भारत में वेतन आयोग का लम्बा इतिहास रहा है. 1946 में गठित पहले वेतन आयोग से लेकर 2013 में गठित सांतवे वेतन आयोग के गठन का सामान्य तौर पर एक ही मकसद रहा है कि सरकारी कर्मचारियों की वेतन विसंगतियों को दूर किया जाय. आश्चर्य है कि समय-समय पर यह आयोग वेतन में सहूलियतों को तो बढ़ावा देता रहा है, किन्तु आज 21वीं सदी में हमें समूची व्यवस्था को इसके सन्दर्भ में दोबारा देखने की जरूरत महसूस क्यों नहीं हुई? थोड़ा और स्पष्ट करें तो आज जब सांतवा वेतन आयोग अपनी सिफारिश दे रहा है तो इसके सामानांतर प्राइवेटाइजेशन और बेरोजगारी के मानक क्यों नहीं रखे जाने चाहिए? तमाम सहूलियतों के बावजूद सरकारी क्षेत्र को प्रतिस्पर्धी बनाने के विकल्पों पर आज तक प्रभावी उपाय क्यों नहीं किये जा सके? अगर सरकारी व्यवस्था को 'भ्रष्टाचार' शब्द की जन्मदाता और 'पोषक' कहा जाय तो गलत न होगा, ऐसे में इससे निजात पाने के लिए प्रभावी व्यवस्था कहाँ है और छिटपुट हैं भी तो उसके सरेआम मजाक क्यों बना हुआ है? वेतन आयोगों के इतिहास पर नज़र डालें तो, द्वितीय पे कमीशन अगस्त 1957 में गठित हुआ, तो तीसरा वेतन आयोग मार्च 1973 में गठित किया गया. इसके बाद चौथा वेतन आयोग जून 1983 में तो पंचम वेतन आयोग अप्रैल 1994 में गठित किया गया. इस पांचवे वेतन आयोग ने केंद्र सरकार पर जबरदस्त आर्थिक दबाव डाला था, जिसकी आलोचना वर्ल्ड बैंक तक ने की थी. इसके बाद जुलाई 2006 में छठा वेतन आयोग गठित हुआ था, जिसमें सरकारी कर्मचारियों की बल्ले-बल्ले हुई थी. अब यहाँ एक सवाल यह भी उठता है कि छठे वित्त आयोग के गठन, जिसकी रिपोर्ट 2008 में आयी, उसके मात्र कुछ ही साल बाद सांतवे वेतन आयोग के गठन की क्या जरूरत थी? ज़ाहिर है, इस मामले में जल्दबाजी की गयी. खैर, इस बारे में आगे देखें तो, सांतवे वेतन आयोग की सिफारिशों को अगर किसी चुनाव से पहले लीक किया जाता तो निश्चित रूप से केंद्र सरकार की राजनीतिक लोकप्रियता और भी बढ़ जाती. लेकिन, बिहार चुनाव में जबरदस्त हार के तत्काल बाद जिस तरह से यह सिफारिश सामने आयी है, उसने कई तरह के सवालों को भी जन्म दिया है.
25 सितम्बर 2013 को मनमोहन सिंह के कार्यकाल में गठित सांतवें वेतन आयोग के अध्यक्ष जस्टिस माथुर ने लगभग दो साल बाद कई सुझाव दिए हैं जो 21 वीं सदी के अनुरूप तो हैं, किन्तु मुश्किल यह है कि सरकार अगर इन सिफारिशों को मानती है तो उसके ऊपर लगभग 1 लाख करोड़ का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा जो हमारी जीडीपी के आधे फीसदी से भी ज्यादा है. इसके अतिरिक्त, सैन्यकर्मियों के लिए ओआरओपी लागू करने में ही सरकार के पसीने छूट गए हैं और जस्टिस माथुर साहब ने बड़ी आसानी से सभी कर्मचारियों के लिए ओआरओपी लागू करने की सिफारिश कर दी है! मतलब साफ़ है कि हर साल यह बोझ बढ़ता ही जायेगा. यही नहीं, पेंशन के लिए 24 फीसदी बढ़ोत्तरी की जो सिफारिश की गई है, उसे मानने पर सरकार के माथे पर निश्चित रूप से पसीने की लकीरें उभर जाएँगी. सबसे बड़ी बात यह है कि देश में प्रतिस्पर्धी माहौल पैदा करने के लिए एक तरफ प्राइवेटाइजेशन की बात की जा रही है, उसकी वकालत की जा रही है, तो दूसरी तरफ सरकारी नौकरियों के लिए असमान आरक्षण पर देश भर में युवक बागी होते नज़र आते हैं. साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि अगर सरकारी सुविधाएं बढ़ायी जाती हैं तो उनसे उसी अनुपात में उत्पादकता लेने का प्रावधान भी