27 जुलाई की शाम तकरीबन 8 बजे जब एक पत्रकार-मित्र ने फोन करके मुझे कहा कि डॉ. अब्दुल कलाम नहीं रहे तो एकबारगी यकीन ही नहीं हुआ. मुझे कुछ दिन पहले की झारखण्ड की शिक्षा मंत्री द्वारा डॉ. कलाम के चित्र पर पुष्पांजलि करने वाली घटना स्मरण हो आयी और मैंने उन मित्र महोदय से फोन पर कई बार कन्फर्म किया. तब तक सभी न्यूज चैनल भी इस खबर को नहीं दिखा रहे थे और उन पर पंजाब के गुरदासपुर में हुए आतंकी हमलों पर पैनलिस्ट चर्चा में लगे हुए थे. लेकिन, सोशल मीडिया पर इसके बारे में अपडेट शुरू हो चुके थे, मैंने भी अपने एफबी स्टेटस पर लिखा- "मेरी पहली दिली इच्छा जो कभी पूरी नहीं होगी...
आज़ाद, गुलाम, ऐतिहासिक और उससे पहले के भारतीय महानतम पुरुषों में से एक थे डॉ. कलाम. मेरे मन के कोने में उनका दर्शन करने की बात दबी हुई थी. पता नहीं, ऐसे महापुरुष अब हमें दोबारा देखने को मिले या नहीं." मेरे इस स्टेटस अपडेट के समय तक तो सभी न्यूज चैनलों ने इस खबर को लेकर ब्रेकिंग देना शुरू कर दिया था, अनेक वेबसाइट पोर्टल्स पर पूर्व राष्ट्रपति के बारे में खबरें, विश्लेषण, उपलब्धियों के नाम से अपडेट्स आने लगे थे. इसी समय, थोड़े-थोड़े अंतराल के बीच राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और दुसरे गणमान्य व्यक्तियों के ट्वीट, शोक संदेशों की भरमार लग गयी. शाम आठ बजे से लेकर मिसाइल मैन के बारे में पढ़ते और देखते हुए रात के एक बज गए, तब तक पत्नी और बेटा सो चुके थे. जब मैं सोने जाता हूँ तो अनेक युवाओं की तरह मैं भी अपने स्मार्टफोन पर खबरें, एफबी, ट्विटर पर रोम करता ही हूँ, तो आधे घंटे के आसपास इसमें डॉ. कलाम को याद करता रहा. फिर ज्योंही मोबाइल टेबल पर रखा, उसके तत्काल बाद करवट बदलने और आंसू गिरने का सिलसिला जो शुरू हुआ, वह तब तक चला जब तक पत्नी जग नहीं गयी. यही हालत अगले दिन कई लोगों की देखी, जब डॉ. कलाम का अंतिम दर्शन करने उनके सरकारी निवास जो दिल्ली में सेना भवन के पास राजाजी मार्ग पर स्थित है, वहां गया. आम जनता के दर्शन के लिए, अगले दिन 28 जुलाई को शाम 4 बजे से आम जनता को अंतिम दर्शन करने की इजाजत मिली. अनगिनत लोग, धुप और छाँव के बीच पसीना पोंछते जा रहे थे और असली भारत-रत्न का दर्शन करने के लिए 2 घंटे से ज्यादे समय तक लाइन में खड़े रहे. भीड़ के बीच लगभग 6 बैरिकेड और चेकिंग पॉइंट पार करने के बाद, तिरंगे में लिपटे महान व्यक्तित्व की मिट्टी की कुछ सेकण्ड्स की झलक से ऐसा लगा जैसे कई तीर्थों में जाने का पुण्य मिल गया. वहां से निकलने के पश्चात, बाहर मीडिया वाले जनता की रिपोर्टिंग और उनके भावों को पकड़ने में लगे हुए थे, लेकिन मैं उस गुलाब की एक पंखुड़ी की खुशबू सूंघने में लगा था, जो डॉ.कलाम के पुण्य कलश से उठा लाया था. अपनी गाड़ी मैंने करीब एक किलोमीटर पहले ही खड़ी कर दी थी और तब तक उस एक पंखुड़ी को सूंघता रहा और ऐसा महसूस हुआ मानो इस महान आत्मा ने जाते-जाते मेरी दिली इच्छा पूरी कर दी थी, जिसको लेकर मैंने हिम्मत हारने की घोषणा फेसबुक पर कर दी थी. ऐसे में, अपनी गाडी तक पहुँचने से पहले मैं इस महापुरुष के उस कथन को कई बार दुहरा चुका था, जिसमें उन्होंने कहा है कि दुनिया में कोई सपना असंभव नहीं होता. यदि आप सच में सपने देखते हैं, तो उसे पूरा करने में यकीन रखिये. मुझे पूरा विश्वास है कि यह अनुभव सिर्फ मेरा ही नहीं, कुछ सैकड़ों लोगों का ही नहीं या कुछ हज़ार या लाख का भी नहीं, बल्कि करोड़ों - करोड़ व्यक्तियों का है. उन व्यक्तियों का जो ख़ास नहीं हैं, जो पैदल चलते हैं और पसीना पोंछते पोंछते अपनी रोजमर्रा की भागदौड़ में उलझे रहते हैं. यह अनुभव सिर्फ आम का भी नहीं, बल्कि