सवाल वही पुराना है कि आज देश में सरकार इतनी मजबूत कैसे हो गयी, कुछ लोगों के शब्दों में कहें तो 'निरंकुश' और 'तानाशाह'! आखिर यह स्थिति कैसे आ गयी कि एक सरकार किसी विशेष 'एजेंडे' को लागू करती जा रही है और उसका विरोध करने भर की राजनीतिक शक्ति किसी पार्टी के भीतर नहीं दिख रही है. विशेषकर, कांग्रेस जैसी पार्टी जो विश्व की सबसे पुरानी पार्टी होने का दावा करती है! इसका जवाब इतना जटिल भी नहीं है कि उसे ढूँढा न जा सके, बल्कि यह इतना आसान जवाब है कि सामने पड़े होने के बावजूद इस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा. राजनीतिशास्त्र को एक तरफ रखकर अगर हृदय की गहराइयों से पूछें कि क्या इस देश का नेतृत्व करने के योग्य राहुल गांधी हैं? क्या कांग्रेस में उनसे योग्य और सक्षम व्यक्तियों का अभाव है? आप चाहे लाख कह लें कि नरेंद्र मोदी की हिन्दुत्ववादी छवि ने उन्हें लोकसभा में प्रचंड बहुमत दिलाया या फिर कांग्रेस के बड़े घोटालों ने उसे नुक्सान पहुँचाया... मगर इन सबके बीच एक बड़ा सच यह भी है कि देश की जनता वंशवाद के खिलाफ अपनी समझ विकसित करने योग्य हो चुकी है और राहुल गांधी जैसों का नेतृत्व स्वीकार करना वह न केवल अपना अपमान समझती है, बल्कि वह डरती है कि आने वाली पीढ़ियां इस गलती के लिए उसे नपुंसक न कह दें! राहुल गांधी एक भारतीय नागरिक हैं, लेकिन क्या वाकई भारत जैसे लोकतंत्र को उनको झेलना मजबूरी है, सिर्फ वंशवाद के नाम पर... ! नहीं! कदापि नहीं! देश की जनता ने इसे सिरे से नकार दिया है. अब चाहे विरोध करने वाले छटपटायें, मगर इस सच से इंकार करना मुश्किल है कि देश में वंशवाद ने विपक्ष को नपुंसक बना दिया है!
प्रश्न पूछा जा रहा है कि कांग्रेसी 'घी-शक्कर' मुंह में डालकर बैठे तथाकथित 'बुद्धिजीवी' कांग्रेस को यह सलाह क्यों नहीं दे रहे कि वह वंशवाद से मुक्ति पाये और लोकतान्त्रिक तरीके से कांग्रेस का नेतृत्व किसी योग्य को करने दे! ऐसी स्थिति में देश में कम से कम एक संवैधानिक विपक्ष तो होगा, जो सरकार को राजनीतिक रूप से जवाब देने में सक्षम हो! खैर, देश में उठे बड़े विरोध के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी राह चलते जा रहे हैं. देखा जाय तो मौन रहकर उन्होंने अपना सन्देश देने की कोशिश की सधी कोशिश की है जब सरदार वल्लभ भाई पटेल की 140 वीं जयंती, 31 अक्टूबर को पूरा देश मना रहा है, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजपथ पर 'रन फॉर यूनिटी' को झंडी दिखाकर रवाना किया और राष्ट्रीय एकता दिवस पर उन्होंने लोगों से पटेल का यह संदेश प्रचारित करने को कहा कि अपनी एकता की खातिर देश को कुछ भी बलिदान दिया जा सकता है. हालाँकि, प्रधानमंत्री की यह कोशिश कांग्रेस के गले उतरी नहीं और कांग्रेस ने भाजपा पर उसके नेता सरदार पटेल की विरासत हड़पने की कोशिश करने का आरोप लगाते हुए उपहास उड़ाया. कांग्रेस ने अपने हमले को धार देते हुए मांग की कि सरकार को महात्मा गांधी की हत्या के बाद पहले गृहमंत्री द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगाए गए प्रतिबंध का पत्र जारी करना चाहिए. कांग्रेस के प्रवक्ता आनंद शर्मा ने सरकार द्वारा आयोजित एकता दौड़ को दादरी प्रकरण, बीफ विवाद और अन्य घटनाओं के बाद बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ कलाकारों, लेखकों और वैज्ञानिकों के विरोध की पृष्ठभूमि में एक ‘पाखंड’ करार दिया. जाहिर है कि नयी सरकार द्वारा की जा रही सकारात्मक कोशिश कांग्रेस को हजम नहीं हो रही है. इससे भी बड़ी बात यह है कि कांग्रेस आत्मचिंतन के लिए ज़रा भी तैयार नहीं दिखती है कि आखिर क्यों देश की जनता ने उसे 543 में 50 सीटें देने लायक भी नहीं समझा. अगर ऐसा होता तो बदलते परिवेश में वंशवाद की पूजा करने के बजाय कांग्रेस योग्यता को आगे बढ़ाने की कोशिश करती. क्या आनंद शर्मा यह दावा कर सकते हैं कि उनकी पार्टी में राहुल गांधी सबसे योग्य व्यक्ति हैं?
