2002 में जब नयी दिल्ली में 8वें जलवायु परिवर्तन कांफ्रेंस का आयोजन किया गया तो उसमें विकसित देशों द्वारा विकासशील और पिछड़े देशों को उच्च तकनीक के ट्रांसफर की बात कही गयी थी, जिससे उनके ऊपर जलवायु परिवर्तन को लेकर कम दबाव और समूचा विश्व उद्देश्यों की ओर आगे बढ़ सके. रूस, जो अकेले 17 फीसदी कार्बन उत्सर्जन करता है, उसने इस सम्मलेन के प्रस्तावों पर टालमटोल का रवैया अख्तियार किया था तो अन्य विकसित देशों का रवैया भी उत्साह से भरा नहीं था. 1995 में बर्लिन से शुरू हुए संयुक्त राष्ट्र क्लाइमेट चेंज कांफ्रेंस का सिलसिला आज 21 वर्ष का हो गया है, लेकिन इस 'कॉन्फ्रेंस ऑफ़ पार्टीज', यानी सीओपी में 8वें जलवायु परिवर्तन कांफ्रेंस, नई दिल्ली की ही भांति आरोप-प्रत्यारोप का दौर ही ज्यादा चला है. जाहिर तौर पर विकसित देश, जिसमें अमेरिका जैसी अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं, उनके तमाम प्रयोगों, उपभोगवादी और वर्चस्ववादी मानसिकता ने इस धरती को एक ऐसी प्रयोगशाला बना दी है, जिससे वायुमंडल कचरे का ढेर बनता जा रहा है तो उनकी चाहत अब ऐसी नज़र आती है कि विकासशील देश, जिसमें भारत जैसी अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं, वह अपने विकास के पहिये को रोक दें. भारतीय प्रधानमंत्री मोदी ने इस मामले पर बेहद साफगोई से अपनी बात कही है, जो रूस और अमेरिका जैसे देशों को आइना दिखाती है. पेरिस में जलवायु परिवर्तन पर अहम सम्मेलन में भारत ने स्पष्ट कहा है कि ग़रीब देशों के मुकाबले में अमीर देश ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में ज़्यादा कमी लाएँ. आखिर, विकासशील देशों और ग़रीब देशों का यह डर कहाँ गलत है कि पेरिस के जलवायु सम्मेलन में समझौते की प्रक्रिया में कहीं उनके हितों की बलि न चढ़ जाए!
कार्बन उत्सर्जन के मामले में चौथे नंबर पर होने के बावजूद भारत ने इसे अपनी जिम्मेदारी समझते हुए ना सिर्फ चिंता बताई है बल्कि उत्सर्जन कम करने का प्लान भी पेश कर दिया है, हालाँकि, जानकारी के अनुसार अमेरिका ने भारत के इस प्रस्ताव पर सकारात्मक रूख नहीं दिखाया है, जो चिंताजनक है. दुनिया के 180 देशों के इस सम्मेलन में ज़्यादातर बातचीत इस मुद्दे पर होने की संभावना जताई जा रही है कि दुनिया के तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस ऊपर की सीमा में रखा जाए. हालाँकि, 48 विकासशील, पिछड़े देशों के समूह (एलडीसी) का कहना है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा वृद्धि वाला कोई भी समझौता उनके लिए विनाशकारी साबित होगा, क्योंकि लक्ष्य अगर कम होगा तो विकसित देशों को अपने कार्बन उत्सर्जन में ज़्यादा कटौती करनी होगी. इस समूह का यह भी कहना है कि इससे पिछड़े देशों को कार्बन उत्सर्जन पर मिलने वाली छूट ज़्यादा बड़ी होगी. एलडीसी के नेता और अंगोला के गिज़ा गस्पर मार्टिन्स का कहना है कि अगर दुनिया 2 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य रखकर भी चलती है, तो ग़रीब देशों के लिए आर्थिक विकास, खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण तंत्र और उनके निवासियों का जीवन ख़तरे में पड़ जाएगा. हालाँकि, भारत इस समूह में नहीं है किन्तु वह इस समूह की चिंताओं से इत्तेफाक रखता है कि क्लाइमेट चेंज के नाम पर एकतरफा सोच से अंततः हमें निराशा ही हाथ लगेगी. कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि धरती बचाओ अभियान के नाम पर वैश्विक राजनीति में तालमेल कम नज़र आता है. इस राजनीति से इतर यह पूरा मामला जब हम समझने की कोशिश करते हैं तो तस्वीर बेहद भयावह नज़र आती है. इस पेरिस-कांफ्रेंस में हर देश की कार्बन उत्सर्जन की सीमा तय होनी है, यानि ,कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस के जलने से निकलने वाला धुआं जिसमें कार्बन मौजूद होता है, उसकी मात्रा विभिन्न देशों के लिए क्या हो, इस बात का फैसला हो सकता है!
