मेरे जानने वाले एक परिचित की दो बेटियां हैं, लेकिन मेरा यह अनुभव कुछ समय पहले का है जब उनकी दूसरी संतान आने वाली थी. चूंकि, उनकी पहली संतान बेटी थी, इसलिए उनके घरवालों और खुद उनका मन भी था कि उनकी अगली संतान 'बेटा' हो! बस फिर क्या था, घर-परिवार और सगे-सम्बन्धियों में इस बात का पूरा माहौल बनाया गया और उन महोदय ने दो-तीन महीने में अपनी धर्मपत्नी को भी राजी कर लिया. ले देकर उनकी परिचित एक नर्स थी, जिसने छुपकर लिंग-परीक्षण कराने की जिम्मेदारी ले ली. संयोगवश लिंग-परीक्षण में बेटी ही निकली, और उसके बाद गर्भपात की तैयारियां भी हो गयी! जब डॉक्टर के पास यह केस गया तो उसने महिला के जान जाने का रिस्क बताकर गर्भपात करने से मना कर दिया क्योंकि गर्भधारण को पांचवा महीना हो रहा था, जिसमें साधारणतया भी खतरा बढ़ जाता है! आप यह सुनकर आश्चर्य करेंगे कि महिला के जान जाने का खतरा होने के बावजूद कई रिश्तेदारों ने गर्भपात का दबाव बनाना नहीं छोड़ा! हालाँकि, मेरे परिचित महोदय की थोड़ी बहुत अक्ल सलामत थी और उन्होंने रिस्क नहीं लिया. कहानी इसके बाद भी चली, क्योंकि सबको पता चल चुका था कि आने वाली संतान बेटी है, इसलिए उनके अगले चार महीने ताने और दुत्कार से भरे ही रहे. यह तब है, जब यह परिवार शिक्षित और संपन्न है. आप कल्पना कर सकते हैं कि हमारे समाज में आज भी बेटे-बेटियों का कितना गहरा भेद विद्यमान है!
21वीं सदी का दूसरा दशक बीतने वाला है और हम भारतीय आज तक इसी समस्या में उलझे हैं कि लड़कियों की भ्रूण-हत्या कैसे रुके और किस तरह स्त्री-पुरुष अनुपात की घटती संख्या पर लगाम लगाई जाय! सोचिये तो यह शर्मनाक विषय ही है, किन्तु इसके विपरीत तथ्य यह है कि यह एक सच्चाई है. इसी से सम्बंधित एक बेहद अजीब और विपरीत विचार प्रस्तुत करके केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने इस पूरी चर्चा को अलग मोड़ देने की बेतुकी कोशिश की है, किन्तु ऐसा लगता है कि इस संवेदनशील विषय को छूने से पहले उन्होंने भारतीय समाज की वर्तमान तस्वीर को अपने दिमाग में नहीं रखा. केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री ने इस सम्बन्ध में जो बयान दिया उसके अनुसार लिंग जांच को अनिवार्य कर देना चाहिए ताकि जिन महिलाओं के गर्भ में लड़की है उनका ध्यान रखा जा सके और इस तरह कन्या भ्रूण हत्या रोकी जा सकेगी. अब इस विचार को सुनते ही प्रश्न उठता है कि लिंग-जांच पर प्रतिबन्ध आखिर लगाया क्यों गया था? प्रश्न यह भी उठता है कि इसके विपरीत विचार रखते हुए क्या मेनका गांधी ने यह मान लिया है कि भारतीय समाज की लड़कियों को गर्भ में मार देने की सोच में बदलाव हो चूका है अथवा उन्होंने आँख मूंदकर यह भरोसा कर लिया है कि हमारा कानून इस काबिल हो चूका है कि भारत की बड़ी आबादी पर वह नियंत्रण करने में सक्षम है! क्या मेनका को इस बात की खबर नहीं है कि चोरी, बलात्कार, हत्या जैसे संगीन अपराधों तक में हमारे कानून की क्या सीमाएं हैं?
