भारत सरकार से नेपाल के बिगड़ते रिश्ते दिन-ब-दिन मीडिया की सुर्खियां बनते जा रहे हैं तो हमारा मजबूत प्रतिद्वंदी चीन इसका पूरा फायदा उठाने की कोशिश में लग गया दिखता है. सामान्य तौर पर जो इसका कारण नज़र आ रहा है, वह यही है कि मधेसी लोगों को नेपाल ने अपने संविधान में अधिकारों के लिहाज से दरकिनार करने की भरपूर कोशिश की है, जिसके कारण वहां हड़ताल और अशांति है और इसके फलस्वरूप मजबूर होकर भारत सरकार को भी प्रतिक्रिया देनी पड़ रही है. हालात यहाँ तक बिगड़ गए हैं कि नेपाल का आम जनमानस भी भारत विरोध का दम भर रहा है तो वहां का राजनैतिक नेतृत्व भारत के खिलाफ कड़ी बयानबाजी से ज़रा भी परहेज नहीं कर रहा है. यही हाल भारत सरकार की ओर से भी दिखता है, जब नेपाल के खिलाफ उसे संयुक्त राष्ट्र संघ तक में शिकायत दर्ज करानी पड़ी है. कई लोग और विश्लेषक भी इस बात से सदमें में हैं कि आखिर कल तक हमारा सबसे करीबी पड़ोसी, जिससे हमारा रोटी-बेटी का सम्बन्ध रहा है, जिसके विनाशकारी भूकम्प में हमारे पधानमंत्री सबसे आगे खड़े होकर हाथ बढ़ाते हैं, वहां के मंदिर में जाकर चन्दन की लकड़ियाँ दान करते हैं, उससे अचानक ही संबंधों में इतनी दूरी क्यों? यही नहीं, भारत से सदियों पुराना सम्बन्ध रखने वाले नेपाल के लोग हमारे यहाँ कुक, दरबान से लेकर फ़ौज तक में शामिल होते रहे हैं, उनको हमसे इतना बैर कैसे हो गया? चाहे हम लाख कुछ भी कह लें, किन्तु यह परिणाम साबित करता है कि कहीं न कहीं बड़ी कम्युनिकेशन गैप हुई है! कहीं न कहीं हमने अपने सबसे करीबी पड़ोसी के बदलते नजरिये को समझने में भारी चूक की है! अगर ऐसा नहीं होता तो क्या कारण था कि भारत की सशस्त्र सीमा बल के 13 जवानों को नेपाल की पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, उन्हें पांच घंटे तक पकड़े रखने के बाद रिहा किया. वह तो शुक्र है कि नेपाली पुलिस ने हमारे जवानों को सही−सलामत घर भेज दिया, अन्यथा वह मारपीट ही कर लेते तो संबंधों के और बदतर होने से कैसे रोक जा सकता? आखिर, नेपाल का बर्ताव बांग्लादेश जैसा क्यों हो रहा है?
गौरतलब है कि बांग्लादेश की सीमा पर भी कुछ साल पहले भारतीय जवानों को मार दिया गया था और उनके शव डंडों पर लटका कर वापस कर दिए गए थे. अब वही हालात नेपाल के साथ क्योंकर हैं? यही नहीं, इस समय भारत− नेपाल सीमा पर हज़ारों ट्रक फंसे पड़े हैं. नेपाली लोग डीजल और पेट्रोल के लिए तो तरस ही रहे हैं, उनका रोजमर्रा का जीवन भी दूभर होता जा रहा है. जरूरी दवाओं तक की किल्लत ने हमें इतना मजबूर कर दिया कि राज्यसभा में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को यह तक कहने के लिए मजबूर होना पड़ा कि मात्र नेपाल का पक्ष सुनकर लोग यह धारणा बना रहे हैं कि सरकार 'मानवीय भावनाओं से रहित' है? आखिर, ऐसी नौबत क्यों आन पड़ी है कि मणिशंकर अय्यर जैसे नेता यह कह रहे हैं कि वह नेपाल जाकर कहेंगे कि 'नेपालियों का विरोध भारत नहीं, बल्कि मोदी सरकार कर रही है'. हालाँकि, उनकी टिप्पणी अपने आप में विवादित है और सुषमा स्वराज ने उनकी इस टिप्पणी के लिए उनको 'झगड़ालू' तक कह दिया, पर सवाल तो यह उठता ही है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने इस समस्या को इतना विकराल कैसे हो जाने दिया? पाकिस्तान दौरे पर जाने से एक दिन पहले केंद्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने राज्यसभा में नेपाल से बनते-बिगड़ते रिश्तों पर सरकार का पक्ष रखा और इस बात को स्पष्ट करने की भरपूर कोशिश की कि भारत ने कोई नाकेबंदी नहीं की है और हम नेपाल की मदद के लिए तैयार हैं. इस दौरान, सुषमा ने बिग-ब्रदर और एल्डर ब्रदर का भी कांसेप्ट दिया तो नेपाल के नए संविधान की कड़ी आलोचना भी की. नेपाल संकट को लेकर राज्यसभा में हुई चर्चा के जवाब में उन्होंने कहा कि नेपाली संसद में बिना बहस के नए संविधान को पास कर दिया गया. उनकी बात और पिछले दिनों के घटनाक्रम को गौर करें तो आप समझ जायेंगे कि यहाँ भारतीय तंत्र काफी हद तक असफल सिद्ध हुआ है. नेपाल में संविधान लागू होने के मात्र 15 दिनों पहले भारतीय विदेश सचिव एस. जयशंकर काठमांडू पहुँचते हैं और इसे रोकने का प्रयास करते हैं, किन्तु तब तक गाड़ी छूट चुकी होती है. यहाँ सवाल उठता है कि क्या सरकार के पास ऐसी सूचना पहले से नहीं थी कि उसके पड़ोसी देश में इतने बड़े स्तर पर क्या होने वाला है? और इससे भी बड़ा सवाल यह कि क्या नेपाल से वार्ता करने के लिए मोदी सरकार के पास सुयोग्य वार्ताकार नहीं हैं, जिनका इस पहाड़ी देश में आधार हो?
