मुझे एक पुरानी लेकिन मशहूर कहानी याद आ रही है, जिसमें एक राजनेता का बेटा अपने बाप से पॉलिटिक्स सीखने की ज़िद्द करता है तो उसका बाप उसे पहले तो मना करता है, लेकिन जब उसकी ज़िद्द बढ़ती जाती है तब अपने बेटे को वह छत पर भेज देता है. नीचे खड़े होकर वह अपने बेटे से कहता है कि छत से कूद जाओ... उसका बेटा डरते हुए जवाब देता है कि कूदने पर मेरी टांग टूट जाएगी... उसका बाप उसे सौ फीसदी आश्वस्त करते हुए कहता है कि वह चिंता न करे, क्योंकि उसका बाप नीचे खड़ा है, वह सब संभाल लेगा! बेटा डरता तो है, लेकिन चूँकि उसे राजनेता बनना ही होता है, इसलिए आँख बंद करके वह कूद जाता है और उसकी टांग भी स्वाभाविक रूप से टूट जाती है! जब वह अपने पिता को भली-बुरी सुनाने लगता है तो उसके पिता का दिलचस्प जवाब होता है कि राजनीति का यह पहली और आखिरी सीख यही है कि 'अपने बाप पर भी भरोसा मत करो'! इस कहानी का सन्देश यूनिवर्सल है और विभिन्न माध्यमों से थोड़ी भी राजनीतिक समझ रखने वाले व्यक्ति को यह पता भी है. चूँकि, राजनीति में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति का अपना स्वार्थ और असीमित महत्वाकांक्षा होती है, इसलिए आप जिस पर भरोसा कर रहे हैं, वह कब आपको दगा देकर कुर्सी पर कब्ज़ा जमाने का प्रयास शुरू कर दे, यह आंकलन करना मुश्किल है. शायद इसलिए, पॉलिटिकल कंसलटेंट की अवधारणा भारतीय राजनीति में भी अपना स्थान बनाने की ओर कदम बढ़ा चुकी है, क्योंकि अविश्वास के दौर में कम से कम इन पर काफी हद तक भरोसा किया जा सकता है. नीतीश कुमार की बिहार में जीत ने कई मिथक गढ़े हैं, जिनकी व्याख्या देश और विदेश के विश्लेषक बड़े चाव से कर रहे हैं. इनमें सबसे महत्त्व की और भारतीय राजनीति के लिए जो नयी बात उभर कर सामने आयी है, वह पॉलिटिकल कंसलटेंट 'प्रशांत किशोर' की चहुंओर हो रही चर्चा है. हालाँकि, प्रशांत किशोर नीतीश से पहले नरेंद्र मोदी के साथ 2014 के आम चुनाव में जुड़े हुए थे, किन्तु चुनाव समाप्त होने के बाद वह परिदृश्य से गायब हो गए थे और यह बात हल्की-फुल्की चर्चा के साथ समाप्त हो गयी थी.
इस बार लगता है, प्रशांत किशोर काफी अलर्ट थे और नीतीश की बंपर जीत के साथ उन्होंने अपनी ब्रांडिंग की भी खबरें खूबसूरती से मीडिया तक पहुंचाई. नीतीश कुमार ने भी प्रशांत को इम्पोर्टेंस देते हुए उनके साथ जीत के तुरंत बाद 'गले मिलते फोटो' को जारी कराया और कहा तो यह भी जा रहा है कि प्रशांत को पश्चिम बंगाल से ममता बनर्जी के रूप में एक नया क्लाइंट भी मिल गया है. पश्चिम के देशों में यह कांसेप्ट बहुत पुराना रहा है और बराक ओबामा से लेकर, ब्लादिमीर पुतिन तक तमाम बड़े नेता पॉलिटिकल कंसल्टेंट्स की सेवाएं अनिवार्य रूप में लेते रहे हैं. हाँ! भारतीय परिदृश्य में इसमें तमाम पेंच रहे हैं, जो आगे की पंक्तियों में प्रशांत किशोर की कहानी के माध्यम से ही समझने की कोशिश करते हैं. इस बार बिहार में महागठबंधन का प्रचार अभियान काफ़ी चुस्त-दुरुस्त नज़र आया और अपने रंगों की वजह से भी ध्यान खींचता रहा, तो इसके पीछे दिमाग़ है प्रशांत किशोर का जो 2014 के आम चुनाव में मोदी के रणनीतिकार थे. इस बार वे नीतीश की टीम का हिस्सा थे और उन्होंने नीतीश-लालू के अभियान को कई मायनों में बदला, जिसको परत-दर-परत