केंद्र सरकार के खिलाफ जन आंदोलन चरम पर था. वैसे तो ऐसे आन्दोलनों का लाभ विपक्षी पार्टियां उठाने की भरपूर कोशिश करती हैं, किन्तु इस आंदोलन पर देश के नामी संस्थानों से पढ़े लिखे और बेहद प्रोफेशनल्स लोगों का नियंत्रण था. आंदोलन के चेहरे के रूप में बूढ़े और गाँधीवादी विचारों पर जीवन गुजारने वाले जगपति थे. उनकी साख जनता में अच्छी थी, और ऊपर से वह अनशन की कला में सिद्धस्त थे, तो कुछ लोग उत्सुकतावश और कुछ पब्लिक श्रद्धावश जुटने लगी थी. परदे के पीछे आईआईटी, आईआईएम, सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल्स, प्रशासनिक सेवा के बड़े अधिकारी, नामी पत्रकार, गायक, बड़े स्कूलों के छात्र-नेता इत्यादि मोर्चा संभाले हुए थे. सोशल मीडिया, नुक्कड़ नाटक, मीडिया प्रबंधन इत्यादि कार्यों को तो बखूबी अंजाम दिया ही जाता था, साथ में इस बात का भी विशेष ध्यान दिया जाता था कि इस आंदोलन का कोई भी स्थापित नेता या दल अपने खातिर उपयोग न कर पाये. कई विपक्षी नेता आंदोलन-स्थल पर आकर अपनी गणित सेट करने की कोशिश भी करते दिखे, किन्तु पढ़े लिखे लोगों ने उन्हें अपमानित करके भगा दिया. देश भर की राजनैतिक जमात को भ्रष्ट, कामचोर, लुटेरा बखूरी बताया गया. पूरे प्रबंधन के साथ, भारत माता की जय के नारे लगाये गए, साथ में संसद को देशद्रोहियों का अड्डा भी बताया जाता रहा. देश के कई अच्छे नेताओं ने एक सार्थक बहस शुरू करने की कोशिश की, परन्तु पढ़े लिखे लोग कुछ और ठानकर बैठे थे.
कई नेताओं ने इन प्रोफेशनल्स को चुनौती देते हुए कहा कि व्यवस्था से इतनी ही नफरत है तो आओ मैदान में!
चुनाव लड़ो, और बना लो अपनी मर्जी का कानून!
राजनीति कोई खेल नहीं, एक कदम भी नहीं चल पाओगे!
पढ़ी लिखी जमात ने इस विषय पर गंभीरता से मंथन शुरू किया. आईआईटी से पढ़ा और प्रशासनिक अनुभव रखने वाला आर्यन बोला- मैदान, में उतरना ही पड़ेगा!
पर हमें राजनीति कहाँ आती है, बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी की जॉब छोड़कर आया हुआ गौरव बोला!
देश की व्यवस्था पर अनपढ़ों, घसियारों और मूर्खों का कब्ज़ा है, कोई भैंस चराता है तो कोई पहलवानी करता है, कोई गुंडा है तो कोई सिरफिरा. हम देश ही नहीं विश्व भर की प्रतिभाओं में उच्च स्थान रखने वाले शिक्षित लोग हैं, हम क्यों नहीं कर सकते राजनीति? यही सही वक्त है मैदान में उतरने का, विधायक बनने का, मंत्री बनने का और देश के लिए उत्तम कानून बनाने का! तेज-तर्रार आर्यन ने जोशीला भाषण देते हुए कहा.
वह लाख बुरे सही, पर लोगों को लेकर चलना जानते हैं, जबकि हम पढ़े-लिखों में यही सबसे बड़ी कमी होती है.
अनुभवी प्रोफेसर सुरेन्द्र बोले.
उनकी बात आर्यन को ठीक नहीं लगी, उसने फिर कहा, देश भर को हम युवा ही तो चलाते हैं, आईएएस हम हैं. पीसीएस हम हैं, इंजीनियरिंग से लेकर तमाम फील्ड्स में हम अपना लोहा मनवा रहे हैं, तो राजनीति में क्यों नहीं?
दुसरे नवयुवकों ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई और आंदोलन में राजनैतिक पार्टी बनाने पर चर्चा चलने लगी.
कई लोगों ने हाँ, कइयों ने ना कहकर अपना-अपना स्टैंड लिया और आंदोलन बिखर गया. हालाँकि तब तक जनता में उसका प्रभाव और राजनैतिक वर्ग के प्रति आक्रोश उत्पन्न हो गया था.
ऑनलाइन माध्यमों द्वारा तमाम सर्वेक्षणों में यह बात आर्यन और उसकी टीम को पता चल चुकी थी कि स्थापित दलों से जनता बेहद क्षुब्ध है और यदि इसी समय राजनैतिक पार्टी का गठन करते हैं तो चुनावी सम्भावना सर्वोत्तम रहेगी.