हालांकि मेनका ने कहा है कि यह उनके निजी विचार हैं और इस पर चर्चा की जानी चाहिए! पर सवाल यह है कि सिर्फ चर्चा की गरज से क्या किसी ऐसे मुद्दे को नकारात्मक मोड़ देना ठीक है, जो पहले से ही हमारे समाज पर एक कलंक है! क्या मेनका ने यह नहीं सोचा कि अगर चौथे महीने में किसी महिला के गर्भ में लड़की होना का पता कानूनी रूप से लगने लगे तो हमारे समाज की क्रूरता इतनी घनी है कि वह लड़की तो छोड़िये, उस गर्भवती महिला की जान तक पर खतरा उत्पन्न कर सकते हैं! यह कहने में हमें जरा भी संकोच नहीं होना चाहिए कि सास-ससुर के साथ तमाम रिश्तेदार, पति और यहाँ तक कि सामाजिक बंधनों में बंधी वह महिला तक इस बात पर नकारात्मक हो जाती है कि उसके गर्भ में लड़की मौजूद है! जयपुर में एक कार्यक्रम के दौरान मेनका गांधी सोनोग्राफी सेंटर्स द्वारा गैरकानूनी तरीके से लिंगानुपात की जांच संबंधी पूछे गये प्रश्न का जवाब दे रही थी, जिसमें उन्होंने कहा कि ‘एक बार जांच में यह तय हो जाए कि बच्चा लडका है या लडकी तो उसकी निगरानी रखना आसान हो जायेगा. क्या मेनका यह बता सकती हैं कि वह बाकी के 6 महीने के लम्बे समय तक किस-किस पर और कहाँ-कहाँ निगरानी करेंगी? और अगर लोगों ने इसका उल्लंघन किया तो वह क्या उन्हें फांसी पर लटका देंगी? शुरू से आखिर तक अगर तथ्यों को उल्टा-पुल्टा किया जाय तो साफ़ हो जाएगा कि मेनका गांधी का विचार न केवल भ्रूण-हत्या की गंभीरता को नष्ट करता है, बल्कि इस जघन्य अपराध की समस्या को और भी बढ़ाने वाला ही है.
उनके इस बयान से समाज के असामाजिक लोगों को ही बढ़ावा मिलेगा तो लालची डॉक्टर्स और लैब इससे प्रोत्साहित होंगे! यह एक दूसरा तथ्य है कि विकसित राज्यों में अविकसित राज्यों के मुकाबले सीएसआर का गिरता स्तर बड़ी समस्या के रूप में सामने आया है. विपक्ष को भी लगता है कि मौजूदा कानून को हटाने से भ्रूण हत्या को लेकर लोगों का ख़ौफ़ ख़त्म हो जाएगा, ऐसे में मेनका गांधी का यह आपराधिक विचार कहाँ से उत्पन्न हो गया है! गौरतलब है कि कन्या भ्रूण हत्या पर लगाम कसने के इरादे से सरकार ने 1994 में ही भ्रूण परीक्षण पर रोक लगा दी थी. हालाँकि, इस प्रावधान के बावजूद चोरी-छुपे ये सिलसिला जारी है तो डॉक्टर तर्क देते हैं कि भारत में इतने सेंटर ही नहीं हैं कि सबका लिंग परीक्षण कराया जा सके. 2011 के जनसंख्या आंकड़े के मुताबिक 1000 बच्चों में बच्चियों का अनुपात 943 है. हरियाणा में जहां 1000 लड़कों पर सिर्फ 876 लड़कियां है जबकी पंजाब में यह तादाद 926 है. हालाँकि, जितने अहम कानून इस समस्या से निपटने के लिए मौजूद हैं, उतना ही ज़रूरी लड़कियों के प्रति समाज के नज़रिए को बदलना भी है और हम इस मामले में निश्चित रूप से कहीं न कहीं असफल हो रहे हैं! हालाँकि, इसका हल कतई यह नहीं है कि मेनका गांधी जैसे बेतुका विचारों पर नकारात्मक चर्चा की जाय, बजाय कि इसकी भर्त्स्ना करने के! यह केंद्र सरकार के 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' की नीति के भी विपरीत विचार है, क्योंकि आज भी हमारे देश में लोग बेटियों को बोझ मानते हैं और इस तथ्य को अगर कोई सरकारी मंत्री, वह भी महिला बाल-विकास मंत्रालय से जुडी हुईं, अनदेखा करती हैं तो यह समाज को अँधेरे में धकेलने जैसा कदम होगा. जरूरत इस प्रयास को और पुख्ता करने की हैं कि लिंगभेद से संबंधित लैब्स और डॉक्टर अगर पकडे जाएँ तो उनको और कड़ी सजा मिले, तो समाज में जागरूकता के प्रयासों को तेजी से बढ़ावा देने की आवश्यकता को अब अनिवार्यता में बदलने का प्रयास करना समय की मांग हैं.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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