बुद्धिजीवियों के एक समूह में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को हल्के रूप में पेश करने की प्रतिस्पर्धा सी चल पड़ी है. आप तमाम विचारकों के लेखों को देखिये अथवा सोशल मीडिया पर नए रंगरूटों द्वारा चलाये जा रहे अभियानों पर गौर करें तो पाएंगे कि दिल्ली सरकार जैसी-तैसी, लड़खड़ाती, संभलती राजनीति के लंगड़े पावों को पूरी तरह तोड़ने की मजबूत कोशिश की जा रही है. हालिया विवाद का ऊपरी चेहरा दिल्ली के राज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित करने के लिए लड़ी जा रही लड़ाई दिखती है, किन्तु परदे के पीछे इस अनुभवहीन सरकार को फेल करने की पूरी रणनीति नजर आ रही है. जहाँ तक बात अरविन्द केजरीवाल की है, तो उनका अड़ियलपन, अराजकता की हद तक अति उत्साह, तानाशाही की हद तक महत्वाकांक्षा और विरोधियों को ज़रा भी बर्दाश्त न कर पाने जैसी कमियां लगभग सिद्ध हो चुकी हैं. इन कमियों के बावजूद हम सबको भूलना नहीं चाहिए कि वह अभी भी जनता के चुने हुए नुमाइंदे ही हैं और इन तमाम अनुभवहीनता और बेवकूफियों के बावजूद लोकतंत्र का गला नहीं घोंटा जा सकता है. हो सकता है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा न मिलने के कारण उपराज्यपाल के पास ज्यादा शक्तियां हों लेकिन राजनीतिक और लोकतांत्रिक पैमाने पर देखें तो केजरीवाल अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, शिवराज चौहान, नवीन पटनायक जैसे अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों की तुलना में कहीं से भी कमतर जनप्रतिनिधि नहीं हैं. तो प्रश्न यहाँ उठता ही है कि आखिर इस तरह का टकराव क्यों? इस प्रश्न का उत्तर आपको आसानी से मिल जायेगा, जब आप हमारी मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों का बड़ा ढोंग देखेंगे. दिल्ली की परिस्थिति में यह बात लगभग साफ़ है कि इसको पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि इसके एक नहीं हज़ार कारण हैं. देश के चुनावी लोकतंत्र में, जहाँ वोट के लिए जाति, सम्प्रदाय, आरक्षण, बदले की राजनीति जैसे हथियार आजमाए जाते हों, वहां दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का मतलब देश की प्रतिष्ठा को दांव पर लगाना होगा. ऐसी परिस्थिति में राजनीति में व्याप्त हिप्पोक्रेसी की परतें आसानी से खुलती दिखती हैं, जब सभी दल जान-बूझकर झूठा शोर मचाते हैं कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना चाहिए. साफ़ समझने वाली बात है कि पिछले दस साल तक दिल्ली और नई दिल्ली दोनों में कांग्रेस की ही सरकार थी, और ऐसे में यदि दिल्ली को पूर्ण राज्य देने की ज़रा भी व्यवहारिक गुंजाईश होती तो यह कार्य हो चूका होता. भाजपा भी ढोंग करते हुए इसे पूर्ण राज्य बनाने का चुनावी वादा करती रही है. ऐसी ही परिस्थिति में हमारे देश में कुछ भी अनाप-शनाप चुनावी वादा करने वालों पर लगाम कसने की जरूरत दिखती है. जहाँ तक केंद्र और राज्यों के संबंधों में राज्यपाल की भूमिका का प्रश्न है तो इन सभी परिस्थितियों का ज्ञान वर्तमान प्रधानमंत्री और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से ज्यादा किसे होगा भला. आपको याद होगा कि लोकायुक्त की नियुक्ति हो अथवा दुसरे मामले, नरेंद्र मोदी और कमला बेनीवाल में कभी नहीं बनी और नरेंद्र मोदी राज्यपाल के तथाकथित हस्तक्षेप से खुद को पीड़ित बताते रहे. उत्तर प्रदेश के नवनियुक्त राज्यपाल राम नाइक और वहां के मंत्रियों के बीच में भी कई विवाद सामने