गाँधीवादी जगपति ने आर्यन को कई बार समझाया कि राजनीति 'कीचड़' है, उसमें जाने के बजाय जिम्मेदार जन-आन्दोलनों से ही सत्ता में जन-भागीदारी बढ़ाई जा सकती है, लेकिन अब आर्यन के साथ राजनीति में जाने के इच्छुक तमाम प्रोफेशनल्स जुड़ चुके थे.
खूब धूम-धाम से पार्टी का गठन हुआ और आगामी चुनाव प्रदेश की विधानसभा का चुनाव था.
पहली बार में ही सत्ता के नजदीक जाने का मन आर्यन और उसकी टीम बना चुकी थी. देश, विदेश, गलत-सही हर जगह से चंदे इकट्ठे किये गए. स्वराज के नाम पर राजनीति के कई अध्याय जल्दी-जल्दी सीखे गए.
आखिर, पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आ गयी.
आर्यन ने स्वाभाविक रूप से मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और उसके खासमख़ासों में कई मंत्री बनाये गए.
नयी पार्टी के दुसरे नेता अब बेरोजगार हो गए थे, उनका पढ़ा लिखा दिमाग अब भला क्या करता तो, वह अब पार्टी को व्यक्ति-केंद्रित बताकर आर्यन पर निशाना साधने लगे.
आर्यन ने उनसे निबटने में अपनी टीम को लगा दिया.
नयी सत्ताधारी पार्टी में कई गुट बन गए, और पढ़े लिखे प्रोफेशनल्स ने फेसबुक, ट्विटर, टीवी हर जगह आपस में ही छीछालेदर करनी शुरू कर दी.
पिछली बातें, गड़े मुर्दों के जैसे छन-छन के बाहर आने लगीं, जैसे- गलत लोगों को टिकट देना, भ्रष्टाचार करना, विश्वासघात करना, चंदे के पैसे की हीलाहवाली इत्यादि.
इसी बीच जीतकर आये पार्टी के बचे विधायक, जो मंत्री नहीं बन पाये थे उन्होंने आयोग, समितियों में पद पाने के लिए आर्यन पर दबाव बनाना शुरू कर दिया.
आर्यन को तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि वह इनको कैसे मैनेज करे, वह तो जीत के नशे में चूर खुद को भाग्य विधाता मानकर अपने ही घमंड में बैठा था.
इस बीच ऑटो असोशिएशन ने ऑटो का किराया बढ़ाये जाने को लेकर हड़ताल शुरू कर दी. एक के बाद एक दुसरे गुटों ने नयी सरकार की धज्जियां उड़ा कर रख दिया और वह तमाम प्रोफेशनल्स देखने के सिवा कुछ कर नहीं पा रहे थे. उनका फेसबुक पर जनता को समझाना, गुटों को फोन करना, मीटिंग करना सब फेल हो रहा था.
मुख्यमंत्री आर्यन निराश होकर गांधीवादी जगपति से मिलने पहुंचा, प्रोफेसर सुरेंद्र भी बुलाये गए.
पाँव छूते ही आर्यन ज़ार-ज़ार रोने लगा, बड़ी मुश्किल से जगपति उसे संभल पाये.
आखिर, यह क्या हो रहा है, क्यों सब बिखर रहा है, पढ़े लिखे लोगों को क्या हो गया है? वह एक ही बार में अपना गुबार निकाल देना चाहता था!
जगपति ने उसे ढाढ़स बंधाते हुए कहा- राजनीति साथ चलने का नाम है और पढ़े लिखे पेशेवर लोग साथ नहीं चलते.
पर क्यों? मुख्यमंत्री आर्यन किसी बच्चे की तरह प्रश्न कर रहा था.
क्योंकि, पढ़े लिखे लोग अपनी जिम्मेवारी से भागते हैं, इस बार प्रोफ़ेसर सुरेन्द्र ने उसे जवाब दिया.
जिम्मेवारी से भागते हैं! क्या मतलब है आपका? जॉब में इतने सारे असाइनमेंट्स, प्रोजेक्ट्स, शोध, खोज जिम्मेवारी से भागने का नाम है, आप पढ़ी लिखी कौम पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं प्रोफ़ेसर?
हाँ! मैं पढ़ी लिखी कौम पर ही प्रश्न खड़े कर रहा हूँ. दृढ़ता से बोलते हुए प्रोफ़ेसर ने आगे कहा- शिक्षा और संस्कार में ज़मीन आसमान का फर्क होता है. शिक्षा, बिना संस्कार के हमें आत्मकेंद्रित और संकुचित बनाती है. शिक्षा से बेशक योग्यता आती है, लेकिन उस योग्यता का प्रयोग कहाँ करना है, यह हमारा संस्कार हमें सिखलाता है.
थोड़ा और स्पष्ट कीजिये, प्रोफ़ेसर, किसी विद्यार्थी की तरह मुख्यमंत्री आर्यन इस बात को समझना चाहता था.
तुम्हें दूसरी तरह बताता हूँ. तुमसे जो लोग जुड़े हुए हैं, कभी उनके परिवार के बारे में जानने की कोशिश की?
नहीं!
