चालान करने में देर ना करें।" मध्यकाल का कोई सिंहासन रहा होगा जो अब घिसकर आरामकुर्सी बन गया

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आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी

26 जुलाई 2022
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दो बड़े और छोटे कमरों का एक डाकबँगला था जिसे डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने छोड़ दिया था। उसके तीन ओर कच्ची दीवारों पर छ्प्पर डालकर कुछ अस्तबल बनाये गये थे। अस्तबलों से कुछ दूरी पर पक्की ईंटों की दीवार पर टिन ड

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कभी न उखड़ने वाला गवाहह- पंडित राधेलाल

26 जुलाई 2022
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कोऑपरेटिव यूनियन का गबन बड़े ही सीधे-सादे ढ़ंग से हुआ था। सैकड़ों की संख्या में रोज होते रहनेवाले ग़बनों की अपेक्षा इसका यही सौन्दर्य था कि यह शुद्ध गबन था, इसमें ज्यादा घुमाव-फिराव न था। न इसमें जाली

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एक चोर

26 जुलाई 2022
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माघ की रात। तालाब का किनारा। सूखता हुआ पानी। सड़ती हुई काई। कोहरे में सब कुछ ढँका हुआ। तालाब के किनारे बबूल, नीम, आम और जामुन के कई छोटे-बड़े पेड़ों का बाग। सब सर झुकाए खड़े हुए। पेड़ों के बीच की जमीन

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