पिछले दिनों मुझे एक विचित्र अनुभव से गुजरना पड़ा. एनजीओ चलाने वाले एक मित्र, जिसका ऑफिस सेंट्रल दिल्ली में है, जाया करता हूँ. संयोग से उसके यहाँ काम करने वाली नौकरानी का एक्सीडेंट हो गया और वह दूसरी नौकरानी की तलाश में था. हालाँकि, नौकरानी ढूंढना कितना कठिन काम है, यह हम सबको पता है, लेकिन दोस्त की लाटरी लग गयी, जब बरसात के समय तीन चार औरतें उसके ऑफिस के बाहर इस नौकरी के लिए खड़ी दिखीं. वह बड़ा खुश हुआ और एक-एक करके सबसे काम और पता इत्यादि के बारे में पूछ डाला. मन ही मन उसने एक को ऑफिस के लिए सेलेक्ट भी कर लिया था. कुछ दिनों के बाद उसके ऑफिस मेरा फिर जाना हुआ, तो पता लगा कि वह किसी को भी नहीं रख पाया. उसने जो कारण बताया, वह हफ़्तों तक मेरे दिमाग में गूंजता रहा कि वह औरतें सेंट्रल दिल्ली की वाल्मीकि बस्तियों से थीं और ऑफिस में कुछ लोगों ने भंगी द्वारा चाय-पानी देने पर आपत्ति दर्ज की थी. गाँव में तो इस तरह की खबरें सुनता था, लेकिन सेन्ट्रल दिल्ली जैसी आधुनिक जगह और पढ़े लिखे लोगों द्वारा इस प्रकार का व्यवहार मुझे अंदर तक हिला गया. इसके सामानांतर दूसरी खबर भी सुनने को मिली और यह खबर विश्व के उच्च संस्थानों में शामिल आईआईटी रूड़की से है. जब इन संस्थानों में लड़के प्रवेश लेते हैं तो उनके माँ-बाप के द्वारा एक डॉक्यूमेंट पर हस्ताक्षर ले लिया जाता है कि यदि स्टूडेंट्स की परफॉर्मेंस ठीक नहीं रही तो उन्हें संस्थान से निकाला भी जा सकता है. अपने इस अधिकार का प्रयोग करते हुए संस्थान ने इस साल 70 छात्रों को निष्कासित कर दिया और साथ ही यह सुगबुगाहट भी शुरू हो गयी कि जिन छात्रों को निकाला गया है, वह निचली जाति के हैं! हद है! आखिर, इस देश का गुनाह क्या है कि ईश्वर ने छः ऋतुओं के साथ, अनेकों नदियां और पहाड़-पठार सब कुछ दिया, लेकिन साथ में जातिवाद रुपी 'रक्तबीज' भी दे दिया. इसे जितना ही समाप्त करने की कोशिश की जाति है, उतना ही बढ़ता जाता है. वैसे यह कोई नयी बात नहीं है और भारतीय राजनीति के लिए तो कतई नहीं कि चुनाव आते ही जातिवादी समीकरण साधने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं और इस बार कोशिश हुई है बिहार विधानसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में. चिंता की बात यह है कि अब तक जातिवादी राजनीति से दूर रहने का दावा करने वाली भाजपा भी इस खेल में शामिल हो गयी है, वह भी सरेआम. एक सम्मलेन में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने यह कहकर विश्लेषकों को सकते में डाल दिया कि देश को कई ओबीसी मुख्यमंत्री, विधायक, सांसद भाजपा ने दिए हैं. शाह ने इस मुद्दे में प्रधानमंत्री को भी लपेटते हुए आगे कहा कि देश को पहला ओबीसी प्रधानमंत्री भी भारतीय जनता पार्टी ने ही दिया है. हालाँकि, उनकी यह बात तथ्यात्मक रूप से गलत है, लेकिन उनका मंतव्य तो जाति पर राजनीति करना था, जो शुरू हो गया. पिछले दिनों दिल्ली के विज्ञान भवन में हुए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर से सम्बंधित एक समारोह में प्रधानमंत्री मोदी ने भावुक वक्तव्य देते हुए बिहार को जातिवादी राजनीति से दूर रहने की नसीहत दी थी. तब भला किसे पता था कि खुद उनकी ही पार्टी इस राजनीति की खुल्लम खुल्ला शुरुआत करेगी. खैर, यह भाजपा की मजबूरी भी हो सकती है, क्योंकि