आखिर, नेपाल में छापामार युद्ध जैसे दूसरी समस्याओं में भी भारत ने अपना रोल तो निभाया ही है, फिर इस बार इतनी बेबशी क्यों? क्या देश में ऐसे राजनीतिक, गैर-राजनीतिक लोगों का अकाल पड़ गया है, जो इस समस्या को सिरे से समझकर उचित समाधान प्रस्तुत कर सकते थे? सिर्फ नौकरशाहों पर भरोसे के लिए नरेंद्र मोदी पर पहले भी प्रश्नचिन्ह उठे हैं, और इस बार नेपाल से बिगड़े संबंधों के लिए क्यों न इसी फैक्टर को जिम्मेवार माना जाय? नेपाल में मधेसी आंदोलन को लेकर विदेश मंत्री का यह कहना कितना जायज है कि यह सबकुछ अचानक हुआ? यह बात जायज है कि नेपाल के मधेसियों को नए हक देने की जगह उनके पुराने अधिकारों को भी छीन लिया गया है, और भारत को मधेशियों के साथ सहानुभूति रखना मजबूरी है, क्योंकि मधेसी भारत से गहरे जुड़े हुए हैं. पर सवाल यह है कि ऐसी नौबत आयी ही क्यों? सरकार, राजनेता, नौकरशाह, ख़ुफ़िया तंत्र क्या करने के लिए है? हालाँकि, विदेश मंत्री ने सदन को आश्वस्त किया कि 5-7 दिनों में नेपाल में हालात ठीक होने की उम्मीद है. सुषमा स्वराज ने विरोधियों को याद भी दिलाया कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के शासनकाल में भी सवा साल तक भारत से सामान ले जाने वाले ट्रकों को वहां एंट्री नहीं मिली थी. भारत सरकार द्वारा नेपाल को राहत पहुँचाने की बात करते हुए विदेशमंत्री ने बार-बार कहा कि सरकार नेपाल की मदद के लिए तैयार है और इसके लिए सरकार द्वारा नेपाल के प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर दवाईयों की लिस्ट मंगाने की बात की, जिसका अब तक जवाब नहीं आया. इस बात में कोई शक नहीं है कि नेपाल में भारत विरोधी ताकतें कई स्तर पर सक्रीय हैं और इसका सबूत भूकम्प में भारत की दिल खोलकर मदद करने के दौरान तब मिला था, जब भारत से गए कपड़ों के कुछ ट्रकों को लौटाने और पुराने कपड़ों को जलाने की बात सामने आयी थी? तब विवाद होने से मोदी सरकार के खिन्न होने की बात भी सामने आयी थी! सामान्य तौर पर देखने पर यह लगता है कि नौकरशाहों ने इन सिम्पटम्स को गंभीरता से लेने की बजाय उसे अनदेखा कर दिया और एक कम्युनिकेशन गैप बन जाने के कारण नेपाली संविधान बनाने में भारत की सलाहकार की भूमिका समाप्त सी हो गयी. जब तक भारत को इस बात की भनक लगी कि पहाड़ी देश के संविधान में क्या हो रहा है, तब तक नदी में काफी पानी बह चुका था!
बाद में दोनों पक्षों की ज़िद्द और अहंकार की बात सामने आ गयी. भारत की जायज़ चिंता को भी नेपाल और नेपालियों ने अपनी संप्रभुता से जोड़ लिया तो कम्युनिकेशन चेन न होने से भारत सरकार इस मामले में लगातार बैकफुट पर ही दिखी. यहाँ तक कि सुषमा स्वराज के हालिया बयान के पहले ठीक से कोई जानकारी सामने निकल कर नहीं आयी कि नेपाल और भारत के बीच में हो क्या रहा है और भारत सरकार आखिर किस नीति का पालन कर रही है? हालाँकि, अब दोनों ओर से नरम रूख अपनाये जाने की खबर मिल रही है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए और भारत जैसे देश को इस मामले से इतनी सीख जरूर लेनी चाहिए कि सिर्फ नौकरशाहों पर भरोसा करने की बजाय, पक्ष-विपक्ष के माध्यम से संवाद की डोर मजबूत करते रहनी चाहिए, अन्यथा सब कुछ 'अचानक' ही हो जायेगा... सुषमाजी के शब्दों में ही! और हाँ! दूर की देखने पर पहाड़ी हवा का बदलता रूख यह भी कह रहा है कि 'बिग ब्रदर और एल्डर ब्रदर' की थ्योरी में परिवर्तन लाया जाय, आख़िरकार राजतन्त्र और लोकतंत्र में फर्क आ गया है वहां! ध्यान से सुनिए सुषमाजी और 'साहेब' को भी पिछले दिनों की रेकार्डिंग जरूर सुनाइए...!!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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