आखिर, देश ने देखा है कि वंशवाद की राह में वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से लेकर नरसिम्हा राव और खुद सरदार पटेल जैसों को कांग्रेस ने किस हद तक किनारे लगाया है. खैर, चिकने घड़े पर कोई असर पड़ना होता तो आज़ादी के बाद आज तक पड़ जाता. सवाल तो यह भी है कि आज विपक्ष के न होने से तमाम लोग सरकार का विरोध करने के लिए कमर कस रहे हैं, लेकिन उनमें से कोई यह कहने का साहस नहीं कर रहा है कि आज यह स्थिति कांग्रेस के ही कुकर्मों का परिणाम है. एक पल के लिए अगर मान भी लिया जाय कि सरकार निरंकुश होकर किसी विशेष अजेंडे पर कार्य कर रही है तो उसे रोकने के लिए विपक्ष क्यों नहीं है? आखिर, सरकार का कोई ऑफिशियल विपक्ष क्यों नहीं है और आगे भी इस कोरे विरोध से राजनीतिक विकल्प किस प्रकार आ जायेगा? ऐसी स्थिति में कहा जा सकता है कि कांग्रेस के पापों पर चुप्पी साधने के लिए इनके मुंह में 'घी-शक्कर' की काफी बड़ी मात्रा रही होगी? फाइव स्टार होटलों में सम्मेलन करने वाले लोग, मलाई खाने के आदी हो चुके हैं और बजाय कि सरकार के विरोध के लिए वह कोई राजनीतिक विकल्प तैयार करने की कोशिश करते, सड़कों पर उतरते, जनता को जागरूक करते... आसान रास्ता उन्होंने यही अख्तियार किया कि समाज में अराजकता फैला दो! देश को बदनाम कर दो, संस्थाओं को अपमानित कर दो! अरे साहस है तो सड़कों पर उतरो... अभियान चलाओ, तमाम चुनावों में भाग लो, कलम चलाओ! खैर, ये बुद्धिजीवी खुद ही इतने पके होते हैं कि इन्हें समझाने की न तो कोई गुंजाइश है और न ये समझने वाले हैं! इन्हें तो किसी संस्थान में पद दे दो, पेंशन दे दो, सुविधाएं दे दो... बस! खैर, इस बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ़ करनी चाहिए कि उन्होंने विरोध के बीच अपने कदमों की चाल को धीमा नहीं पड़ने दिया है. राष्ट्रीय एकता की खातिर सरदार वल्लभ भाई पटेल के कार्यों का स्मरण करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा है कि अगर देश को आगे बढ़ना है और विकास की नयी उंचाइयां हासिल करना है तो हमारी सोच होनी चाहिए कि हमारी भाषा कोई भी हो, हमारी विचारधारा कोई भी हो और कश्मीर से कन्याकुमारी तथा अटक से कटक तक हमारी प्रेरणा कोई भी हो अगर हमारा लक्ष्य भारत माता को दुनिया में नयी उंचाइयों तक ले जाना है तो इसके लिए पहली शर्त एकता, शांति और सद्भाव है.
