इस बात में किसी प्रकार की कोई दुविधा नहीं है कि हमारे संविधान ने भारतीय ढाँचे में निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति को आगे लाने में बड़ी भूमिका का निर्वाह किया है. आज अगर हमारा लोकतंत्र समूचे संसार में गौरव का विषय बना हुआ है तो उसमें भारतीय संविधान की ही भूमिका है. भारी बहुमत से जीतकर सत्ता में आये प्रधानमंत्री मोदी ने अपने कई भाषणों में इन बातों को गर्व से आवाज दी है. वस्तुतः भारत जैसे विविधता लिए हुए देश में अगर किसी कॉमन बात पर लोग सहमत होते हैं, तो वह हमारा संविधान ही है, जिसने कुछ अपवादों को छोड़कर यह सुनिश्चित करने का कार्य किया है कि हमारे राष्ट्र में हर व्यक्ति का अधिकार समान है. किसी से जाति, धर्म, सामाजिक स्थिति के कारण भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए. अपवाद स्वरुप कांग्रेस की इंदिरा सरकार ने आपातकाल के दौरान संविधान को मुल्तवी रखा तो आज भाजपा और उसके मातृ संगठन आरएसएस पर संविधान विरोधी होने की आवाजें कई ओर से उठाई जा रही हैं. इंदिरा गांधी का आपातकाल लगाना तो जगजाहिर है और हमारे लोकतंत्र पर काला धब्बा भी है, किन्तु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर किन तथ्यों के आधार पर आरोप लगाये जाते हैं यह समझ से परे है. कई लोग महात्मा गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे को संघ की विचारधारा से प्रभावित होने का आरोप लगाते रहे हैं, जिसमें संघ पर प्रतिबन्ध भी लगाया गया था, किन्तु यह साबित हो चुका है कि यह एक गढ़ा हुआ झूठ था. इसके बाद मोटे तौर पर 1992 में बाबरी ढांचे के विध्वंश में इस संगठन पर प्रतिबन्ध लगा, किन्तु यह बात भी एक बड़ी बिडम्बना है कि तत्कालीन समय में केंद्र की कांग्रेस सरकार के मुखिया नरसिम्हा राव पर भी इस षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप उतनी ही बेसब्री से चस्पा किये जाते हैं.
हालिया दिनों में जैसे-जैसे संघ मजबूत होता गया और उसकी विचारधारा के लोग भाजपा के माध्यम से सत्ता में पकड़ बनाते चले गए, वैसे वैसे हिन्दू आतंकवाद का तथाकथित शब्द भी गढ़ा गया और विपक्षियों, विशेषकर कांग्रेस द्वारा इस शब्द का जबरदस्त महिमामंडन करने की कोशिश की गयी. इन आरोपों के आधार पर संघ को संविधान विरोधी बताने में कितनी सच्चाई है, इस पर आगे की पंक्तियों में विचार करेंगे, किन्तु इस बात में कोई शक नहीं है कि इन तीन मुख्य घटनाओं को सामने रखकर इस संगठन को संविधान विरोधी बताने की भरपूर कोशिश की जाती रही है और संसद के वर्तमान शीतकालीन सत्र में भी इस बात का प्रयास किया गया. भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने 26 नवंबर को बड़े पैमाने पर संविधान दिवस मनाने का ऐलान क्या किया कि विपक्षियों के कान खड़े हो गए. वैसे भी, मोदी सरकार उन प्रतीक पुरुषों को एक-एक करके बाहर निकाल रही है, जो नेहरू खानदान की छाया में दब गए थे. जाहिर है, आज़ादी के बाद सामने और परिदृश्य के पीछे भी सत्ता को नियंत्रित करने वाली कांग्रेस को यह कोशिश रास कैसे आती. राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने सरकार पर 'बांटो और राज करो' की नीति अपनाकर चलने का आरोप लगाया, तो उन्होंने इस दौरान संविधान निर्माण के रूप में अन्य नेताओं के योगदान की चर्चा न किए जाने पर भी नाराजगी जाहिर की. उन्होंने साफ़ तौर पर पंडित जवाहरलाल नेहरू को अनदेखा किये जाने पर आपत्ति की और इसे देश में चल रही 'सहिष्णुता-असहिष्णुता' की चर्चा से जोड़ दिया और कहा कि संविधान निर्माण में पं. नेहरू के योगदान की अनदेखी करना अहनशीलता है. अब कोई आज़ाद साहब को कैसे समझाए कि उनकी पार्टी ने तो अपने सत्ता के दौर में यही किया ही है, देश भर के स्मारक, डाक टिकट से लेकर हर उस जगह पर इंदिरा-नेहरू खानदान का लेबल चस्पा कर दिया, जिससे देश को एकबारगी राजतन्त्र में होने का अहसास तक होने लगा था!