आये. केंद्र और राज्य-संबंधों के पुराने पन्नों को टटोला जाए तो हम पाएंगे कि पूर्व राष्ट्रपति वीवी गिरी द्वारा नियुक्त राज्यपालों को समिति ने अपनी रिपोर्ट (1971) में इस बात की पुष्टि की कि, “राज्य के मुखिया के रूप में राज्यपाल के अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में संविधान में लिखा हुआ है और किसी भी तरह वो राष्ट्रपति का एजेंट नहीं हैं (यानी केंद्र सरकार के).” इसके अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश राजेंद्र सरकारिया ने केंद्र और राज्य संबंधों पर अपनी रिपोर्ट में राज्यपालों के चुनाव के बारे में कुछ दिशा निर्देश तय किए थे. रिपोर्ट में कहा गया था कि केवल उसी व्यक्ति को राज्य का राज्यपाल नियुक्त किया जाना चाहिए जिसने किसी क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किया हो और प्रतिष्ठित व्यक्ति हो. इसमें यह भी सुझाव दिया गया है कि राज्यपालों के चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री को उपराष्ट्रपति और लोकसभा के स्पीकर से सलाह मशविरा करना चाहिए. हालाँकि बाद की सरकारों ने इन सुझावों पर कितना अमल किया, यह न ही पूछा जाय तो बेहतर रहेगा. तमाम नजीरों को देखकर यह साफ़ हो जाता है कि भारतीय लोकतंत्र की परंपरा में केंद्र और राज्यों के संबंधों में टकराहट होती ही रही है और शायद यही कारण है कि देश के विकास में संघ और राज्य उस तरह से सहभागी नहीं बन सके हैं, जिस प्रकार उन्हें होना चाहिए. दिल्ली तो खैर, पूर्ण राज्य है ही नहीं. पूर्ण राज्यों के मुख्यमंत्री और मंत्री अक्सर केंद्र पर राज्यपाल के मार्फ़त हस्तक्षेप करने का आरोप लगाते ही रहते हैं. दिल्ली की जंग में, थोड़ी अति होती जरूर दिख रही है. यह बात अलग है कि केजरीवाल सफल राजनेता होंगे या असफल, किन्तु हम उन्हें जल्दबाजी में लोकतंत्र की बाँहें मरोड़ कर असफल कैसे कर सकते हैं. मुख्य सचिव की नियुक्ति जैसे छोटे विवाद में मुख्यमंत्री की इच्छा का ध्यान रखा जाना चाहिए था. हालाँकि, केजरीवाल की कोई एक समस्या हो तब तो कोई सुलझाये. अपने समझदार साथियों को तो वह अपने कुनबे से कब का बाहर कर चुके हैं. योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण, संतोष हेगड़े सहित तमाम अनुभवी लोग उनकी टीम से बाहर हो चुके हैं. और यह बात भला किसे नहीं पता होगी कि सरकारें ऊपर से बेशक संविधान द्वारा चलती दिखें, किन्तु अंदर से वह राजनीति से ही चलती है. 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति पर कोर्ट का नोटिश और आईएएस एसोशियेशन का विपरीत रूख, आने वाले दिनों में दिल्ली के मुख्यमंत्री की मुश्किलें बढ़ाएगा ही. इस पूरे प्रक्रम में जल्दबाजी करने के बजाय अति उत्साही केंद्र को भी केजरीवाल को सफल या असफल होने का स्वयं ही मौका देना चाहिए. अन्यथा केजरीवाल खुद को शहीद दिखाने को तैयार बैठे हैं. भाजपा और कांग्रेस, दोनों इस शहीद होने का राजनीतिक खामियाजा दिल्ली के पिछले विधानसभा चुनवा में भुगत चुके हैं. इसलिए, लोकतंत्र की गरिमा तो करनी ही होगी, क्योंकि लोकतंत्र लोक - लाज पर ही तो चलता है. केजरीवाल सहित भाजपा और दूसरी सभी राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को यह बात जितनी जल्दी समझ आ जाय, लोकतंत्र को अपनी मरोड़ी जा रही बांह से राहत मिल जाएगी. जनता तो खैर, हर स्थिति में भुगतेगी ही.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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