समझने की कोशिश करते हैं. रंगों की रणनीति को तैयार करते वक्त प्रशांत किशोर को ये अंदाज़ा था कि मुक़ाबला बीजेपी के भगवा रंग से होना है और केसरिया रंग काफी चमकदार है, जिससे भाजपा का अभियान काफी चमक-दमक वाला दिखता है, ऐसे में नीतीश के अभियान के दौरान लाल और पीले रंग का इस्तेमाल किया गया, जिसने बहुत लोगों का ध्यान खींचने में सफलता पायी. इसके अतिरिक्त, बूथ स्तर तक के आंकड़ों का विश्लेषण, मतदाताओं को आकर्षित करने वाले अभियान, स्वयंसेवकों का प्रबंधन और सोशल मीडिया पर साथी जुटाना जैसे तमाम अभियान प्रशांत की टीम के मुख्य कार्य थे ही! कहा तो यह भी जा रहा है कि किशोर ने इस बात के लिए भी जोर डाला था कि जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहिए और नीतीश कुमार को फिर से मुख्यमंत्री बनना चाहिए. यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि ऊपर के तमाम कार्यों को एक एजेंसी के तौर पर, सिर्फ पेमेंट के आधार पर हायर करना अलग बात है और तमाम कोर पॉलिटिकल मुद्दों में निर्णायक सलाह देना बिलकुल अलग बात!
जाहिर है, बिहार के इन चुनावों में पॉलिटिकल कंसल्टेंट्स की भूमिका, महज एजेंसी या प्रबंधन से आगे के स्तर तक पहुंचा है. खैर, मांझी को हटाने के बाद किशोर ने अगले छह महीने में नीतीश कुमार को न केवल पार्टी के चेहरे के तौर पर पुनः प्रचारित किया बल्कि सरकार, सुशासन, विकास और बिहार की री-ब्रैंडिंग की. जाहिर है, इन प्रयासों से जीतन राम मांझी के जाने के बाद हुए नुक्सान की भरपाई करने में नीतीश पूरी तरह सफल रहे और मुख्यमंत्री पद पर वापस लौटने से आम मतदाताओं में नीतीश की लोकप्रियता भी बढ़ी. इन कार्यक्रमों के अतिरिक्त, पार्टी के कार्यकर्ता ‘घर-घर दस्तक’ अभियान में लोगों के घर-घर तक गए और किशोर की टीम ने नीतीश कुमार को लगातार फ़ीडबैक दिया कि नाराज़ मतदाताओं को ख़ुश करने के लिए क्या करने की जरूरत है. इसमें पैरा-टीचरों की नौकरियों को स्थायी बनाने, किसानों की समस्याओं को हल और सरकारी अनुबंधों में जाति आधारित आरक्षण देने जैसे सुझाव शामिल थे. अब यहाँ सीधा सवाल उठता है कि यह सब कार्य तो राजनैतिक कार्यकर्ताओं के होते थे, तो ऐसे में पॉलिटिकल कंसल्टेंट्स क्यों? इसका तात्कालिक जवाब यही हो सकता है कि अधिकांश राजनैतिक कार्यकर्त्ता टेक्नोलॉजी में ज़ीरो होते हैं और इसलिए कम समय में फीडबैक लेना, उनको सीक्वेंस में करना उनके लिए बेहद मुश्किल होता है. वह नारे तो लगा लेते हैं, बात कर लेते हैं, मगर विपरीत परिस्थितियों में वह योजना बना पाने में सक्षम नहीं होते. इसके अतिरिक्त, किसी भी पार्टी के तमाम राजनैतिक कार्यकर्त्ता गुटबाजी में लिप्त होते हैं और अपने नेता विशेष के प्रति वफादारी के चलते पार्टी की सेन्ट्रल कमांड को अँधेरे में रखने की बात भी कई बार सामने आयी है. ज़ाहिर है, एक प्रोफेशनल पॉलिटिकल कंसलटेंट इस तरह की लायबिलिटी से दूर होता है. ज़रा गौर कीजिये, अगर प्रशांत किशोर की जगह कोई और नेता इन तमाम रणनीतियों पर कार्य करता और पार्टी जीत जाती तो नीतीश कुमार की यह मजबूरी बन जाती कि वह उसे मंत्रिमंडल में शामिल करें! चूँकि, पॉलिटिकल कंसल्टेंट्स की अपनी ज़मीन नहीं होती, इसलिए तमाम नेताओं को राजनीतिक खतरे से नहीं जूझना पड़ता है.
