अंग्रेजी काल के बारे में जब हम पांचवी या छठी कक्षा में यह पढ़ते थे कि उस समय हिन्दू मुसलमान के बीच में फूट डालने के लिए अंग्रेज अधिकारी कभी मंदिर में गाय का मांस और मस्जिद में सूअर का मांस डाल देते थे, तब बड़ा अजीब लगता था और बालमन के हिसाब से यह समझ से बाहर की बात थी. थोड़े और बड़े हुए तो मंगल पाण्डेय के विद्रोह और 1857 की क्रांति के बारे में पढ़ा और जाना कि जब मंगल पाण्डेय और उस समय की अंग्रेजी सेना में भर्ती अन्य भारतीय सिपाहियों को पता चला कि उनके कारतूसों पर गाय और सूअर की चमड़ी लगाई जाती है, जिसे उन्हें अपने दांत से खींचना होता है तब भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ. आश्चर्य है 155 साल से ज्यादा हो गए, लेकिन आज भी अंग्रेजों द्वारा अपनाई गयी नीतियों पर लोग चक्कर काट जा रहे हैं, उनकी समझ उन्हें धोखा दे जा रही है और वह एक-दुसरे पर भड़क जा रहे हैं. सच कहा जाय तो जिस प्रकार की घटना दादरी में हुई, उस पर कई बार कलम लिखने से इंकार कर देती है. सवाल सिर्फ हत्या भर का ही नहीं है बल्कि जिस प्रकार योजनाबद्ध तरीके से मंदिर से यह घोषणा की गयी कि अमुक व्यक्ति के घर में गौ मांस खाया जा रहा है, और भीड़ भी वगैर कुछ सोचे समझे उस घर पर धांवा बोल देती है, उससे विचारकों की बुद्धि कुंद हो गयी होगी! आखिर, कोई बुद्धिजीवी क्या कहे या क्या लिखे... क्या वह लोगों से कहे कि उन्हें आपस में प्रेम से रहना चाहिए, तो जवाब है कि 'ये बातें तो सब जानते हैं'. क्या वह लोगों से यह कहे कि नेताओं और सांप्रदायिक दंगे कराने वालों से वह सावधान रहे, तो यहाँ भी यही जवाब है कि जनता को यह भी पता है. तो क्या वह यह लिखे कि सभी भारतवासियों को अपनी आने वाली पीढ़ियों के बारे में सोचकर विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, तो यहाँ भी जवाब यही है कि यह बात भी उनको पता है... और भी ऐसे तमाम प्रश्न, जिनका उत्तर ढूंढने की कोशिश हम करेंगे, सब ही तो पता है सबको! फिर इसके सामानांतर प्रश्न उठता है कि आखिर इतनी समझ के बाद भी समस्याएं कहाँ से आ जाती है कि इतनी बड़ी घटनाएं हो जाती हैं, जो समाज को एक दुसरे से दशकों और सदियों तक ही नहीं सहस्त्राब्दियों तक बाँट कर रख देती हैं.
प्रश्न यहाँ यह नहीं है कि किसने क्या गलत किया, किसने क्या गलत सोचा या किसने क्या गलत बोला ... बल्कि, उससे आगे बढ़कर प्रश्न ये है कि ये होने के बाद भी हमारा समाज, विशेषकर समाज का राजनीतिक तंत्र इस मामले में बचकानी हरकतें कर रहा है. अलग अलग समुदायों के नेता एक दुसरे के प्रति आग उगल रहे हैं तो सरकारें इस मामले में राजनीतिक नफा नुक्सान का आंकलन करने में लगी हुई हैं, इसलिए दोषियों पर कार्रवाई होने में प्रशासनिक हिचकिचाहट साफ़ नजर आ रही है. लेकिन, इस हिचकिचाहट की कीमत कितनी बड़ी होती है, यह अंदाजा लगाना ज़रा भी मुश्किल नहीं है. उत्तर प्रदेश के सीएम ने हालाँकि, अखलाक की फैमिली को सिक्युरिटी और हर मदद का भरोसा दिया, लेकिन प्रदेश में बिगड़ा सुरक्षा-स्तर सबको साफ़ साफ़ नजर आ रहा है. आग उगलने वाले नेताओं में बीजेपी नेताओं ने सपा सरकार पर जमकर निशाना साधा और कहा, '' जैसे मुजफ्फरनगर दंगे के आरोपियों को सरकार हवाई जहाज में बैठा कर ले गई, वैसे गाय काटने वालों को ले गई है.'' बता दें कि सपा के स्थानीय एमएलए अखलाक के घरवालों को सीएम से मिलवाने के लिए फ्लाइट से लखनऊ लेकर पहुंचे थे. हमारे समाज की यह बिडम्बना ही तो है जो एक एयरफोर्स में कार्यरत सिपाही के पिता की मृत्यु पर ऐसी बयानबाजी को बर्दाश्त करता है. वह ऐसे लोगों के खिलाफ संगठित मोर्चा क्यों नहीं निकालता