अब अगर अलग विचारधारा की पार्टी सत्ता में है और अपने अनुसार सिस्टम को परिभाषित कर रही है तो इसमें 'संविधान-विरोधी' होने की बात कहाँ से आ गयी है? शीतकालीन सत्र के पहले दिन सोनिया गांधी ने बड़ी आसानी से सरकार पर आरोप लगा दिया कि 'ये लोग संविधान दिवस मनाने का दिखावा कर रहे हैं, जबकि असलियत में ये लोग संविधान पर खतरा हैं!' सोनिया गांधी की यह बातें कितनी सतही हैं, यह इसी से अंदाजा लग जाता है कि पिछले आम चुनाव में वंशवाद एक बड़ा मुद्दा बना था और कांग्रेस की आज तक की सबसे बुरी हार में इस मुद्दे का बड़ा योगदान भी था, बावजूद उसके क्या कांग्रेस नेतृत्व पर जरा भी आंच आयी? क्या लोकसभा चुनाव में हार की जिम्मेदारी तय करते हुए राहुल या सोनिया ने पार्टी में लोकतंत्र को घुसने दिया? आखिर, कौन नहीं जानता है कि कांग्रेस पार्टी में लोकतंत्र का एक ही मतलब है और वह है 'नेहरू-गांधी' के वंशजों की चरण-पादुका उठाते रहना! क्या यही संविधान की मूल भावना है? जहाँ तक संघ और भाजपा का सवाल है तो अभी हाल ही हमने देखा कि केंद्र और कई राज्यों का चुनाव जीतने के बावजूद, बिहार में हार पर किस प्रकार प्रधानमंत्री मोदी और उनके सबसे मजबूत सिपहसालार अमित शाह के खिलाफ आवाजें उठी थीं! शाह को तो हटाने तक की मांग होने लगी थी! संविधान ने लोकतंत्र का जो पैरामीटर तय किया है, वह चुनाव ही तो है और इस पैरामीटर पर कांग्रेस पार्टी संविधान की घोर विरोधी ही दिखती है, क्योंकि उसका हर एक फैसला 'हाई-कमांड' कल्चर से ही तय होता आया है. राज्यों के चुनाव में कोई जीते, कोई हारे, किन्तु होगा वही जो हाई-कमांड चाहेगा! कुछ लोग संघ पर भी इस तरह के हाई-कमांड कल्चर होने का आरोप लगा सकते हैं, किन्तु एक तो ऐसा है नहीं, और अगर ऐसा है भी तो संघ के तमाम पदाधिकारी लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं का पालन करके ही शीर्ष स्तर पर पहुँचते हैं, न कि किसी विशेष परिवार की चरण-पादुका उठाकर.
इस संगठन के आतंरिक स्ट्रक्चर को समझने वाले जानते हैं कि किस प्रकार एक स्वयंसेवक से होते हुए, प्रचारक और इसी क्रम में लोग ऊपर उठते हैं और इस पूरी प्रक्रिया में तालमेल, अनुशासन, देशभक्ति, भारतीय संस्कृति के गहन अध्ययन का विशेष ध्यान रखा जाता है. अब यह उनका दोष तो नहीं हो सकता कि वह उन बातों पर भी विचार करते हैं कि भारत क्यों 'सोने की चिड़िया' या 'विश्वगुरु' था और क्यों वह हज़ारों साल तक मुस्लिम-शासकों द्वारा गुलाम बना रहा! संघ को इस बात के लिए तो दोषी नहीं ठहरा सकते हैं न कि वह लोगों का ध्यान इस तरफ मजबूती से दिलाता है कि किस प्रकार तलवार के दम पर इस्लाम का जबरन प्रसार किया गया और किस प्रकार ईसाई मिशनरियाँ साजिशन लोगों को भारतीयता से विमुख करती हैं? संघ को क्या इसलिए संविधान विरोधी कह देना चाहिए कि वह भारत-बंटवारे के कारणों, कांग्रेस की तुष्टिकरण नीतियों की याद दिलाते हैं? वह लोग शादीशुदा तक नहीं होते और पूरा देश भ्रमण करते हैं, वर्तमान हालात को सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से अध्ययन करते हैं. अब सोचने वाली बात है कि अगर कोई एक पार्टी जाति या धर्म की राजनीति करती है तो क्या संघ और भाजपा वाले वहां साधु बन जाएँ? अगर राजनीति करने के लिए किसी संगठन