कांग्रेस की केंद्र सरकार के तमाम घोटालों के बाद जब अन्ना हज़ारे का जबरदस्त आंदोलन खड़ा हुआ तो उसकी तुलना जेपी द्वारा किये गए इमरजेंसी के दौरान आंदोलन से की गयी. इस आंदोलन के आउटपुट के रूप में देखा जाय 'अरविन्द केजरीवाल' ही दिखते हैं. व्यवस्था बदलने की इस लड़ाई से एकमात्र अरविन्द की उत्पत्ति ही हो सकी. खैर, अरविन्द केजरीवाल के राजनीतिक पटल पर उभार के बाद न सिर्फ, दिल्ली में, बल्कि पूरे देश में आशा का संचार हुआ था, लेकिन धीरे-धीरे वह सारी आशा की लकीरें धुंधली होते होते मिटने के कगार पर पहुँच चुकी हैं. देखा जाय तो, दिल्ली में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद ही केजरीवाल ने टकराव की राजनीति के संकेत दे दिए थे और साथ ही कांग्रेस से समझौता करना, फिर तोडना और फिर समझौते की गुंजाइश ढूंढने जैसी कोशिश करके 'चलताऊ' राजनीति की समझ होने की ओर भी इशारा कर दिया. उसके बाद एक- एक करके धमाके किये केजरीवाल ने. दूसरी बार जबरदस्त बहुमत से सत्ता में आने के बाद तो केजरीवाल ने मर्यादा की तमाम दीवारों को अपनी ठोकरों से गिराने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वह चाहे दिल्ली के उप-राज्यपाल को 'पालतू कुत्ता' बताने जैसी स्तरहीन भाषा का प्रयोग हो, या फिर अपनी आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में वरिष्ठतम सदस्य शांति भूषण से बदतमीजी ही क्यों न हो अथवा योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को धक्के मारकर पार्टी से बाहर निकालने की कवायद हो. आईआईटी से पढ़े और आईआरएस की नौकरी कर चुके अरविन्द यहीं नहीं रुके, बल्कि इसके बाद उन्होंने केंद्र-शासित प्रदेश दिल्ली को अपनी मर्जी से हांकने के प्रयास में केंद्र सरकार से रोज भिड़ते देखे गए और पुलिस, प्रशासन, डीडीए, एसीबी और राज्यपाल के अधिकार-क्षेत्र को मीडिया के माध्यम से, बयानबाजी से रोज चुनौती देते रहे. कभी गृहमंत्री तो कभी वित्तमंत्री तो कभी प्रधानमंत्री को निशाने पर लेकर मुख्यमंत्री पद की गरिमा से जबरदस्त खिलवाड़ किया केजरीवाल ने. नैतिकता की दुहाई दे देकर दिल्ली की जनता से वोट मांगने वाले केजरीवाल यहाँ भी नहीं रुके, बल्कि उन्होंने अपनी पार्टी के मंत्री की फर्जी डिग्री को जायज़ ठहराने की भी भरपूर कोशिश की. वह तो दिल्ली पुलिस ने मंत्री महोदय को गिरफ्तार कर लिया, अन्यथा केजरीवाल जी भला किसकी सुनते. बाद में वह कहते सुने गए कि उनको फर्जी डिग्री की जानकारी नहीं थी, लेकिन उनके पुराने साथी योगेन्द्र यादव ने उनकी पोल खोलते हुए कहा कि उन्होंने कई बार अरविन्द को इसके बारे में बताया था. अब खबर मिल रही है कि आम आदमी पार्टी में दोबारा फूट पड़ सकती है. नाराज़ सांसदों के मुताबिक़ पंजाब में संगठन में हो रही नियुक्ति में उनसे कोई विचार विमर्श नहीं किया जा रहा जबकि वो पार्टी के चुने हुए प्रतिनिधि हैं. खबर के मुताबिक़ नाराज़ सांसदों ने एक मीटिंग भी की है. पटियाला के सांसद धर्मवीर गांधी, फरीदकोट के सांसद साधु सिंह और फतेहगढ़ साहिब के सांसद हरिंदर सिंह खालसा केजरीवाल से खासे नाराज़ बताये जा रहे हैं. पंजाब में हो रही इस बगावत में पार्टी के प्रमुख नेता संजय सिंह सीधे निशाने पर हैं. अब सवाल यह है कि रेडियो पर आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री का धुआंधार विज्ञापन चल रहा है, जिसमें केजरीवाल यह बोलते हुए सुनाई दे रहे हैं कि उन्होंने दिल्ली में जो कहा सो किया! पर सवाल यह है कि ऊपर वर्णित इन तमाम तथ्यों में से उन्होंने कुछ भी तो नहीं कहा था, फिर इतने सारे अनर्गल कार्य उन्होंने क्यों किये? यह कहना कि अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली में कुछ काम नहीं किया, उनके साथ इन्साफ नहीं होगा. उनकी सरकार ने बिजली पानी के मुद्दों पर सब्सिडी दी है और बच्चों की शिक्षा पर लोन की गारंटी देने की घोषणा सहित कुछेक और भी फैसले किये हैं, जो जनता के हित में हो सकते हैं, लेकिन अपने विज्ञापन का जिस तरह से उन्होंने बदहवास रूप में बजट बढ़ाया, यह न सिर्फ निंदनीय बल्कि चिंतनीय भी है. ऐसा तब है, जब सुप्रीम कोर्ट ने जनता के पैसे से अपनी छवि निर्माण के विपरीत निर्णय दिया है. हालाँकि, कोर्ट के फैसलों की सदा से मनमानी व्याख्या होती रही है, ऐसे में केजरीवाल ही पीछे क्यों रहें? उनके तमाम विवाद दिल्ली की जनता को नुक्सान कहीं ज्यादा पहुंचा रहे हैं, जबकि उनके जनहित में लिए जा रहे फैसलों से जनता को कितना लाभ पहुँच रहा है, इसकी परख होनी बाकी है. परख हो भी कैसे, केजरीवाल ने अपनी सरकार का कनेक्शन मीडिया से यह कहते हुए काट दिया है कि 'मीडिया सुपारी किलर' है. अब इस बात पर सबको हंसी भले ही आये, क्योंकि केजरीवाल आखिर मीडिया के माध्यम से ही तो आगे बढे हैं, लेकिन खुद दिल्ली के मुख्यमंत्री को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. अब खबर आ रही है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य देने के मुद्दे पर केजरीवाल दिल्ली की जनता से राय लेने का शिगूफा छोड़ने वाले हैं और भाजपा ने उनकी इस कोशिश पर अपने बाल नोचने शुरू कर दिए हैं और प्रतिक्रिया दी है कि अरविन्द केजरीवाल हद कर रहे हैं. लेकिन उन्होंने हद कब नहीं की है, आखिर उनकी निकटतम सहयोगी रहीं किरण बेदी उनके बारे में ठीक ही तो कहती हैं कि अरविन्द ज्यादे दिन कैमरे से दूर नहीं रह सकता है, इसलिए हंगामा खड़ा करना उसका उद्देश्य बन चुका है. इस सन्दर्भ में फेसबुकिये चुटकुलेबाजी कर रहे हैं कि लगे हाथ मुख्यमंत्री दिल्ली की जनता से यह भी पूछ लें कि वह अब उन्हें मुख्यमंत्री देखना चाहती है कि नहीं! सच ही तो है, जिस तेजी से अरविन्द केजरीवाल की लोकप्रियता अर्श से फर्श पर पहुंची है और उनके नजदीकी समर्थकों के साथ साथ मीडिया, ऑटो एसोशिएसन, कर्मचारी नाराज हुए हैं, ऐसे में उनका जनाधार कम होना ही है. ऐसा तब है, जब बड़े मुद्दों पर अभी उन्होंने एक कदम भी नहीं बढाए हैं और इनमें सबसे प्रमुख है 'जन लोकपाल बिल'. इस एक मुद्दे पर बड़ा आंदोलन शुरू हुआ, सरकारें बदल गयीं, अरविन्द केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और दूसरी बार जब उन्हें बहुमत मिला तो उन्होंने चुप्पी साध ली. अब उन्होंने ऐसा क्यों किया, इस बात का जवाब उन्हें देना ही चाहिए और जहाँ तक दिल्ली के पूर्ण राज्य बनने का प्रश्न है, तो इस पर भाजपा और कांग्रेस अब तक हवा-हवाई राजनीति ही करती आयी हैं, जबकि उन्हें भी पता है कि ऐसा होना मुमकिन नहीं है. इसके पीछे एक नहीं हज़ार कारण हैं, लेकिन राष्ट्रीय नेता बनने का ख्वाब पाले केजरीवाल यदि इस मुद्दे पर फिर केंद्र से टकराने की राह खोज रहे हैं, तो ऐसे में उनको अपनी राजनीति की समीक्षा करनी ही चाहिए क्योंकिं पांच साल बीतते समय नहीं लगता और न ही समय लगता है इतिहास में गायब होने में. यकीन न हो तो, दस साल तक प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह को ही देख लें केजरीवाल! यदि वह अपना समय प्रशासनिक सुधार और दिल्ली के विकास पर लगाने के बजाय बेवजह की राजनीति ही करते रहे और विवादित राजनीति का स्थापित नाम बनने का प्रयास नहीं छोड़ा तो .... जनता सब जानती है, देखती है ... केजरीवाल के ही शब्दों में !!
- मिथिलेश, नई दिल्ली.
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