है, क्यों नहीं इन आधुनिक अंग्रेजों से वह कहता है कि हमारे जीवन में गाय और सूअर के मांस के सहारे ज़हर न फैलाये. इस बीच तमाम आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं, जैसे यूपी सरकार मरने वालों के लिए भी अलग-अलग कानून बनाती है, क्योंकि सरकार ने इस घटना में राहुल यादव, जिसको एक गोली लगी है, उसकी कोई मदद नहीं की! विपक्षी यह भी कह रहे हैं कि उस फैमिली (अखलाक की) को तो 20 लाख दे रहे हैं, लेकिन इलाज करा रहे राहुल को तो कुछ भी नहीं मिला! कानून व्यवस्था के बारे में चहुंओर यह टिप्पणी की जा रही है कि नोएडा ही नहीं बल्कि पूरे यूपी की कानून व्यवस्था ख़राब हो चुकी है. इन आरोपों की परख अपनी जगह सही या गलत हो सकती है, लेकिन प्रश्न जस का तस है कि दादरी जैसी घटनाओं पर राजनीतिक रोटियां सेंकना भला किस प्रकार से उचित कदम कहा जा सकता है. सिर्फ भाजपा नेता ही नहीं, बल्कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने यह कहकर सनसनी फैला दी कि हिन्दू गौ मांस खाते हैं. अब ऐसे नेताओं की बुद्धि कहाँ गयी है, यह बताने की जरूरत नहीं है.
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को गाँव वालों ने भगा दिया, तो वह पुलिस की मदद लेकर गाँव में पहुंचे और अपनी राजनीतिक पूड़ियों को बेशर्मी से तला. विवादित नेता आजम ने गोभक्तों पर तल्ख और विवादास्पद टिप्पणी करते हुए उन्होंने गोभक्तों को चुनौती दी कि हर गोभक्त आज के बाद किसी भी होटल के मेन्यू में बीफ की कीमत न लिखने दें. अगर ऐसा हो, तो ऐसे सभी पांच सितारा होटलों की उसी तरह ईंट से ईंट बजा दें, जिस तरह बाबरी मस्जिद की बजाई थी. अब सवाल यही है कि इस उन्माद की कीमत पंच सितारा होटलों तक भी पहुँच जाएगी? इसी कड़ी में, कांग्रेसी उपाध्यक्ष राहुल गांधी का सशक्तिकरण अभियान वहां भी जारी रहा, इसके बावजूद कि अख़लाक़ के परिवार का यह बयान भी आया कि उसके परिवार को राजनीतिक पचड़े में नहीं घसीटा जाय, लेकिन यह राजनीतिक बिरादरी इस बात को समझेगी, ऐसी सम्भावना नहीं के बराबर ही है. हाँ! इस बात से फायदा किस प्रकार उठाना है, यह सबको बखूबी समझ आ रहा है. ऐसे में बेहतर यही रहेगा कि जनता को खुद ही एक दुसरे की भावनाओं के बारे में ख्याल रहे और इस कड़ी में लखनऊ के एक युवक ने बेहद सराहनीय कार्य किया है. उत्तर प्रदेश की राजधानी में एक मुस्लिम लड़के ने कुएं में कूद कर डूब रही गाय की जान बचाई, जबकि घटना के वक्त वह नमाज पढ़ने जा रहा था, लेकिन कुएं के पास भीड़ देख कर वह रुक गया. सब लोग तमाशा देख रहे थे, जबकि वह खुद क्रेन की मदद से अकेले ही कुएं में गया और गाय को बाहर निकाल लाया. जरूरत है इसी जज़्बे को आगे बढ़ाने की और इसी से यह सुन्दर मंजर तबाही से दूर रहेगा, अन्यथा यह देश इसका परिणाम कई बार भुगत चूका है... अब वक्त है तबाही से आगे बढ़कर अमन फैलाने का! और इसकी जिम्मेदारी किसी एक की नहीं होकर सभी भारतवासियों की है. हाँ! इन भारतवासियों में नेताओं को आप न ही गिनें तो ही बेहतर होगा, क्योंकि वह आपके दांतों से उन कारतूसों को खिंचवाते हैं, जिसके ऊपर गाय और सूअर की चमड़ी लिपटी होती है! ख़बरदार! जो इनके चक्कर में आप आये... चाहे वह आपके मोहल्ले का नेता हो, आपके सम्प्रदाय का नेता हो, आपके क्षेत्र का नेता हो, विधायक हो, सांसद हो या मंत्री ही क्यों न हो! उनका एक ही मकसद होता है 'बर्बाद करो चमन को और आबाद करो खुद को'! ऐसे में जनता को स्वयं ही जागरूक होना होगा, होना ही होगा ... यही एक रास्ता है.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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