बिहार चुनाव में, इस टीम के अन्य योगदानों की बात करें तो, बीजेपी के संसाधनों के सामने महागठबंधन के पास संसाधनों की कमी को देखते हुए प्रशांत किशोर ने टीवी और प्रिंट विज्ञापन पर एक पैसा नहीं खर्च करने का फैसला लिया, बल्कि उन सीमित पैसों का इस्तेमाल रेडियो विज्ञापन के लिए किया गया और स्वयंसेवियों को तैयार किया गया, जिसमें नीतीश कुमार का पत्र लेकर स्वयंसेवियों को दरवाजे- दरवाजे तक भेजा गया. ज़ाहिर है, जनता से जुड़ाव का इससे बेहतर कोई दूसरा रास्ता ही नहीं था. ग्रामीण स्तरों पर वीडियो रथ की व्यवस्था की गई, जिसमें 45 मिनट के वीडियो में मोदी सरकार की हर मोर्चे पर आलोचना की गई, ललितगेट से लेकर व्यापाम तक और बैंक खातों में 15 लाख रुपये आने के वादे तक! एक और राजनीतिक सूझबूझ का उदाहरण देखिये, जब प्रशांत किशोर ने ये भी सुनिश्चित किया कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव एक साथ बहुत ज़्यादा रैलियों में नहीं जाएं क्योंकि दोनों नेताओं की स्टाइल अलग थी, उनके श्रोता अलग-अलग हैं और जातिगत पकड़ भी अलग-अलग है. तमाम राजनेता ऐसे मौकों पर चूक जाते हैं और ठीक इसके विपरीत फैसला करते हैं कि दोनों के साथ प्रचार करने से उनके समर्थक मिल जायेंगे! ऐसी स्थिति में समर्थक तो मिलते नहीं, उनके बीच आपसी कलह देखने को ज़रूर मिल जाती है, कई बार तो सभा-स्थल पर ही! कॉर्पोरेट की सोच 'स्पेसिफिक' परिणाम देने में सही साबित होती है. ऐसे में, प्रशांत किशोर ने तय किया कि वे दोनों अलग-अलग सभी 243 क्षेत्रों में एक बार जरूर जाएं. नीतीश जहां अपने भाषणों में विकास की बात करते दिखे वहीं लालू सामाजिक न्याय और जातिगत ध्रुवीकरण पर जोर देते रहे. इसके पीछे विचार यही था कि दोनों नेता एक दूसरे के पूरक नजर आएं, न कि एक दुसरे के विरोधी. जाहिर है, आज के समय में प्रशांत किशोर के रूप में उन तमाम युवाओं के लिए प्रेरणा भी उभरी है, जो सीधे तौर पर पॉलिटिकल चुनावों में नहीं आना चाहते, लेकिन पॉलिटिकल समझ को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं.
इससे न केवल युवाओं को रोजगार मिलेगा, बल्कि नए तरह की पॉलिटिकल ब्रीड भी सामने आएगी, जो भविष्य की राजनीति को सक्षमता से हैंडल कर सकेगी, स्पेसिफिकली जनता की समस्याओं को समझ सकेगी. प्रोफेशनली पॉलिटिकल कंसलटेंट इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वह वगैर लिप्त हुए राजनीति करते हैं, श्रीकृष्ण के सन्देश की तरह. शायद इसीलिए, राजनैतिक कार्यकर्ताओं के ऊपर उनको वरीयता मिलने के चांस बढ़ जायेंगे. हालाँकि, इनके लिए मैदान इतना भी सरल नहीं है, क्योंकि इस लेख की शुरूआती पंक्तियों में ही मैंने स्पष्ट किया है कि पॉलिटिक्स की दुनिया तो अपने बाप की भी नहीं होती है. आज नीतीश के लिए 'चाणक्य' बनकर वाहवाही लूट रहे प्रशांत किशोर भी इस राजनीति का शिकार बन चुके हैं. प्रशांत किशोर ने 2011 में संयुक्त राष्ट्र में लगी अपनी जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ की नौकरी से विदा लेकर अफ्रीका से लौटे और 2012 के गुजरात चुनाव में नरेंद्र मोदी को मज़बूत शासन प्रणाली का प्रतीक दिखाने के काम में लग गए थे. चूँकि, उनकी टीम में कई पेशेवर लोग शामिल हैं जिसमें एमबीए और आईआईची ग्रेजुएट भी हैं, इसलिए उनकी 'सिटीजन फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस' से नरेंद्र मोदी की छवि निखार में काफी सहायता मिली और इनका सफर मोदी के प्रधानमंत्री बनने तक निर्बाध चला. समस्या तब आयी, जब अमित शाह को इस चुनावी जीत का सारा क्रेडिट मिल गया और उन्होंने प्रशांत किशोर को पूरी तरह साइडलाइन कर दिया. हालाँकि, बात यह भी निकलकर आ रही है कि प्रधानमंत्री प्रशांत किशोर को 'पीएमओ' में महत्वपूर्ण पद को देने के पक्ष में थे, लेकिन अमित शाह अपना एकछत्र साम्राज्य चाहते थे. मजबूरन, राष्ट्रीय चुनाव के बाद किशोर ने आगे की संभावनाओं की तलाश में एक साल का लंबा ब्रेक लिया. विकल्पों की खोज में कांग्रेसी नेताओं तक के चक्कर लगाने को विवश होना पड़ा किशोर को. नीतीश कुमार से भी कई बैठकों और शर्तों के बाद किशोर को मनमाफिक काम मिला और चूँकि नॉलेज के स्तर पर उनकी तैयारी और समझ सॉलिड थी, इसलिए उन्होंने खुद को प्रूव भी कर दिखाया.
