रानी लक्ष्मीबाई पुरस्कार (2012) भारत के राष्ट्रपति के द्वारा सम्मानित होने के बावजूद, राष्ट्रपति द्वारा ही राष्ट्रीय महिला आयोग के नए भवन ‘’निर्भया भवन’’ की आधारशिला रखे जाने के बावजूद और इंटरनेशनल वुमन ऑफ करेज अवार्ड, 2013 अमेरिका द्वारा सम्मानित किये जाने के बावजूद 'निर्भया' शब्द आज भी मस्तिष्क में उतनी ही तेजी से और उसी भाव से गूंजता है, जितनी तेजी से 'उस दिन' गूंजा था. सोचने पर मजबूर होकर यह कहना पड़ता है कि पिछले तीन साल में आखिरकार, कुछ भी तो नहीं बदला है? सोलह दिसंबर 2012 की सामूहिक बलात्कार की दर्दनाक घटना के मामले में सबसे जघन्य दोषी किशोर की रिहाई का रास्ता भी अब पूरी तरह साफ़ हो गया है, क्योंकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मामले में हस्तक्षेप से इंकार करते हुये कहा कि कानून के वर्तमान प्रावधानों के तहत उसे रिहा होने से नहीं रोका जा सकता. अगर उच्चतम न्यायालय रोक नहीं लगाता है तो अब 20 साल के हो चुके दोषी के 20 दिसंबर को तीन साल की सजा पूरी करने के बाद सुधार गृह से बाहर आने की पूरी उम्मीद बन गयी है. कोर्ट के इस फैसले के बाद 'निर्भया' की मां जहाँ, फूट-फूटकर रोने लगीं और कोर्ट से बाहर आने के बाद उन्होंने कहा, 'मेरी बेटी के साथ न्याय नहीं हुआ.' उसकी रिहाई के खिलाफ लोगों का आक्रोश खारिज करते हुए उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश जी रोहिणी और न्यायमूर्ति जयंत नाथ की पीठ ने किशोर न्याय बोर्ड को उसके ‘‘पुनर्वास एवं सामाजिक मुख्यधारा में लाने’’ के संबंध में दोषी, उसके माता पिता और महिला एवं बाल विकास विभाग के संबंधित अधिकारियों से बात करने का निर्देश दिया है. इस फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए केन्द्र सरकार के वकील अनिल सोनी ने कहा, ‘‘एक बार फिर दिल्ली का आतंक राष्ट्रीय राजधानी की सड़क पर घूमेगा, क्योंकि दुर्भाग्य से राज्यसभा ने गंभीर अपराध में शामिल किशोर की सजा बढ़ाने वाला किशोर न्याय अधिनियम का संशोधन विधेयक पारित नहीं किया.’’ सवाल है कि यहाँ न्यायालय फैसला बेशक आ गया है, किन्तु उस फैसले से ऐसा प्रतीत होता है कि खुद कोर्ट भी उहापोह की स्थिति में है.
इस सन्दर्भ में, उच्च न्यायालय ने कहा कि कानून तोड़ने वाले किशोरों के सुधार के मुद्दे पर गंभीर विचार की जरूरत है और उन्होंने आठ हफ्तों में इस मुद्दे पर केन्द्र तथा दिल्ली सरकार से जवाब भी मांगा है. इस फैसले में जो एक और महत्वपूर्ण पक्ष आया वह था दिल्ली महिला आयोग का, जिसमें उसने कहा कि इस मामले के दोषी किशोर की रिहाई पर रोक लगाने से उच्च न्यायालय का इंकार इतिहास का ‘‘काला दिन’’ है और वह उसकी रिहाई के खिलाफ अपील करेगा. इस पूरे मामले को गौर से देखने पर सबसे बड़ा सवाल यही उठता है कि पिछले तीन सालों में हमने आखिर किया क्या? सरकार के स्तर पर, संगठनों के स्तर पर और सबसे बढ़कर व्यवहारिकता में क्या वाकई हम कुछ भी परिवर्तन ला सके हैं? बड़े ज़ोर शोर से जुवेनाइल कानून में बदलाव की बात कही गयी थी, किन्तु नतीजा आज भी जस का तस है. अगर शीर्ष स्तर पर ही बदलाव को लेकर इतनी उहापोह है तो निचले स्तर पर बदलाव की उम्मीद भला किस प्रकार की जा सकती है? 16 दिसम्बर की घटना के बाद जहाँ पूरे देश में जागरूकता बढ़ने की बात की गयी थी, वहीं कुछ हद तक महिलाएं भी अपने प्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने में आगे आईं. इस घटना के बाद उषा मेहरा कमिशन का गठन हुआ, जिसने सुरक्षा जैसे मुद्दों पर तमाम जिम्मेदार विभागों में संवाद की कमी और इसे कैसे दूर किया जाय से संबंधित अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तो महिला बाल विकास मंत्रालय ने महिला सुरक्षा के लिए 24 घंटे हेल्प लाइन नंबर की शुरूआत की. अन्य प्रयासों में मिनिस्ट्री ऑफ आईटी ने महिला सुरक्षा से कई गैजट बनाने की शुरूआत की तो सरकार ने महिला बैंक की शुरूआत की थी. सरकार ने इसी घटना के बाद निर्भया फंड की शुरूआत की और तमाम राजनीतिक दलों के अजेंडे में महिला सुरक्षा पर भी फोकस करने की बात कही गयी थी. दिल्ली सरकार ने हेल्पलाइन नंबर 181 शुरू किया था. पर इन तमाम जद्दोजहद के बावजूद अगर हम खुद से पूछते हैं कि निर्भया-कांड के बाद आज उसकी माँ को क्यों फूट-फूट कर रोना पड़ा तो तस्वीर काफी हद तक खुद-ब-खुद समझ आ जाएगी?
इस घटना के मुख्य आरोपी राम सिंह ने तिहाड़ जेल में आत्म-हत्या कर लिया तो विशेष तौर पर गठित त्वरित अदालत के द्वारा चारों वयस्क दोषियों को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी, लेकिन बावजूद इसके आज प्रश्न उठता ही है कि क्या आज भी रेपिस्टों के मन में जरा भी डर है इस जघन्य अपराध को करने से? ऐसा लगता है कि पूरी प्रक्रिया ही धीमी पड़ गयी है और हम फिर आज वहीं खड़े हैं, जहाँ कल खड़े थे. महिला सुरक्षा पर कल भी वहीं थे हम और आज भी वहीं खड़े हैं, ऐसे में पूरी प्रक्रिया में गंभीर खामी से भला कहाँ इंकार हो सकता है. जरूरत है, इन समस्याओं पर समग्र रूप में ध्यान देने की ताकि, निर्भया जैसी लडकियां फिर दुश्चक्रों का शिकार न हों.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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