हां! उसके दोस्त उसे यही कहते थे. सुरेन्द्र नाम था उसका. धीर-गंभीर व्यक्तित्व, शांति से बात करने वाला, मजबूत तर्कों का स्वामी और सटीक आंकलन उसके खूबियों में शुमार थे. गाँव की चुनावी चौपाल से उसने राजनीतिक गुणा-गणित सीखा था, उसके बाद देश की राजधानी दिल्ली में कई पत्र-पत्रिकाओं में उसके राजनीतिक लेख छपने लगे थे. हालाँकि उनकी पहुँच कम ही थी, पर उसके लेखन पर प्रतिक्रियाओं का अम्बार लग जाता था. डाक से, ईमेल से और कई बार फोन पर उसकी समझ के कद्रदान मिलने लगे थे.
स्वभाव से विचारक लोगों में 'व्यवस्था से छेड़छाड़' का जो रोग होता है, वह उसे भी था. तब देश भर में भ्रष्टाचार को लेकर छोटे-मोटे आंदोलन चल रहे थे. सुरेन्द्र भी उन आन्दोलनों से जुड़ गया और उसकी तीक्ष्ण बुद्धि ने उसे टेलीविजन की चर्चाओं में बिठा दिया. टेलीविजन पर बेहद सार्थक एवं आदर्श ढंग से अपने तर्क द्वारा वह विरोधियों को भी मंत्रमुग्ध कर देता था. कई गलत सही, महत्वाकांक्षी लोग भी उसके संपर्क में आते रहे और उसे प्रभावित करने की कोशिश करते रहे, किन्तु विचारक वह मजबूत था. आन्दोलनों से सरकार के खिलाफ माहौल बनने लगा और सरकार गिर गयी.
हमारे देश में जब भी आंदोलन होते हैं, उसकी परिणति राजनैतिक उद्देश्यों पर ही जाकर रूकती है. आंदोलन के एक दुसरे महत्वाकांक्षी नेता रामशरण की ज़िद्द से इस आंदोलन के बाद भी "जन-जन पार्टी" का गठन हुआ. हालाँकि सुरेन्द्र को सीधी राजनीति के बजाय परदे के पीछे रहकर 'चाणक्य' की भूमिका निभानी ज्यादा पसंद थी, लेकिन रामशरण ने उसे समझते हुए कहा कि देश को तुम्हारे जैसे चाणक्य की ही जरूरत है. आखिर, हमें और तुम्हें ही तो देश की भावी पीढ़ी के लिए विकल्प तैयार करना है, वर्तमान की व्यक्तिवादी राजनीति व भ्रष्टाचारी उम्मीदवारों से देश को भला कौन मुक्त करायेगा और वैसे भी तुम "जन-जन पार्टी" को अंदर से मजबूत करना और तुम्हारी चाणक्य नीतियों पर हम कार्यकर्त्ता संगठन खड़ा करेंगे.
कुछ देश-प्रेम, कुछ हालात और कुछ मानवीय कमजोरियों के कारण सुरेन्द्र भी जन-जन पार्टी के संस्थापक सदस्यों में शामिल हो गया. तमाम उतार चढ़ावों में सुरेन्द्र अपनी पार्टी के लिए जुटा रहा. मीडिया, कार्यकर्त्ता, दानकर्ता जैसे विभिन्न कार्यों को प्रबंधित करने का कार्य सुरेन्द्र ही के पास था. आंदोलन के प्रभाव से जन-जन पार्टी सत्ता में आ गयी और रामशरण पदासीन हो गया. पद पर आते ही रामशरण को सुरेन्द्र की बातें खलने लगीं. उसकी आदर्श चुनावी रणनीति और नेताओं की परख में उसे खोट नजर आने लगा. रामशरण सत्ता के मद में लोकतंत्र, भ्रष्टाचारियों से सम्बन्ध जैसे पार्टी-विरुद्ध सिद्धांतों से भी मुंह मोड़ने लगा. सत्ता आने पर उसके इर्द-गिर्द स्वाभाविक रूप से दलाल इकट्ठे हो गए, जो उसकी जी-हजूरी में लगे रहते. सत्ता और आदर्श में भला कब मित्रता रही है, जो आज रहती. आखिर, दोनों में बातचीत तक बंद होने की नौबत आ गयी. फिर एक दिन सुरेन्द्र पर यह आरोप लगाया गया कि वह पार्टी के खिलाफ बगावत को हवा दे रहा है. उसको 'जन-जन पार्टी' से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
फर्श से अर्श तक जिस पार्टी को पहुँचाने में उसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान रहा, उस पार्टी से निकाले जाने पर सुरेन्द्र अपने उपनाम 'चाणक्य' पर विचार कर रहा था कि एक चाणक्य वह थे, जिन्होंने भारतवर्ष को एक ध्वज के नीचे लाने में भूमिका निभाई थी, और मैंने.... ??
क्या तीक्ष्ण बुद्धि भर का होना ही मुझे चाणक्य बना सकता है या उद्देश्यों की समझ भी इसमें शामिल है?
तमाम राजनीतिक समीकरणों को देखते ही समझने वाले सुरेन्द्र के पास इन प्रश्नों का जवाब नहीं था.
घर पहुंचकर सबसे पहले उसने 'चाणक्य - नीति' की किताब उठायी...
'चाणक्य' का मतलब उसे एक बार फिर जो समझना था ... !!
- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'
Meaning of Chankya, Short Story in Hindi by Mithilesh
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