मार्च 1993 में मुंबई में एक के बाद एक हुए 12 धमाके हुए थे. इन धमाकों में 257 लोग मारे गए थे और 700 से ज़्यादा लोग ज़ख्मी हुए थे. इस केस में कई लोगों पर मुकदद्मे दर्ज हुए, जिनमें दाऊद इब्राहिम और टाइगर मेमन मुख्य थे. मेमन को छोड़कर बाक़ी 10 दोषियों की फांसी की सज़ा को उम्रकैद में बदल दिया गया था और अब टाइगर के भाई याकूब को एक लम्बे इन्तेजार के बाद फांसी के तख्ते पर लटकाने का आखिरी फैसला हो चूका है. 'क्यूरेटिव पिटीशन', न्यायिक शब्दावली में बेहद कम लोगों ने सुना होगा. आखिर सुनें भी कैसे, क्योंकि यह शब्द 2002 में रुपा अशोक हुरा मामले की सुनवाई के दौरान इस्तेमाल हुआ जब ये पूछा गया कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा दोषी ठहराये जाने के बाद भी क्या किसी आरोपी को राहत मिल सकती है? थोड़ा और स्पष्ट किया जाय तो, क्यूरेटिव पिटीशन तब दाखिल किया जाता है जब किसी मुजरिम की राष्ट्रपति के पास भेजी गई दया याचिका और सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी जाती है. ऐसे में क्यूरेटिव पिटीशन उस मुजरिम के पास मौजूद अंतिम मौका होता है जिसके ज़रिए वह अपने लिए सुनिश्चित की गई सज़ा में दया की गुहार लगा सकता है. अब आते हैं याकूब मेमन की फांसी की सजा पर! 1993 में हुए मुंबई बम धमाकों के मामले में दोषी क़रार दिए गए याक़ूब मेमन की क्यूरेटिव पीटिशन को सुप्रीम कोर्ट ने अब 2015 में ख़ारिज कर दिया है. साल 2007 में टाडा कोर्ट ने 53 वर्षीय याक़ूब मेमन को धमाकों की साजिश में शामिल होने का दोषी पाते हुए फांसी की सज़ा दी थी. सवाल यह है कि इस फैसले में कुछ ज्यादे ही देरी नहीं हो गयी क्या ? या फिर ठीक समय से यह फैसला आया है? 25 सालों में एक पूरी की पूरी पीढ़ी बदल जाती है और इस बदली हुई पीढ़ी को हम भला कैसे समझा पाएंगे कि 'याकूब मेमन' को फांसी क्यों दी जा रही है! चलिए, इनको हम जैसे तैसे, मीडिया कवरेज से थोड़ा बहुत समझा भी लें, या फिर यह पीढ़ी इंटरनेट-सर्च से जानकारी जुटा भी ले तो यह 1993 के अपराध की भयावहता को किस प्रकार महसूस कर पायेगी? या फिर इन्हें 'महसूस' करना जरूरी नहीं है? इस पीढ़ी की बात को भी एकबारगी छोड़ दीजिये, लेकिन उस भयानक बम-काण्ड की भयावहता महसूस करने वालों में अधिकांश तो न्याय की आस में मर -खप गए होंगे, उनका क्या? उनमें कइयों की अंतिम इच्छा जरूर रही होगी कि इस कांड के अपराधियों को सजा मिलते देखें? खैर, वह लोग आकाश में तारे बनकर 'याकूब मेमन' को फांसी चढ़ते देख कुछ तो खुश होंगे ही, लेकिन इस काण्ड के मुख्य आरोपियों में से एक 'दाऊद इब्राहिम' को खुला घुमते देख उनकी आत्मा तो और दुखी हो जाएगी. याकूब मेमन की फांसी बड़ी शिद्दत से यह याद दिलाती है कि 'दाऊद इब्राहिम' हमें आज भी चिढ़ा रहा है और हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं. हमारी सुरक्षा को भेदकर हमें घायल करने का ज़ख्म, वगैर दाऊद इब्राहिम को पकडे भला किस प्रकार भरेगा, यह समझ से बाहर की बात है. आश्चर्य है कि आज 'सुपरपावर' बनने की ओर हम कदम बढ़ा रहे हैं, लेकिन दूसरी ओर हमारे ऊपर हमला करने वाले अपराधियों को पकड़ने में हम मजबूर हैं! यदि उन्हें जैसे-तैसे पकड़ भी लिया, तो उन्हें सजा देने में 25 साल लगा देते हैं. यह कुछ ऐसा ही है कि किसी जोड़े की शादी तो जवानी में हो जाय, किन्तु हनीमून जवानी बीतने के बाद मने. याकूब मेमन की फांसी पर तमाम तरह की बातें होंगी, अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के नजरिये से भी इसे देखा जाएगा, कुछ लोग दाऊद को न पकड़ने की असफलता के रूप में इसे देखेंगे, तो कुछ लोग न्यायपालिका द्वारा एक अपराधी को सजा देने में 25 साल लगा दिए गए, इस रूप में देखेंगे. आंकड़े कहते हैं कि यदि सजा देने में बहुत ज्यादे देर की जाती है तो, उस सजा का सामाजिक प्रभाव समाप्त हो जाता है और अपराधियों में भय उत्पन्न होने की बजाय 'दुःसाहस' की ही बृद्धि होती है. आंकड़ों की बात हो रही है तो लगे हाथ एक और न्यायिक आंकड़े को भी देख लिया जाना चाहिए. अपनी तरह के पहले शोध में पिछले 15 सालों में मौत की सजा पाए 373 दोषियों के इंटरव्यू के डेटा को स्टडी किया गया और यह पाया गया कि इनमें 75 फीसदी लोग आर्थिक रूप से कमजोर तबके से थे. यह बात किसी तरह छिपी नहीं है कि गरीब लोगों को हमारी अदालतों से कठोर सजा इसलिए मिलती है, क्योंकि वे अपना केस लड़ने के लिए काबिल वकील नहीं कर पाते. नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी से स्टूडेंट्स ने लॉ कमिशन की मदद से यह स्टडी की है. अब जबकि एक बड़ा न्यायिक फैसला, याकूब मेमन की फांसी के रूप में सामने आया है तो पिछले दिनों प्रभावशाली फिल्म अभिनेता सलमान खान को मिली बहुचर्चित ज़मानत का ज़िक्र करना भी जरूरी हो जाता है. आम तो आम, बल्कि ख़ास लोगों ने भी सलमान खान को हाई कोर्ट द्वारा मिली ज़मानत पर कठोर प्रतिक्रिया दी और गरीबों के पक्ष में भी न्यायिक प्रक्रिया को उसी रफ़्तार से लागू करने की अपील की. याकूब मेमन को फांसी के फैसले, हमें कई अन्य पक्षों पर भी विचार करने को मजबूर करते हैं, जिनमें अधिकांशतः न्यायिक सुधारों से ही जुड़े विषय हैं. दुःख की बात यह है कि समग्र न्यायिक सुधारों की बात कौन कहे, अभी हमारा सिस्टम जजों की नियुक्ति जैसे शुरूआती विषय पर ही अँटका हुआ है. न्यायिक देरी, फांसी रहे या हटे, आम जनमानस को बराबर कानूनी सुविधा जैसे विषय पर चर्चा किस दशक या सदी में होगी, यह तो मात्र ईश्वर ही बता सकता है!
- मिथिलेश, नई दिल्ली.
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