बिहार के जमीनी हालात पर जो जातीय गणित चल रहा है, उसमें इस प्रकार के बयान देना राजनीतिक विवशता भी हो सकती है, पर सवाल जस का तस है कि खुद को राष्ट्रवादी कहने वाली भाजपा भी यदि क्षेत्रीय दलों की तरह कीचड भरी राजनीति में उत्तर गयी तो, उसके सिद्धांत का क्या होगा? वह सिद्धांत, जिसे लेकर उसका मातृ संगठन देश भर में शाखाएं लगाता है और कश्मीर से कन्याकुमारी तक अलख जगाने के काम में लगा रहता है. सवाल यह भी है कि प्रधानमंत्री के उस नारे का क्या होगा, जो कहता है 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत'! खैर, अमित शाह के उकसाने के बाद बिहार के दुसरे राजनेता भला कहाँ चुप बैठने वाले थे? बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारी न करने पर केंद्र सरकार को आड़े हाथों लिया और कहा कि एक ओर बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) में खड़ा करते हैं और दूसरी तरफ जातीय जनगणना के आंकड़े सरकार ने रोक रखा है. कई सालों तक बिहार पर राज करने वाले लालू यादव ने इसके बाद मोर्चा ही खोल दिया और अंग्रेजों तक का सपोर्ट भी कर दिया. उन्होंने कहा कि क्या अंग्रेज बेवकूफ थे, जिन्होंने 1931 में जातीय जनगणना करवाई? अंग्रेजों की मंशा सही ठहराते हुए लालू यादव ने कहा कि किस जाति के लोगों की सामाजिक और आर्थिक हैसियत क्या है, संपूर्ण विकास के लिए जानना जरूरी है. वैसे ही देश की आजादी के 64 साल में हुए विकास से किस जाति को कितना फायदा मिला, इसकी सही परख वर्तमान जातीय-सामाजिक-आर्थिक जनगणना से ही संभव है. जाति के सहारे सहारे आरक्षण के मुद्दे को छेड़ते हुए लालू प्रसाद ने कहा कि इस सर्वेक्षण से जातियों के आरक्षण के प्रतिशत पर भी असर पड़ना तय है. सवाल सिर्फ इतना ही हो, ऐसा भी नहीं है. प्रश्न यह है कि यह सभी बातें किसी चुनाव से शुरू होकर चुनाव समाप्त होने तक ही क्यों चलती हैं? क्या वाकई आज 21 वीं सदी में भी इस प्रकार की राजनीति की उम्मीद की जानी चाहिए. भारत देश के पिछड़ेपन का प्रमुख कारण जातिवादी व्यवस्थाओं का रूढ़िवादिता में जकड़ना ही रहा है और इसके साथ साथ अनेकों जातीय संघर्ष इस परिप्रेक्ष्य में पहले ही हो चुके हैं. लेकिन, सत्ता की रोटी सेंकने वालों को भला इसकी परवाह रही ही कब है, जो आज होगी? हाल ही में, राजस्थान में हुए गुर्जर आंदोलन में भी ऐसा दृश्य देखने को मिला, जो इतिहास के मध्यकाल की याद दिलाता है और वह है आरक्षण के लिए 'रेल की पटरियां उखाड़ना'! समाज में ,राजनीति में, घर में और दूसरी तमाम जगहों पर यदि जातिवादी जकड़न इसी प्रकार रही तो, 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत' का सपना हवा हवाई ही रह जायेगा, इस बात में रंच मात्र भी संदेह नहीं है. निजीकरण के इस दौर में, जब योग्यता को पुरस्कार मिलना तय होता जा रहा है और साथ में 'कॉम्पिटिटिव भावना' भी सम्पूर्ण विश्व में बढ़ती जा रही है, ऐसे में भारत में जातिवादी ज़हर का बढ़ते जाना न सिर्फ चिंतनीय, बल्कि निंदनीय भी है. यदि समाज के अगुआ, इन विषयों को समझने और सुलझाने में हीलाहवाली दिखाते रहे तो वह दिन दूर नहीं, जब साथ में रहते हुए भी कोई भारतवासी साथ नहीं होगा और वह दिन भारतीय इतिहास का काला दिन ही होगा!
- मिथिलेश, नई दिल्ली.
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