अब जाकर कोशिश करना और तुम देखोगे कि तुमसे जुड़े तथाकथित शिक्षित लोग अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को किस प्रकार निभा रहे हैं!
मतलब!
मतलब ये कि जिन माँ-बाप ने उन्हें पढ़ा-लिखा कर शिक्षित किया है, उनके प्रति वह अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं अथवा नहीं?
मतलब ये भी कि जिन भाइयों के साथ उन्होंने अपना बचपन गुजारा, वह अपने भाई-स्वजनों को साथ लेकर चल पा रहे हैं कि नहीं? राजनीति तो बहुत बाद की चीज है.
आर्यन को प्रोफ़ेसर की इस बात पर सांप सूंघ गया. खुद उसका भाई गरीबी की हालत में गाँव में है और उसके लड़के गाँव की प्राथमिक पाठशाला में जाने को मजबूर हैं. ऐसा भी नहीं है कि इस संयुक्त परिवार की हालत उसे पता नहीं थी, लेकिन उसने अच्छी नौकरी मिलते ही अपने भाइयों से किनारा कर लिया था. आर्यन के सामने उसके बचपन के सपने घूमने लगे, जब उसकी माँ उसके भाइयों के हिस्से का दूध भी उसे दे देती थी और कहती थी- मेरा आर्यन पढ़ने में सबसे तेज है, यह बड़ा होकर अफसर बनेगा और अपने सारे भाइयों को आगे बढ़ाएगा. उसके दोनों छोटे भाई भी हंस कर उस से चिपट जाते थे.
उसके आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा. छल-कपट, प्रबंधन में माहिर, आईआईटी से पढ़ा हुआ और बड़े पद से राजनीति की खातिर स्वैच्छिक रूप से हटने वाला आर्यन शर्म से गड़ा जा रहा था. वह अपनी कुर्सी पर बैठा न रह पाया और सरककर ज़मीन पर आ गिरा. दोनों हाथों से अपने चेहरे को ढक कर वह फिर फफक पड़ा.
उठो आर्यन! तुम इस हमाम में अकेले नहीं हो बल्कि पूरी की पूरी पढ़ी लिखी जमात ही ऐसी निकल रही है, आत्मकेंद्रित, संकुचित, अपनी मूल जिम्मेदारियों से भागती हुई, संस्कारों से रहित! एक सूर में जगपति बोल गए .वह मेहनत जरूर करती है, किन्तु जहाँ उसका व्यक्तिगत स्वार्थ हो सिर्फ वहीं. वह काम जरूर करती है, जहाँ उसे नौकरी से निकाले जाने का डर हो. वह सामाजिक होने का भी दिखावा करती है, किन्तु सिर्फ अपनी दिखावटी छवि के लिए. बोलते-बोलते बूढ़े जगपति की साँसे फूलने लगीं.
और जहाँ उसे अपना व्यक्तिगत और तात्कालिक फायदा नजर नहीं आता, वह रिश्तों को तोड़ने में क्षण भर की देरी भी नहीं करती है- यह प्रोफेसर सुरेन्द्र का स्वर था. इस पढ़ी लिखी जमात को यह भी होश नहीं रहता है कि अपनी जिस योग्यता के घमंड में वह खून के रिश्तों से मुंह मोड़ लेते हैं, वह योग्यता उसके खुद के बच्चों को सभ्य और योग्य बना पाने में नाकाफी साबित होती है. आखिर संस्कार तो संयुक्त परिवार और सामाजिकता का ही दूसरा नाम है.
बस कीजिये प्रोफ़ेसर- रूंधे गले से आर्यन बोला!
उसने अपना स्मार्टफोन निकाला और कुछ टाइप करने लगा. शायद कोई मेल टाइप कर रहा था. उसके बाद बिना कुछ बोले जगपति और प्रोफ़ेसर सुरेन्द्र का पाँव छूकर वह बैठक से निकल आया, उसके चेहरे पर एक संतुष्टि का भाव दृष्टिगोचर हो रहा था.
शाम को तमाम न्यूज चैनल ब्रेकिंग चला रहे थे-
'मुख्यमंत्री आर्यन ने अपना इस्तीफा राज्यपाल को भेजा'!
बड़े बड़े पॉलिटिकल पंडितों की विभिन्न कोणों से व्याख्याएं लगातार जारी थीं. कोई आर्यन को त्यागी तो कोई भगोड़ा बता रहा था. कार्यक्रम के बीच-बीच में बड़ी-बड़ी प्रोफेशनल कंपनियों के विज्ञापन देश के शिक्षित और समृद्ध होने का भरपूर अहसास दिला रहे थे.
टेलीविजन में एक छोटी लाइन और चल रही थी-
आर्यन अब अपने पुस्तैनी गाँव में अपने छोटे किसान भाइयों के साथ रहेंगे!
इस बात पर पढ़े लिखे लोग जरा भी चर्चा नहीं कर रहे थे.
- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'
Educated Personalities and their Responsibilities, Hindi Story by Mithilesh
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