तेरे हज़ार जवाबों से अच्छी मेरी ख़ामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रख ली. यह एक शेर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज के सवालों के बाद कहा था. यूपीए से 10 वर्ष तक प्रधानमंत्री रहे डॉ. मनमोहन सिंह का देश की अर्थव्यवस्था को उदारीकरण के रास्ते पर ले जाने में बड़ा हाथ माना जाता रहा है, किन्तु इस सहित उनके दुसरे छिटपुट योगदानों से भी बढ़कर राजनीति की दुनिया में उनके द्वारा दिया गया अनोखा योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण बन गया, जिसे विश्लेषकों द्वारा 'मौन' अथवा 'खामोश राजनीति' की संज्ञा दी गयी. उनकी ख़ामोशी के ऊपर अनेक चुटकुले बने तो घाघ नेताओं ने उनकी इस राजनीति को अपने लिए प्रेरणा मानने में भी देरी नहीं की. इस ख़ामोशी का आरोप अब देश के प्रखर वक्ताओं में शुमार वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी लगा है. देश के राष्ट्रवादी विचारकों में शुमार के. एन. गोविंदाचार्य ने नरेंद्र मोदी को, हालिया समस्याओं पर इसी चुप्पी के लिए निशाने पर लिया है. गोविंदाचार्य ने ललित मोदी विवाद पर प्रधानमंत्री की चुप्पी पर चुटकी लेते हुए कहा कि लगता है कि प्रधानमंत्री अब चुप रहना सीख रहे हैं. मंत्रियों के इस्तीफे पर गोविंदाचार्य ने आगे कहा कि यह मसला ऐसा है, जिसमें प्रधानमंत्री को अपने मंत्रियों से इस्तीफा मांगने की ज़रूरत ही नहीं पड़नी चाहिए बल्कि ये इस्तीफे खुद ही नैतिकता के आधार पर होने चाहिए. हालाँकि, नैतिकता के बारे में प्रश्न उठाना और राजनीतिक नेतृत्व से उसकी उम्मीद करना, आज के समय में अपने आप में एक बड़ा आश्चर्य है. वैसे, नैतिकता के आधार पर इस्तीफा न देने वालीं भाजपा की दो बड़ी नेत्रियों ने मानवता के पक्ष में बातें जरूर की हैं. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि उन्होंने मानवता के आधार पर ललित मोदी की मदद की, वहीं वसुंधरा राजे की ओर से भी बयान आ चुका है कि उन्होंने भी मानवता के नाते ही ललित मोदी के लिए एफिडेविट पर हस्ताक्षर किये थे, क्योंकि ललित मोदी की पत्नी मीनल राजस्थान की मुख्यमंत्री की दोस्त रही हैं. अब यदि मानवीय मूल्यों के इतने बड़े पैरोकारों से गोविंदाचार्य जैसे नेता नैतिकता के आधार पर इस्तीफा मांग रहे हैं तो यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि मानवता और नैतिकता मिलते-जुलते गुण माने जा सकते हैं. हालाँकि, ग्रामर के हिसाब से दोनों अलग हैं, लेकिन जो मानवता को धारण करेगा, वह भला नैतिकता को कैसे त्याग सकता है? वैसे भी, भारतवर्ष को देवभूमि का दर्जा दिया जाता रहा है और यदि देवभूमि पर मानवता और नैतिकता की बात नहीं होगी, तो मानवता बचेगी कैसे? एक व्यंग्यकार ने चुटकी ली कि कलियुग में इतनी मानवता भला पचेगी कैसे? खैर, यह तो एक समस्या हुई, किन्तु हमारे देश के प्रधानमंत्री के सामने कई समस्याएं एक साथ आ खड़ी हुई हैं. ललितगेट को छोड़ भी दें तो महाराष्ट्र में पंकजा मुंडे के ऊपर गंभीर घोटाले के आरोप सामने आ रहे हैं. वैसे, कुछ ख़बरों में इसे भाजपा की आतंरिक राजनीति से भी प्रेरित बताया जा रहा है, जिसमें महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस का नाम भी घसीटा जा रहा है. इस मामले में भी विपक्ष हमलावर रूख अपना रहा है और साथ ही साथ प्रधानमंत्री की मौन राजनीति भी जारी है. वैसे, यह उम्मीद करना कि हर छोटी बड़ी बात पर प्रधानमंत्री अपनी सफाई पेश करेंगे, थोड़ी अतिवादिता ही है, किन्तु इन दो बड़े विवादों पर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा जा रहा है. हाँ! टीवी चैनलों पर जरूर कुछ भाजपा नेता अपनी सफाई प्रस्तुत करते दिख रहे हैं, लेकिन उनका कद मुद्दे के हिसाब से उपयुक्त नहीं है. सवाल इन दोनों