गौरतलब है कि इस धुएं की वजह से वायुमंडल में एक मोटी परत बनती जा रही है जो साल दर साल मोटी होती जा रही है और धरती उतनी ही ज्यादा गर्म हो रही है. हम सब जानते हैं कि बढ़ता तापमान दुनिया के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि जिस रफ्तार से सभी देश मिलकर कार्बन का उत्सर्जन कर रहे हैं उससे एक आंकलन के अनुसार, 2030 तक धरती का तापमान 2 डिग्री से बहुत ज्यादा हो जाएगा. फिलहाल धरती का मौजूदा तापमान 15.5 डिग्री सेल्सियस है और इसे 17.5 से आगे नहीं बढने देने पर ही सारी वार्ता केंद्रित है. पेरिस जलवायु सम्मेलन में भारतीय पैवेलियन का उद्घाटन करने के समय पीएम मोदी ने साफ़ कहा है कि जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया के लिए चुनौती है, क्योंकि ग्लेशियरों का पिघलना चिंताजनक है. इसके लिए पीएम ने जलवायु परिवर्तन पर तुरंत कार्रवाई की जरूरत पर भी बल दिया है, जिसे सराहा जाना चाहिए. इस कांफ्रेंस के लिए रवाना होने से मात्र एक दिन पहले ही प्रधानमंत्री ने अपने 'मन की बात' कार्यक्रम में भी पूरे देश से जलवायु-परिवर्तन मुद्दे पर चर्चा की, सलाह दी और नयी चुनौतियों से निपटने के उपायों पर भी चर्चा की. मन की बात में पीएम ने कहा कि दुनिया के हर कोने में से लगातार प्राकृतिक आपदा की ख़बरें आया करती हैं, जो गंभीर और गंभीरतम प्रवृत्ति की होती जा रही है. अपने देश का उदाहरण देते हुए पीएम ने स्पष्ट कहा कि पिछले दिनों जिस प्रकार से अति वर्षा, बेमौसमी वर्षा और लम्बे अरसे तक वर्षा, (तमिलनाडु का हालिया उदाहरण) हुई है, उसने व्यापक स्तर पर तबाही मचाई है, कई लोगों की जानें गयीं है. इसके लिए पीएम ने अपने देशवासियों से भी अक्षय ऊर्जा के प्रयोग, प्रदूषण फैलाने से बचने के लिए खेतों को न जलाने और दूसरी अपीलें भी कीं, जिससे धरती को सांस लेने में मदद मिल सके. प्रधानमंत्री की अपील से अलग हटकर भी देखें तो सुनामी, केदारनाथ हादसा, 2005 की तरह मुंबई शहर में बारिश, लेह में बादल फटने की घटना, जम्मू-कश्मीर में पिछले दिनों की भयावह वर्षा जैसी कुछ घटनाओं ने हमारे अस्तित्व को हिलाकर रख दिया है. जाहिर है, खतरा बढ़ रहा है और लगातार बढ़ता ही जा रहा है.
देखना दिलचस्प होगा कि विकसित देश कितने बड़े दिल से वैश्विक कल्याण पर अपना दृष्टिकोण रखते हैं. आखिर, इस बात से कौन इंकार करेगा कि तमाम मुद्दों पर अपने हितों के लिए टांग अड़ाने वाले विकसित देशों को जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भी वास्तविक और जिम्मेदारी भारत रूख अख्तियार करने से ही बदलाव की आश जग सकती है. भारत का रूख बेहतरीन ढंग से पीएम ने बता ही दिया है. प्रधानमंत्री ने सम्मेलन को लेकर कहा है कि यहां जो भी फैसला होगा वह हमारे विकास पर असर डालेगा, इसलिए हमें एक बराबरी का और स्थाई समझौते की उम्मीद है. स्पष्ट उदाहरण रखते हुए पीएम ने कहा कि महात्मा गांधी ने कहा था कि दुनिया में सबकी जरूरतें पूरी हो सकती हैं लेकिन लालच नहीं. उम्मीद की जानी चाहिए कि जरूरत और लालच में फर्क करने में यह सम्मेलन कामयाब रहेगा और अपने 21वें सम्मेलन में यह अपने उद्देश्य के काफी निकट भी आ सकेगा. आखिर, 21 साल में छोटे बच्चे बालिग़ हो जाते हैं और तब वह स्वतंत्र रूप से खुद के हित और नुक्सान को समझकर फैसला कर सकते हैं. यह सम्मेलन भी अब बालिग़ हो गया है, इसलिए समय की मांग है कि द्विध्रुवीय राजनीति से अलग हटकर आम सहमति की राह तलाशी जाय और इसमें निश्चित रूप से विकसित देशों की जिम्मेदारी ज्यादा और महत्वपूर्ण है.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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