जब समाज में उलझन पैदा होती है तब समझना मुश्किल हो जाता है कि आखिर किसकी सुनें और किसकी न सुनें. लोग ऐसे समय बेहद संवेदनशील हो जाते हैं और दिमाग के बजाय दिल से फैसला लेते हैं, जिसमें पुराने तमाम ज़ख्म नकारात्मक रोल प्ले करते हैं. ऐसी स्थिति में जो चतुर लोग होते हैं, वह लोगों की भावनाओं से जमकर खिलवाड़ करते हैं ताकि कम मेहनत में उनका राजनीतिक लाभ कई गुना हो जाए. ऐसे तमाम उदाहरण आपको मिल जायेंगे, जिसमें किस तरह जनता को जलाकर, लड़ाकर राजनेताओं ने अपनी मंजिलें तय की हैं. जब निष्ठाएं बंट जाएँ और लोग अपना अपना हथियार लेकर एक दुसरे के खिलाफ खड़े हो जाएं तो सही लोगों का अकाल पड़ जाता है, जो न्याय की बात कहे तो सही! वर्तमान में, देश में चल रही तमाम बहस के बीच इस लिहाज से अगर सबसे सार्थक और सकारात्मक स्टेटमेंट की बात की जाय तो, सलीम खान का रूख सबसे ऊपर नजर आएगा. इनटॉलरेंस या असहिष्णुता की बात करें तो पक्ष और विपक्ष से रोज कोई न कोई बयान आ रहा है, लेकिन आश्चर्य की बात है कि उनमें से अधिकांश स्तरहीनता के नए-नए रिकॉर्ड गढ़ रहे हैं. हालाँकि, यह भी विरोधी बात है कि अधिकांश बयान पढ़े लिखे और तथाकथित 'बुद्धिजीवी' लोगों द्वारा ही दिए जा रहे हैं. इन तमाम बयानों से कुछ और सधे न सधे, लेकिन साफ़ तौर पर राजनीति की गंध महसूस की जा रही है. हाँ! देश के ताने-बाने की चिंता कितने लोगों को है, इसका साफ़ तौर पर विभाजन दिख रहा है. चूँकि यह मामला कई दिनों से चल रहा है, इसलिए पृष्ठभूमि की जानकारी सबको हो ही चुकी है. भाजपा नेता तो खैर इस मामले में बदनाम किये ही जाते रहे हैं, लेकिन खुद को सहिष्णु कहने वाले उन तमाम लोगों की भी पोल खुली है, जिनमें कइयों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट के बीच का फर्क ही पता नहीं है.
इन तमाम लोगों की राष्ट्रभक्ति में अगर हाफिज सईद जैसे अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी को बयानबाजी का मौका मिल जाए तो सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि वाकई हो क्या रहा है. खैर, इन सबके बीच संतुलित, पक्षपातरहित बयान सलीम खान का आया, जिसे सलाम किया ही जाना चाहिए. आप अगर सच में ईमानदार हैं तो उनके हालिया बयान के विभिन्न हिस्सों से खुद-ब-खुद सहमत हो जायेंगे. एक अंग्रेजी अखबार को दिए इंटरव्यू में सलीम ने साफ तौर पर कहा- ‘‘प्रधानमंत्री मोदी कतई कम्युनल नहीं हैं और मुस्लिमों के रहने के लिए पूरी दुनिया में भारत से अच्छा देश हो ही नहीं सकता. अगर मुसलमान इस देश में रहना चाहते हैं तो उन्हें देश और इसके कल्चर की इज्जत करनी होगी.” अब इससे बड़ी और स्पष्ट बात दूसरी क्या होगी, जिसे कहने में तथाकथित सेक्युलर लोगों को दिन में चाँद-तारे नजर आने लगते हैं. अपने स्टेटमेंट की व्याख्या करते हुए सलीम खान ने आगे कहा कि मैं मुसलमानों से पूछना चाहता हूं कि क्या वे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक या ईरान में जाकर रहना पसंद करेंगे? अगर भारत ही वह अकेला देश है, जहां आप रहना चाहते हैं, क्योंकि आपको यही घर लगता है तो देश और इसके कल्चर का सम्मान कीजिए. सलीम खान ने इस सन्दर्भ में बाकायदा उदाहरण भी दिया और कहा जम्मू-कश्मीर के विधायक इंजीनियर रशीद ने बीफ पार्टी देकर बेहद गलत हरकत की, जबकि वे जानते थे कि बीफ खाना गैरकानूनी है. यह तो लोगों को भड़काने का काम है, इसलिए उनके लिए मेरे मन में कोई सहानुभूति नहीं है! सलीम खान की बात अपनी जगह है, लेकिन अगर तथाकथित सेक्युलर लोगों का समूह सिर्फ इतनी बात ही ज़ोर देकर कह दे तो फिर हिन्दू-मुसलमान की काफी समस्याएं खुद-ब-खुद हल हो जाएँगी!