मुद्दों का ही नहीं है, बल्कि केंद्र सरकार, चुनी हुई दिल्ली सरकार के साथ भी विभिन्न मुद्दों पर लगातार उलझ रही है. अब इसके लिए चाहे जो सफाई पेश की जाय, किन्तु इसमें तालमेल की कमी तो है ही और केंद्र अपनी जिम्मेवारियों से भला कैसे बच सकता है. इन राजनीतिक मुद्दों को एक पल के लिए किनारे भी रख दें तो गोविंदाचार्य का वह कथन भी गौर करने लायक है, जिसमें उन्होंने कहा है कि 'कई लोगों में यह मैसेज जा रहा है कि सरकार में टीम भावना कमजोर हो रही है. संस्थाओं को कमज़ोर किया जा रहा है. सरकार में बैठे लोग सीएजी का मखौल उड़ा रहे हैं और लोकपाल पर ढिलाई बरती जा रही है.' अब इन आरोपों में सच्चाई कितनी है, यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा किन्तु सरकार को यह समझना ही पड़ेगा कि लोकतंत्र में संवाद और विश्वास दोनो बेहद जरूरी हैं. सम्मान और संवाद प्रत्येक पक्ष से होना आवश्यक है और बिना इसके सरकार में जनता का भरोसा लगातार कम होता चला जायेगा, जो निश्चित रूप से लोकतंत्र के हित में नहीं माना जा सकता. हालाँकि, मोदी सरकार के पिछले एक साल के कामकाज पर ध्यान दिया जाय तो सरकार सरपट दौड़ती नजर आ रही है. विदेश नीति से लेकर, स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट, बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट, जन-धन योजना, मेक इन इंडिया जैसी अनेक दूरदर्शी योजनाएं पेश की गयी हैं, और आगे भी डिजिटल इण्डिया समेत अनेक प्रोजेक्ट पेश होने हैं. इन नीतियों और कार्यों को लेकर अनेक वैश्विक संस्थानों ने भी मोदी सरकार में अपना विश्वास व्यक्त किया है. ऐसी स्थिति में यह बेहद आवश्यक है कि अपने कार्यकाल के पहले बड़े राजनीतिक संकट में नरेंद्र मोदी सामने आएं और अपना मौन तोड़ें. ऐसा भी नहीं है कि वह मात्र आरोपों के दम पर अपनी योग्य टीम पर अविश्वास करें और उनका इस्तीफा मांग लें, किन्तु जनता में अपना भरोसा कायम रखने के लिए उन्हें ठोस कदम तो उठाने ही होंगे. इन ठोस कदमों का प्रारूप क्या हो, यह तय करने में प्रधानमंत्री अपने आप में सक्षम हैं और अपनी सक्षमता उन्होंने अनेक अवसरों पर साबित भी की है. उम्मीद की जानी चाहिए कि ख़ामोशी के आरोपों को तोड़ते हुए प्रधानमंत्री राजनीतिक आरोप- प्रत्यारोपों पर जनता के साथ सीधा संवाद करके नैतिक और मानवीय दृष्टिकोण का उदाहरण पेश करेंगे, क्योंकि जनता तो सिर्फ नरेंद्र मोदी को जानती है, शायद इसीलिए उनकी ख़ामोशी पर इतना शोर-शराबा मच रहा है. बिडम्बना यह है कि ललित मोदी प्रकरण और पंकजा मुंडे प्रकरण पर शोर मचाने वाली कांग्रेस का दामन खुद ही संदेह के घेरे में हैं. ललित मोदी एक सामान्य बिजनेसमैन से क्रिकेट के बड़े व्यक्तित्व कांग्रेसी शासनकाल में ही बने और शशि थरूर की कोच्चि टीम का विवाद भी कांग्रेसी शासनकाल का ही नतीजा था. इसके अतिरिक्त पंकजा मुंडे के जिस टेंडर पर सवाल उठाया जा रहा है, शुरूआती खबरों में वह टेंडर भी कांग्रेस के ही नेता को मिला है. इसके अतिरिक्त खुद ललित मोदी ने प्रियंका गांधी और रोबर्ट वाड्रा से मिलने की बात ट्वीट की है, जिसे हवा में नहीं उड़ाया जा सकता है. पिछली तमाम गलतियों से सीख लेते हुए जनता प्रधानमंत्री से यदि इतनी उम्मीद कर रही है कि भ्रष्टाचार के प्रत्येक मुद्दे पर ज़ीरो टॉलरेंस की नीति अपनाई जाय, तो उसकी मांग नाजायज नहीं है. आखिर, देश के प्रधान चौकीदार होने की कसम नरेंद्र मोदी ने हर सभा में खाई है.
- मिथिलेश, नई दिल्ली.
Public needs action on corruption blame on bjp leaders, hindi article by mithilesh
lalit modi, mithilesh2020, hindi article, political article, rajnitik lekh, vasundhara raje, sushma swaraj, morality, humanity, naitikta, manavta, pankaja munde, govindacharya