निश्चित किया जाना चाहिए. न केवल उत्पादकता, बल्कि योग्य युवकों की बेरोजगारी पर भी ध्यान देने में बड़ी इन्वेस्टमेंट किया जाना समय की जरूरत है. थोड़ा नकारात्मक होकर बात किया जाय तो वर्तमान कर्मचारियों के ऊपर जो 1 लाख करोड़ का अतिरिक्त खर्च किये जाने की सिफारिश की गयी है, उसका आधा हिस्सा भी देश की बेरोजगारी समस्या को दूर किये जाने पर किया जाय तो व्यवस्था में असमानता की समस्या का कुछ हद तक ही सही, निपटान हो सकता है. अफ़सोस की बात यही है कि इस तरह की भारी-भरकम बृद्धि की सिफारिशें करके देश की बेरोजगारी समस्या का मजाक ही उड़ाया जाता है. हालाँकि, यह बात भी सही है कि देश में सरकारी वेतन आज भी अंतर्राष्ट्रीय मानकों से काफी पीछे हैं, किन्तु हमें यह बात भी याद रखनी चाहिए कि करोड़ों योग्य युवक बेरोजगारी से फ़्रस्ट्रेट होकर अपना जीवन तबाह कर रहे हैं, तो कई गलत राह पर भी अग्रसर हो रहे हैं. यदि इनके स्तर को भी हम अंतर्राष्ट्रीय मानक पर तौलें तो हमें शर्मसार ही होना पड़ेगा!
खैर, इस सेवंथ पे कमीशन की अन्य बातों पर गौर किया जाय तो कई सकारात्मक बातें भी कही गयी हैं. मसलन, ऐसे पुरुष कर्मचारियों के लिए भी सौगात दी गयी है, जो अपने बच्चों की देखभाल खुद करते हैं. ऐसे केंद्रीय कर्मचारियों को चाइल्ड केयर लीव (सीसीएल) देने की बात सरकार के सामने रखी गई है. इसके तहत, जिन कर्मचारियों के बच्चों की उम्र 18 साल से कम है, वे इसका फायदा उठा सकेंगे. गौरतलब है कि अब तक केवल महिला कर्मचारियों को अपनी पूरे सेवाकाल में दो साल, या 730 दिनों की अधिकतम अवधि के लिए सीसीएल मिलती थी और इस दौरान उन्हें पूरा भुगतान किया जाता रहा है. इस क्रम में, महिला कर्मचारियों द्वारा सीसीएल का दुुरुपयोग किए जाने की शिकायतों पर यह सिफारिश भी की गई है कि पहले 365 दिनों के लिए 100% वेतन और बाद के 365 दिनों के लिए 80% वेतन दिया जाए, मतलब 20 फीसदी का पेंच लगाया गया है. हालांकि आयोग ने मातृत्व और पितृत्व अवकाश बढ़ाने की मांग खारिज कर दी है, जिसकी उम्मीद तमाम सरकारी कर्मचारी कर रहे थे. इसके साथ, कर्मचारियों और पेंशनभोगियों के लिए हेल्थ इंश्योरेंस की सिफारिश भी एक अच्छा कदम है, क्योंकि बुढ़ापे में स्वास्थ्य समस्याएं और उनका इलाज एक बड़ी समस्या बन जाती है. सकारात्मक सिफारिशों में, पैरामिलिट्री फोर्स के जवान की ड्यूटी के दौरान मौत पर शहीद का दर्जा और 52 तरह के भत्ते खत्म करना एवं 36 भत्तों को मौजूदा भत्तों में शामिल करना पारदर्शिता को बढ़ावा देने में काम आएगा. देखना दिलचस्प होगा कि सरकार इनमें किन सिफारिशों को लागू करती है और तमाम सामानांतर समस्याओं पर उसका रूख क्या रहता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि 'सबका साथ, सबका विकास' का नारा देने वाली केंद्र सरकार समाज के सभी वर्गों में तारतम्य स्थापित करने को महत्त्व देगी. हालाँकि, भारतीय मजदूर संघ जैसे संगठनों ने इसमें कई विसंगतियों की बात कही है और प्रतिभा पलायन बढ़ने की ओर इशारा किया है. इन कुछेक बातों को हम अनदेखा कर भी दें तो सरकारी कर्मचारियों की उत्पादकता बढ़ाने की ओर वगैर बड़ा ध्यान दिए, 24 फीसदी तक सेलरी बढ़ाये जाने पर भी सवाल उठते ही हैं. साथ ही साथ देश में बेरोजगारी और प्राइवेट सेक्टर से प्रतिस्पर्धा की बात भी उठती ही है.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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