विकास के मन्त्र को गति देने के लिहाज से पीएम ने कहा कि अगर 125 करोड़ भारतीय एकता, शांति और सद्भाव के मंत्र के साथ कंधे से कंधा मिला कर एक कदम बढ़ाएं तो देश एक बार में 125 करोड़ कदम आगे बढ़ जाएगा. प्रधानमंत्री ने इस मौके पर वंशवाद की राजनीति पर भी कड़ा प्रहार किया और कहा कि यह हमारी राजनीति का विष बन गई है. उदाहरण देते हुए पीएम ने कहा सरदार पटेल ने अपने परिवार के किसी भी सदस्य को राजनीति में आगे नहीं बढ़ाया. उम्मीद की जानी चाहिए कि पीएम की बात न सही, कम से कम अपने नेता सरदार पटेल के वंशवाद से दूर रहने को कांग्रेस अपनाने की दिशा में कदम बढ़ाएगी! अपने संबोधन की शुरूआत में मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी उनकी पुण्यतिथि पर याद किया, जिसे एक अच्छी पहल माना जाना चाहिए. सच कहा जाय तो सरदार पटेल की सख्शियत उन्हें महानतम बनाती है, जिसका ज़िक्र करते हुए पीएम ने उन्हें दार्शनिक एवं न्यायविद चाणक्य के समकक्ष दर्जा देने में जरा भी संकोच नहीं किया.
देश के जिस महान नायक को भुलाने में कांग्रेसी सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी, उसे याद करने और उसकी शिक्षाओं को जन-जन तक पहुंचाने के लिए अगर पीएम प्रयास करते हैं तो उनकी कोटिशः तारीफ़ करने के बजाय अगर कोई आलोचना करता है तो उसे कुंठित ही कहा जाना चाहिए, क्योंकि सरदार पटेल के रास्ते ही देश चलने वाला है और वंशवाद की सोच रखने वालों को अब इसकी आदत डाल लेनी चाहिए. सरदार पटेल की जयंती पर उनके अन्य योगदानों को याद करते हुए पीएम मोदी ने कहा कि कई लोग महिलाओं को आरक्षण देने का श्रेय ले सकते हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि 1930 के दशक में जब सरदार पटेल अहमदाबाद नगर निगम के महापौर थे तब उन्होंने महिलाओं को अधिकार संपन्न बनाने के प्रयास के तहत उनके लिए 50 फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव किया था.
इसके अतिरिक्त, 1920 के दशक में अहमदाबाद के महापौर रहते हुए पटेल ने स्वच्छता के लिए अभियान चलाया था जो 222 दिन तक चला और इसकी तारीफ महात्मा गांधी ने की ,जो खुद बेहद सफाई पसंद थे. इस बात में कोई शक नहीं कि सरदार पटेल आधुनिक भारत के निर्माता थे, जिन्होंने देश की एकता सुनिश्चित की जिससे देश को समृद्ध होने में मदद मिली. अब समय आ गया है कि समर्थक और विरोधी दोनों सरदार पटेल की नीतियों को समझें. तमाम मतभिन्नताओं के बावजूद उन्होंने परिस्थिति को समझते हुए जिस प्रकार पंडित नेहरू से तालमेल बनाये रखा, उसे केंद्र सरकार को भी समझना होगा. ऐसा नहीं है कि सभी बुद्धिजीवियों के विरोध को कांग्रेसी और कम्युनिस्ट मानसिकता कह कर खारिज कर दिया, बल्कि कुछ ऐसे लोग भी हैं जो हर हाल में देश की सहिष्णुता को बनाये रखना चाहते हैं. जरूरत है, परिस्थिति के अनुसार उनसे भी तालमेल करने की. उम्मीद की जानी चाहिए कि पक्ष और विपक्ष दोनों ही सरदार की 'भारत की एकता' नीति को समझेंगे और तमाम विरोधों के बावजूद साथ मिलकर देश को शीर्ष स्तर पर ले जाने के लिए सब कुछ झोंक देंगे.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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