को संविधान विरोधी होने का पैमाना बनाया जाय तो फिर कांग्रेस के ऊपर ज्यादे संगीन आरोप चस्पा हैं. इसके अलावा, कई लोग संघ पर अपारदर्शी एवं महिला विरोधी होने का, ब्राह्मणवादी होने का, आरक्षण विरोधी होने का आरोप लगाकर उसके रूख को संविधान विरोधी बताते हैं. इस क्रम में ब्राह्मणवादी होने का आरोप आधारहीन और मनगढंत ही है तो बदलते समय में संघ को पारदर्शिता और महिला-नेतृत्व पर ध्यान देने की आवश्यकता जरूर है. चूँकि, लोग अब शिक्षित हो रहे हैं, जानना चाहते हैं, व्यवस्था और समाज को स्पष्ट रूप से समझना चाहते हैं. बदलते समाज में महिलाओं का रोल निश्चित रूप से बदला है और वह समाज कतई विकसित नहीं हो सकता, जहाँ महिलाओं की सक्रीय भागीदारी की बात न की जा सके! जहाँ तक आरक्षण की बात है तो, खुद संविधान में भी इसे अस्थायी ही कहा गया है, इस बात का जवाब किसे पता नहीं है!
इस क्रम में समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने संविधान में बार-बार किए जा रहे संशोधनों को एक ‘साजिश’ बताते हुए सरकार से यह स्पष्टीकरण देने की मांग की है कि क्या वह आरक्षण के मामले में संविधान की समीक्षा करेगी जैसा कि आरएसएस प्रमुख ने मांग की है? अब उन्हें कौन बताये कि संविधान की समीक्षा पहले भी होती रही है और भविष्य के लिए इसे जड़ नहीं किया जा सकता है. इस पूरे प्रकरण में लोकसभा में संविधान और उसकी रक्षा को लेकर सरकार द्वारा दिया गया बयान उद्धृत करना उचित रहेगा. डा. बी आर अम्बेडकर की 125वीं जयंती वर्ष में 'संविधान के प्रति प्रतिबद्धता' पर शुरू हुई चर्चा को आगे बढ़ाते हुए संसदीय कार्य मंत्री एम वेंकैया नायडू ने स्पष्ट कहा कि 'सेक्युलर शब्द संविधान में था, संविधान में है और संविधान में रहेगा.' इस बारे में विपक्ष के आरोपों को पूरी तरह से बेबुनियाद बताते हुए नायडू ने यह भी कहा कि 'आज संविधान को कोई खतरा नहीं है, कोई गिरफ्तारियां (नेताओं की) नहीं हो रही हैं, जजों के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं किया जा रहा है. जाहिर तौर पर उनका इशारा 'कांग्रेसी आपातकाल' की ओर भी रहा होगा. इस चर्चा में प्रधानमंत्री मोदी का दृढ कथन भी गौर करने लायक है. लोकसभा में संविधान पर चर्चा करते हुए पीएम ने कहा कि हमारा रास्त सहमति का होना चाहिए और अधिकारों के साथ कर्तव्यों पर भी लोग ध्यान दें. संविधान में अनावश्यक छेड़छाड़ पर उन्होंने जोर देकर कहा कि संविधान बदलना आत्महत्या करने जैसा है. अब इन सबके बावजूद अगर कांग्रेस समेत विपक्षी दलों के पेट में बल पड़ते हैं तो इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा. वक्त की मांग है कि जाति, धर्म के मुद्दे को सामाजिक रूप से सुलझाया जाय और इसे राजनीति से अलग रखा जाय तो राजनीति में महिलाओं समेत सभी वर्ग को सक्रीय भागीदारी प्रदान किया जाए और इन सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि संविधान की मूल भावना समझते हुए हर पार्टी, संगठन में प्रत्येक स्तर पर लोकतंत्र को आगे बढ़ाने का कार्य किया जाए. डा. बी आर अम्बेडकर की 125वीं जयंती वर्ष में इससे बेहतर कोई और बात क्या हो सकती है!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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