प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुछ दिनों से 'घरेलु गैस' के ऊपर सब्सिडी छोड़ने की ज़ोरदार अपील कर रहे हैं. देश के विकास के लिए चिंतित हमारे पीएम इस अपील को कई कई बार दोहरा चुके हैं. हालाँकि, देश की संसद के सदस्य और खुद भाजपा से जुड़े नेता भी इस अपील पर कितना ध्यान दे रहे हैं, यह देखने वाली बात है. सब्सिडी छोड़ने की बात आयी तो, प्रत्येक मुद्दे की तरह सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा होनी स्वाभाविक ही थी. बात होते - होते किसी ने संसद के कैंटीन में मिल रही जबरदस्त सरकारी सब्सिडी (80 फीसदी से भी ज्यादा) पर चर्चा छेड़ दी, यह मुद्दा भी गरम हो गया और लोग प्रधानमंत्री से संसद-कैंटीन को दी जा रही सब्सिडी रद्द करने की मांग करने लगे. इस से सम्बंधित समिति के एक सांसद ने तो कह दिया कि 'सांसदों' के पेट पर लात नहीं मारने दिया जायेगा, जबकि हमारे समझदार प्रधानमंत्री ने अब चुप रहना सीख ही लिया है, इसलिए उन्होंने दोबारा सब्सिडी के मुद्दे पर अपना मुंह नहीं खोला. खैर, यह तो एक बात थी, लेकिन दूसरी मुख्य बात यह है कि गोरखपुर से भाजपा-सांसद योगी आदित्यनाथ की अगुवाई वाली एक समिति ने सांसदों के वेतन और पूर्व सांसदों की पेंशन में भारी बढ़ोतरी की सिफारिश कर दी. अब लोगों के जले पर नमक तो पड़ना ही था, क्योंकि लगभग हर तरह की सुख - सुविधा और पावर के साथ चलने वाले लोग भी सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ डालने को तत्पर रहेंगे तो देश में बाकी भूखों का क्या होगा? अभी हाल ही में आयी एक अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट में साफ़ कहा गया था कि भारत में 20 करोड़ से ज्यादे लोग आज भी भूखे सोने को मजबूर हैं. पंद्रह जून से सैनिक जंतर मंतर पर वेतन और पेंशन के लिए भूख हड़ताल कर रहे हैं लेकिन हमारे सांसद कितनी सहजता से अपनी सुख सुविधा और वेतनमान बढ़ाने का प्रस्ताव भेज देते हैं, यह अपने आप में आश्चर्य उत्त्पन्न करने वाला प्रश्न है. एक राष्ट्रीय अख़बार में ख़बर छपी कि संसदीय कमिटी ने सांसदों की तनख्वाह डबल करने का सुझाव दिया है. एक संसद सदस्य के ऊपर सामान्य रूप से कितना खर्च होता है, इसकी रूपरेखा कुछ यूं होती है, लोकसभा की वेबसाइट से एक सांसद की मार्च 2015 की सैलरी का हिसाब निकाला, तो कुछ ऐसी तस्वीर बानी: मार्च 2015 में उन 'माननीय' को कुल 3 लाख 8 हज़ार 666 रुपये मिले थे, जिसमें बेसिक - 50,000, संसदीय क्षेत्र भत्ता - 45000, आफिस का खर्चा - 15000, सहायक की सैलरी - 30000, यात्रा और दैनिक भत्ता - 1,68,666. ऐसे में आप समझ सकते हैं कि दुसरे क्षेत्रों से तुलना करने पर इनका वेतनमान पहले ही कितना अधिक है. कमेटी ने सुझाव दिया है कि बेसिक को 50,000 से बढ़ाकर 1 लाख कर दिया जाए. पूर्व सांसद के पेंशन को 20,000 से बढ़ाकर 35,000 कर दिया जाए. सहायक को भी सांसद के साथ रेल में प्रथम श्रेणी एसी का फ्री टिकट मिले. पूर्व सांसद को भी एक साल में हवाई यात्रा के लिए 20-25 टिकट फ्री मिले. सवाल यह है कि सिर्फ सांसदों को ही सरकारी दामाद क्यों बनाया जाय? क्या वास्तव में लोकतान्त्रिक प्रणाली में वह किसी नागरिक से ज्यादा सुविधाओं के हकदार हैं? हालाँकि, इसके पीछे उनके ऊपर तमाम जिम्मेवारियों का लेखा - जोखा दिखाकर सेलरी की बात को जस्टिफाई करने की कोशिश की जा सकती