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आखिर, किसी पार्टी के आधे से ज्यादे विधायक बगावत पर उतर आएं तो आप इसे सामान्य परिस्थिति नहीं मान सकते! अरुणाचल प्रदेश में पिछले साल 16 दिसंबर से राजनीतिक संकट है जब कांग्रेस के 21 विद्रोही विधायकों ने विधानसभा की बैठक में बीजेपी के 11 और दो निर्दलीय विधायकों के साथ मिल कर विधानसभा अध्यक्ष नबाम रेबिया के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पारित कर दिया था. इसके बाद तमाम घटनाक्रम बदले और राज्य की हाई कोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक में यह संकट छाया हुआ है. इस संदर्भ में, कांग्रेस ने सीधा पीएम मोदी पर निशाना साधते हुए कहा है कि अरुणाचल में 'लोकतंत्र की हत्या' की हत्या हुई है और वहां पर जबरन सरकार बनाए जाने की कोशिश की जा रही है. कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला ने कहा, 'अरुणाचल में प्रजातंत्र का गला घोंटकर राष्ट्रपति शासन लागू किया गया, क्योंकि मोदी जी वहां जबरन सरकार बनाना चाहते हैं. इस बयान का काउंटर भाजपा की ओर से भी आया, जब उसने कैबिनेट के फैसले का बचाव किया. भाजपा प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि यदि किसी राज्य में संवैधानिक संकट उत्पन्न हो जाता है तो उसमें सुधार करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की होती है. नकवी यह कहने से भी नहीं चूके कि कांग्रेस लोकतंत्र का पाठ पढ़ा रही है और इससे हास्यास्पद कुछ भी नहीं हो सकता. इन बयानों के साथ-साथ और भी कई हलकों में, केंद्रीय राजनीति में अरुणाचल प्रदेश को लेकर खूब होहल्ला मचा हुआ है. पहले विधायकों की उठापठक से संवैधानिक संकट उत्पन्न हुआ, फिर उसके बाद राष्ट्रपति शासन और अब मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा है.
यह सच है कि अरुणाचल प्रदेश में संवैधानिक संकट था क्योंकि बीते छह महीनों से असेम्ब्ली की बैठक नहीं हुई थी. मतलब, वहां कोई सरकार नहीं थी. कहा तो यह भी जा रहा है कि यह संकट अपने आप पैदा नहीं हुआ, बल्कि यह संकट जानबूझकर पैदा किया गया है और इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार खुद कांग्रेस पार्टी ही रही है. जरा गौर कीजिय, एक पार्टी की अरुणाचल में बहुमत की सरकार थी. 60 सदस्यों की विधानसभा में उसके 47 सदस्य थे और सरकार सरसता से चल रही थी. अब एकाएक बड़ी संख्या में विधायकों ने पाला बदल लिया और पार्टी छोड़ दी. कांग्रेस पार्टी को अपने आपसे यह सवाल क्यों नहीं पूछना चाहिए कि उसके लोग पार्टी छोड़कर क्यों चले गए? हालाँकि, यह सारा मामला इतना सीधा भी नहीं है. बिहार के मुख्यमंत्री का एक बयान इस मामले में गौर करने लायक है, जिसमें नीतीश कुमार ने केंद्र पर निशाना साधते हुए कहा है कि केंद्र में बैठे हुए लोग, राज्यों में दुसरे दलों की सरकार नहीं देखना चाहते! जाहिर है, वर्तमान में इसका सीधा निशाना भाजपा पर ही जाता है. अंदरखाने भी यह सुगबुगाहट फैली हुई है कि जानबूझकर, जोड़-तोड़कर एक संकट खड़ा किया गया, जिसके दूरगामी असर होंगे. आखिर, अरुणाचल जैसे सीमाई राज्य में इस तरह के राजनीतिक खेल और उठापटक का अच्छा संकेत क्योंकर जाएगा? इस सम्बन्ध में दिल्ली के सीएम अरविन्द केजरीवाल का भी बड़ा दिलचस्प बयान आया कि अरुणाचल के बाद अब दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगने का नंबर है! हालाँकि, वह गाहे-बगाहे नहीं, बल्कि रोज ही केंद्र को कोसते रहते हैं, किन्तु उनकी इस टिप्पणी से यह तो जाहिर होता ही है कि अरुणाचल में बड़ा राजनीतिक खेल हुआ है, जिससे बचा जाना चाहिए था. आखिर, कांग्रेस और भाजपा, दोनों को ही इस तरह के संवेदनशील राज्य में मिल-जुलकर काम करने में परहेज क्यों है? वहां के निवासियों में भी इस पूरे राजनीतिक प्रकरण से एक तरह की निराशा अवश्य ही आएगी.
हालाँकि, इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जबरदस्त टिप्पणी करते हुए केंद्र सरकार की खिंचाई की है. अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को गंभीरता से लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा कि उसे ताजा घटनाक्रम के बारे में अवगत क्यों नहीं कराया गया. अब इस मामले में केंद्र को सुप्रीम कोर्ट में जवाब दाखिल करना है. कुल मिलकर देखा जाय तो जिस प्रकार की परिस्थितियां इस सीमान्त राज्य में उत्पन्न हुई हैं, उसने कई मायनों में राजनीति की पोल खोल दी है. उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में राजनीति पर संवैधानिक और नैतिक मूल्य भारी पड़ेंगे और राज्य में जल्द ही निर्वाचित सरकार का चयन होगा. इस बात में कोई दो राय नहीं होना चाहिए कि अब इस लड़ाई को संसद तक ले जाने का दम भरने वाली कांग्रेस अगर इस मुद्दे पर पहले ही सच्चे रहती तो यह संकट काफी हद तक टल सकता था. इसके लिए उसके पास पर्याप्त समय भी था, किन्तु उसके राजनीतिक प्रबंधक इस मामले में पूरी तरह असफल साबित हुए. जहाँ तक भारतीय जनता पार्टी की स्थानीय ईकाई का सवाल है तो उसे स्थानीय राजनीति के हिसाब से निर्णय करने की संवैधानिक स्वतंत्रता है. ऐसे में, केंद्र सरकार के पास ऊपरी तौर पर दो ही विकल्प थे, जिसमें अपनी स्थानीय इकाई पर दबाव देकर कांग्रेसी सरकार का समर्थन करना, निश्चित रूप से विपक्ष के रोल से दगाबाजी जैसा ही होता! इसलिए, उसने राष्ट्रपति शासन का जो विकल्प अपनाया है, वह स्वाभाविक ही था. आलोचना करने वाले बेशक आलोचना करें कि परदे के पीछे खेल हुआ है, किन्तु बिहार के नीतीश और दिल्ली के केजरीवाल तक इस तरह के खेल करते रहे हैं, तो फिर यहाँ दोहरा मापदंड जरूर आश्चर्यचकित करता है. हालाँकि, अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है तो उसके निर्णय के सहारे ही संविधान की व्याख्या होगी और इस सीमान्त राज्य में लोकतंत्र स्थापना की राह भी खुलेगी.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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