घेरने हैं आ गयी वो फ़ौज देखो
बदलियों की फिर से मौज देखो
छुप गया सूरज गगन की ओट में
मुस्कान है लगी खिलखिलाने लोटने
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जेठ की तपती अगन में भी मगन
खेत में चलता न दुखता उसका मन
बीज जो डाले हैं उसने जतन से
इस बार भी रोये न अपने पतन से
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शहरों में भी कम नहीं दुश्वारियां
बदहवास हो भागते नर नारियां
अस्पताल में रोगियों की कतार है
लाखों दुखी, वैक्टीरिया से बीमार हैं
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देखते पंछी हैं बड़ी आशा से तुमको
नदियां और झरनों में अब रस भर दो
तड़पे ना कोई जीव अब इस उमस से
बढ़ती बेचैनी जा रही उजली तमस में
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- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'
Hindi poem by mithilesh on summer, rain season
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