है. लेकिन, यहाँ बताया जाना चाहिए कि देश में किस नागरिक या कर्मचारी के ऊपर जिम्मेवारियों का बोझ नहीं है. आखिर, दुसरे सार्वजानिक क्षेत्रों से अलग व्यवस्था माननीयों के लिए क्यों रहना चाहिए? इसके सन्दर्भ में यहाँ यह बात भी विचारणीय है कि एक बार सांसद या विधायक चुने जाने के बाद कई माननीय बंगला और दूसरी सरकारी सुविधाओं पर ताउम्र जमे रहते हैं, जिसके कई उदाहरण आपको आसानी से मिल जायेंगे. और सिर्फ माननीय ही क्यों, बल्कि उनके परिवार के साथ उनके चाहने वालों को भी वगैर नियम कानून के लाभ पहुँचाया जाता रहा है. समस्या यह है कि सरकारी कार्यों के अतिरिक्त, अनेक व्यक्तिगत कार्यों का बोझ भी ये माननीय सरकारी ख़ज़ाने पर डालना अपना संवैधानिक अधिकार क्यों समझते हैं. कई बार तो सिर्फ अपने महिमा - मंडन के लिए नेतागण कुख्यात हो जाते हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री ने हाल ही में अपने बजट में कई गुणा बढ़ोतरी की है, जिसे लेकर उनकी आलोचना हो रही है. इसी महिमा-मंडन के सन्दर्भ में उच्चतम न्यायालय का फैसला भी आया है, लेकिन उसकी मनमानी व्याख्या करके धज्जियां उड़ाने में कई मंत्री, मुख्यमंत्री कई कदम आगे हैं. इससे आगे बढ़कर कहा जाय तो अपने कई पिछले चुनावों का खर्च भी 'माननीय' 5 साल के दौरान ही वसूल लेना चाहते हैं. यह एक तथ्य है कि चुनाव सुधार के वगैर इस व्यवस्था में तमाम विकृतियां बनी ही रहेंगी, क्योंकि चुनावों में करोड़ों करोड़ रूपये एक माननीय के द्वारा खर्च किये जाते हैं और इसके मद में जीता हुआ कैंडिडेट अपनी बाकी उम्र और परिवार के लिए सुविधाओं की गारंटी दिमाग में बिठाकर चलता है. आखिर सरकारी अधिकारियों, आईएएस या सेना के ऑफिसर्स से ज्यादा वेतनमान और सुविधाएं किसी सांसद या विधायक को क्यों होनी चाहिए? और किसी नेता द्वारा चुनाव में जबरदस्त खर्च क्यों किया जाता है? जब तक इन प्रश्नों का हल नहीं ढूंढ लिया जाता है, तब तक इस तरह के प्रस्ताव आते ही रहेंगे और हमारे 'माननीय' करदाताओं के पैसे को कभी घोटालों के माध्यम से तो कभी बेतहाशा सब्सिडी के माध्यम से अपनी जेब में भरते ही रहेंगे. यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि किसी नेता का विदेशी टूर और दुसरे ऑफिसियल खर्चे पहले ही सरकार द्वारा वहां किये जाते हैं. अब कोई सांसद अपनी ससुराल पूरे लाव-लश्कर सहित जाय, या फिर कोई विधायक किसी शादी समारोह में जाए तो इन खर्चों को सरकारी कैसे माना जा सकता है? इन बातों की चर्चा होते समय एक अख़बार के संपादक महोदय ने मुझसे कहा कि सांसदों को बहुत लोगों से मिलना - जुलना होता है, इसलिए उनके वेतनमान में बढ़ोतरी का प्रस्ताव ठीक हो सकता है. उनकी बातों में सांसदों के प्रति 'विशिष्टता' को बोध देखकर मुझे गहरी पीड़ा हुई. लेकिन, यह एक सच्चाई और बिडम्बना है कि हमारे देश में 'नेता-वर्ग' को विशिष्ट भाव से देखा जाता है और 'माननीय' खुद भी स्वयं को विशिष्ट समझ कर राजनीति करते हैं, जबकि अमेरिका इत्यादि देशों में आपको यदि कोई सीनेटर अपनी गाड़ी साफ़ करता मिल जाए तो आश्चर्य नहीं होगा. समस्या इनको भी 'आम' बनाने की है, मगर 'आम' बनाये कौन? क्योंकि यह कार्य बिल्ली के गले में घंटी बांधने से भी ज्यादे कठिन लगता है, तभी तो आज तक संभव नहीं हो पाया है.
- मिथिलेश, नई दिल्ली.
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