उन ख़ास महाशयों का भी रहा होगा, जो सस्ती लोकप्रियता के लिए एक-दुसरे का गला काटने में संकोच नहीं करते हैं और धन, पद के लिए हर वह मर्यादा तोड़ते हैं जो सार्वजनिक जीवन में वर्जित होती है. यूं तो यह धरती कभी वीरों से खाली नहीं रही है, लेकिन कुछ महापुरुषों का खालीपन सदियों तक नहीं भरता है. भारत रत्न डॉ. अब्दुल कलाम निस्संदेह ऐसे ही महापुरुषों की कतार में आगे खड़े दिख रहे हैं. एक सच्चा इंसान, एक आम इंसान, एक आध्यात्मिक इंसान, विज्ञान से चलने वाला इंसान, देश को नयी दिशा देने के लिए लगातार सक्रीय इंसान, राष्ट्र को उन्नत और ताकतवर बनाने के लिए सम्पूर्ण जीवन झोंक देने वाला इंसान, सिफ़र से शिखर तक मर्यादित रास्ते से पहुँचने वाला इंसान और ऐसी ही अनेक खूबियों में जो एक बात कॉमन है, वह निश्चित रूप से उनका 'इंसान' होना है. जी हाँ! तमाम बातें एक तरफ और उनकी इंसानियत एक तरफ. यदि ऐसे व्यक्ति की खोज की जाय जो संघर्ष और लड़ाई झगड़े की वर्तमान दुनिया में एकता का गैर-विवादित प्रतीक हो तो डॉ. कलाम से से बेहतर कोई दूसरा व्यक्ति नहीं मिलेगा. कीचड़ में किस प्रकार कमल खिलता है, वगैर गन्दगी लपेटे हुए, इस उक्ति के साक्षात जीवित प्रतीक थे डॉ. अब्दुल कलाम. थोड़ी राजनीतिक भाषा में बात की जाय तो एक दुसरे का सर फोड़ने वाले कांग्रेसी, भाजपाई अथवा सपाई, बसपाई सबकी पसंद थे डॉ. कलाम. वह जब पहली बार राष्ट्रपति चुने गए थे तो लगभग सर्वसम्मति ही थी. अपने तमाम वैज्ञानिक योगदानों के अतिरिक्त राष्ट्रपति के रूप में उनका कार्यकाल अद्भुत और आम जनमानस को लगातार प्रेरणा देने वाला बना रहा और साथ में गैर-विवादित भी रहा, जो अजूबा ही कहा जा सकता है आज की दलीय राजनीति में. राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत्त होने के पश्चात डॉ. अब्दुल कलाम लगातार अपने मिशन में जुटे रहे, जो सिर्फ और सिर्फ युवाओं को शिक्षा और विकास की प्रेरणा के साथ लोगों के हृदय में राष्ट्रभक्ति का भाव उत्पन्न करने वाला ही रहा. उनके साथ आम, ख़ास सभी व्यक्तियों की अनेक यादें जुड़ी हैं, जिन्हें यदि कलमबद्ध किया जाय, तो शायद एक और 'रामायण' तैयार हो जाय! देश में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जो डॉ. कलाम के निधन से अपनी आँखों को नम होने से बचा पाया होगा. यूं तो डॉ. कलाम का सम्पूर्ण जीवन ही सूक्तियों से भरा हुआ है, जिनमें वह कहा करते थे कि कमजोर राष्ट्र को कभी सम्मान नहीं मिल सकता है, इस दुनिया में ताकतवर को ही सम्मान मिलता है. अपनी इस महत्वपूर्ण उक्ति की सार्थकता में जीवन समर्पित करने वाले महर्षि को अपनी हड्डियां दान करने वाले 'दधीचि' जैसे महान संत का दर्ज आप ही मिल जाता है. देश की पीढ़ी को संस्कारवान बनाने के लिए वह पुरातन भारतीय परंपरा की बात लगातार दुहराते थे कि यदि युवाओं को हमें संस्कार देना है, तो यह कार्य केवल तीन ही लोग कर सकते हैं, माता, पिता और शिक्षक. ऐसे ही अनेक शब्द, उक्तियाँ उनके जीवन में चरितार्थ होते देखने वाली वर्तमान पीढ़ियां भाग्यवान हैं, क्योंकि इस ब्रह्माण्ड में सुन्दर शब्द तो हमेशा रहेंगे, किन्तु उसका कलाम जैसा अर्थ शायद ही मिले. राष्ट्ररत्न डॉ. कलाम ने उस प्रत्येक फिल्ड में दिया जलाया है, जिससे आने वाले समय में देश का प्रत्येक अन्धकार-क्षेत्र रौशन हो सकता है. इस दिए को बुझने से बचाना और सूर्य बनाना देश के युवाओं की ही जिम्मेवारी है. इसी कार्य से इस महान आत्मा को सच्ची श्रद्धांजलि मिल सकेगी और हमारी आने वाली पीढ़ियों को आत्म गौरव भी.
जय हिन्द!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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