ज़ाहिर है, दुनिया के सबसे शातिर पेशे में आपको हर स्तर पर चुस्त-दुरुस्त होना पड़ता है तो बौद्धिक स्तर से लेकर अशिक्षित लोगों की मानसिकता समझ सकने की काबिलियत भी रखनी होती है. इस फिल्ड में जाने वाले लोगों को गंभीरता से इस बात का मनन करना चाहिए कि राजनीतिक दबावों, षड्यंत्रों से पार पाकर जीत हासिल करने की समयबद्ध योजना उनके पास है कि नहीं! हालाँकि, प्रशांत किशोर इस फिल्ड में भारत के सबसे चमकते सितारे हैं, लेकिन वैश्विक स्तर पर यह काफी सफल फार्मूला है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव खुद बड़े वैश्विक ब्रांड 'जे ऑस्टिन' की सेवाएं लेने का मन बना चुके हैं. यह वही जे ऑस्टिन हैं, जिन्होंने बराक ओबामा की कैम्पेनिंग का काम संभाला था. आम चुनाव में राहुल गांधी द्वारा भी 'डेंत्सु और बर्सन मार्स्टल' नामक पीआर फर्मों को हायर करने की खबर थी, हालाँकि वह मुश्किल से ही अमेठी से जीत सके थे. इन बड़े नेताओं को छोड़ भी दें तो सोशल मीडिया जैसे माध्यमों की बढ़ती अहमियत ने लोकल नेताओं को भी मजबूर किया है कि वह अपने लिए एक ऐसे बन्दे की सेवाएं लें जो उनका फेसबुक, ट्विटर इत्यादि प्रबंधित कर सके. जाहिर है, भारत में जिस प्रकार का बड़ा पॉलिटिकल उद्योग है, उसमें पॉलिटिक्स और इंटरनेट की दुनिया की समझ रखने वालों के लिए रोजगार की एक बड़ी सम्भावना ने जन्म ले लिया है. सोशल मीडिया को प्रबंधित करने के अलावा, नारे लिखना, पक्ष और विपक्ष की खूबियों-कमजोरियों की एनालिसिस करना, तमाम ट्रेडिशनल और नए मीडिया माध्यमों में कैम्पेन प्लान करना, रियल टाइम पॉलिटिकल इंटेलिजेंस, तात्कालिक मुद्दों की समझ और उनमें निश्चित समय पर बदलाव का एक्शन, सोशल इंजीनियरिंग, ब्रांड-बिल्डिंग, कनफ्लिक्ट मैनेजमेंट, इंफोर्मेशन चैनल मैनेजमेंट, बूथ-लेवल-मैनेजमेंट और इन सबसे बढ़कर उस राजनीतिक पार्टी या नेता के आस पास घिरे, चापलूसों का हस्तक्षेप व्यवहारिक रूप से निष्फल करने की खूबी आप में होनी चाहिए. अगर आपमें इन समस्याओं को समझने की खूबी है तो यकीन मानिये कि आने वाले समय में आप भी प्रशांत किशोर की तरह राजनीति में अपना झंडा गाड़ सकते हैं तो भविष्य की भारतीय राजनीति को सशक्त मोड़ भी दे सकते हैं.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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