आखिर, मुग़ल काल से लेकर, अंग्रेजी शासन और फिर आज तक 'गोमांस' पर विवाद हुए हैं तो हुए हैं... यह सच्चाई है. अब आप तुलना कीजिये रशीद की बीफ पार्टी, काटजू के बयान, कांग्रेस के जयराम रमेश के परिवार के बीफ खाने वाले बयान को या कर्णाटक के मुख्यमंत्री द्वारा बीफ खाने की बात को! क्या सच में 80 करोड़ हिन्दुओं की भावनाओं से खिलवाड़ किया जाना चाहिए? यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसको कुछ पल के लिए दबाया जा सकता है, इग्नोर किया जा सकता है, लेकिन हिन्दू आस्थाओं के नाम पर छुटभैये भी इस पर बवाल कर सकते हैं ... यह अटल सत्य है. अगर भारत की जनता को कोई इतना भी नहीं समझ पाया तो उसे न केवल मुर्ख कहा जाना चाहिए, बल्कि असामाजिक भी वह स्वयंसिद्ध है. खैर, सलीम खान की इस सन्दर्भ में आगे भी कही गयी बातें बेहद व्यवहारिक और बंद-दरवाजे खोलने वाली हैं. कुछ लेखकों और कलाकारों द्वारा लौटाए गए पुरस्कारों का समर्थन करते हुए सलीम ने यह भी कहा कि “इस बात को मान लेना चाहिए कि कहीं न कहीं प्रॉब्लम तो है और इसे आपसी बातचीत से हल किया जाना चाहिए. जिन लोगों ने अवॉर्ड लौटाए हैं, वे पढ़े-लिखे और समझदार लोग हैं, उनकी बात सुनी जानी चाहिए और सरकार में बैठे लोगों को प्रॉब्लम का हल खोजना चाहिए.” हालाँकि, सलीम ने यह भी कहा कि “जो लोग अवॉर्ड वापस कर रहे हैं, उनसे मैं कहना चाहूंगा कि वे ऐसा करने से पहले एक बार सरकार को लिखें, बजाए इसके कि बिना बातचीत किए पुरस्कार वापस कर दें. सलीम खान की दूसरी टिप्पणियाँ भी इस सन्दर्भ में काफी वाजिब हैं, जिसमें उन्होंने ठीक ही कहा कि 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के दौरान कुछ ऐसे लोग भी जीत गए जो कम पढ़े-लिखे हैं और जिन्हें पार्लियामेंट के काम और लोकतंत्र का मतलब ही पता नहीं है. ऐसे ही लोग गलत बातों को बढ़ावा दे रहे हैं. मोदी का सपना बड़ा है, वे खुद इन चीजों से परेशान होंगे।
मोदी ने मुसलमानों के लिए कई स्कीम लॉन्च की है, मदरसों के लिए ‘तालीम की ताकत’ स्कीम शुरू की गई है. अगर किसी को इस पूरे मुद्दे में किसी प्रकार की ग़लतफ़हमी हो तो उसे सलीम खान की कही गयी बातों को बार-बार पढ़ना चाहिए और बयानबाजी करने वाले, पुरस्कार वापसी करने वालों को लोकतंत्र को हानि पहुँचाने से बचना चाहिए. सलीम खान की बातों से थोड़ा आगे जाकर सोचें तो इस तरह की गलतबयानी न केवल कम पढ़े लिखे लोग कर रहे हैं, बल्कि पढ़े लिखे कहीं ज्यादा गंभीर बयानी कर रहे हैं. अब जबकि संघ की भाजपा की सरकार हैं, स्वयंसेवक प्रधानमंत्री हैं ... और अगर फिर भी पाञ्चजन्य में अगर यह कहा जाय कि जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) राष्ट्रविरोधी ताक़तों का अड्डा हैं तो इन बातों पर सवाल उठाया ही जाना चाहिए. इसके पक्ष में तमाम तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन सवाल यही हैं कि कानून क्या कर रहा हैं? यही हालत वरिष्ठ इतिहासकार कहे जाने वाले इरफ़ान हबीब की भी रही, जब उन्होंने केंद्र सरकार की आलोचना करते हुए कहा कि इस वक़्त की सरकार की बागडोर आरएसएस के हाथ में है और संघ और इस्लामिक स्टेट में कोई फर्क नहीं हैं. अब प्रश्न यही है पढ़े लिखों, समझदारों, इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों और अनपढ़ों में क्या फर्क है? जरूरी है कि यह तमाम लोग बड़े बुद्धिमान हैं, लेकिन फिलहाल वह सलीम खान की बातों पर गौर करें और लोकतंत्र पर रहम करें.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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