पिछले दिनों म्यांमार का नाम भारतवासियों के बीच तब खासा चर्चित हुआ था जब, भारतीय सेना ने म्यांमार की सीमा के अंदर उग्रवादियों के शिविरों पर कार्रवाई कर 50 से अधिक उग्रवादियों को मार गिराया था और उनके ठिकानों को तहस नहस कर दिया था. भारत की इस कार्रवाई से सहमे पाकिस्तान की ओर इशारा करते हुए तब अपनी प्रतिक्रिया में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा था कि इस कार्रवाई से सेना व देश के लोगों का हौसला बुलंद हुआ है. खैर, इस बार वैश्विक स्तर पर म्यांमार जिस कारण से चर्चा में है, वह लोकतंत्र के लिए लम्बा संघर्ष करने वाली उसकी नेता सूकी, की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) की बड़ी जीत है. अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने वर्तमान राष्ट्रपति थीन सीन को फोन कर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के लिए बधाई दी तो अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने 'शांतिपूर्ण और ऐतिहासिक' चुनावों को लेकर म्यांमार की जनता को बधाई दी है, लेकिन यह भी कहा है कि इन चुनावों में सब कुछ पूरी तरह ठीक नहीं था. हालाँकि, उन्होंने म्यांमार के लोगों को बधाई देते हुए, शांतिपूर्ण तथा ऐतिहासिक चुनाव संपन्न कराने के लिए सभी लोगों तथा संस्थानों की सराहना भी की. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि वर्मा (म्यांमार) के लाखों लोगों ने, कई दशकों से लोकतंत्र की खातिर संघर्ष किया है और उससे भी बढ़कर इस देश ने पहले बड़े लोकतान्त्रिक मौके का भरपूर फायदा उठाया है, जिससे लोकतंत्र में सभी के अधिकारों का सम्मान करने की दिशा में म्यांमार एक मजबूत कदम से आगे बढ़ पाया है . लोकतंत्र की बहाली से अनेक देशों में ख़ुशी महसूस की जा सकती है तो अमेरिका ने म्यांमार पर लगे प्रतिबंधों को भी हटाने के संकेत दिए हैं. पूर्वी एशिया के सहायक अमेरिकी विदेश मंत्री डेनियल रसेल ने कहा कि 50 सालों की सैन्य तानाशाही के बाद म्यांमार लोकतंत्र के रास्ते पर बढ़ रहा है. उन्होंने उम्मीद भी जताई कि इस बार सत्ता हस्तातंरण में सेना कोई बाधा पैदा नहीं करेगी और म्यामांर की नई लोकतांत्रिक सरकार को अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय समुदाय हर संभव मदद मुहैया कराएगा.
हालाँकि, लोकतंत्र बहाली के लिए सैन्य समर्थित सरकार को और कड़े कदम उठाने होंगे, इस बात में कहीं दो राय नहीं है. एक ओर जहाँ, भारी बहुमत के बावजूद संवैधानिक प्रावधानों के कारण (विदेशी नागरिक से शादी करने वाले सर्वोच्च पद पर काबिज नहीं हो सकते) नोबेल शांति पुरस्कार विजेता सू की राष्ट्रपति नहीं बन सकती हैं. हालाँकि इस बात की पूरी उम्मीद है कि देश की अगली राष्ट्रपति वे बेशक नहीं होंगी, लेकिन शासन का नियंत्रण उनके हाथों में ही होगा. इसी क्रम में, आधिकारिक नतीजों के एलान में देरी से कई तरह की आशंकाएं पैदा हो गई थीं, जिससे बचा जा सकता था, क्योंकि इससे पहले 1990 के चुनाव में भी सू की को सफलता मिली थी, पर सेना ने उनकी पार्टी को सत्ता से बेदखल कर दिया था. इसी कड़ी में हमें समझना होगा कि, संसद की 25 फीसदी सीटें म्यांमार की सेना के लिए आरक्षित हैं, जो आगे भी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में अपना वीटो पावर बनाये रखना चाहेगी, विशेषकर संविधान संशोधन पर. बीते जून में, सेना के अधिकार को कम करने संबंधी संविधान संशोधन विधेयक पारित नहीं हो पाया था. तब तीन दिनों तक सेना और सांसदों के बीच चली बहस के बाद संसद में सेना के अधिकारों को कम करने वाले विधेयक पर मतदान हुआ था, लेकिन संसद में इसके समर्थन में जरूरी 75 फीसद वोट नहीं मिल सके थे. इसके अतिरिक्त चार और संशोधन विधेयक भी संसद में पारित नहीं हो सके थे, जिनमें संविधान के अनुच्छेद 59 (एफ) में संशोधन का विधेयक भी शामिल था. बावजूद इन समस्याओं के लोकतंत्र समर्थकों को उम्मीद है कि हालिया चुनाव और सूकी की भारी जीत आने वाले समय में देश को लोकतंत्र की राह पर मजबूती से ले जाने में सफल रहेगी. गौरतलब है कि आठ नवंबर को होने वाले चुनाव में 90 से ज्यादा पार्टियां हिस्सा ले रही थीं तो 80 फीसदी से ज्यादा मतदान ने म्यांमार के लोगों की लोकतान्त्रिक सोच को धरातल पर ला खड़ा किया. इस चुनाव के लिए संसद और क्षेत्रीय असेम्बली की एक हजार सीटों के लिए राजनीतिक दलों के कुल 6,038 एवं 310 निर्दलीय उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा. यहाँ, यह बताना आवश्यक है कि सेना द्वारा वर्ष 2011 में सत्ता हस्तांतरण के बावजूद म्यांमार में नाम के लिए ही लोकतंत्र था और वहां सेना की कठपुतली सरकार काम कर रही थी. इसलिए भी, तमाम वैश्विक एजेंसियां इन चुनावों की निष्पक्षता पर नजर रखे हुई थीं और अब चूँकि परिणाम लोकतंत्र के पक्ष में आया है, इसलिए जनता में भारी उत्साह का मतलब आसानी से समझा जा सकता है.
जहाँ तक भारत और म्यांमार के आपसी संबंधों की बात है तो अपेक्षाकृत यह काफी सकारात्मक रहे हैं. उग्रवादियों के खिलाफ ऑपरेशन को छोड़ भी दिया जाय तो भारत की मौजूदगी में अक्टूबर के मध्य में म्यांमार और आठ सशस्त्र विद्रोही संगठनों के बीच शांति समझौता संपन्न हुआ था, जिसमें भारत ने प्रमुख भूमिका का निर्वहन किया. तत्कालीन राष्ट्रपति थिन सेन और विद्रोही नेताओं ने संयुक्त रूप से समझौता पत्र पर हस्ताक्षर किए और इस अवसर पर भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की प्रमुखता के साथ चीन, यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधि भी मौजूद थे. तब विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने बताया था कि म्यांमार में शांति लाने के लिए भारत की ओर से यह छोटा सा योगदान है. उस समय विद्रोही गुटों के साथ शांति समझौते से म्यांमार में पिछले छह दशकों से चले आ रहे गृह-युद्ध से छुटकारा मिलने की उम्मीद बढ़ गई थी. तब तत्कालीन राष्ट्रपति थिन सेन ने समझौते को ऐतिहासिक बताते हुए कहा था कि इससे देश की अगली पीढ़ी शांति के साथ रह सकेगी तो अमेरिका ने भी इस कदम का स्वागत किया था. भारत के परंपरागत प्रतिद्वंदी चीन के साथ म्यांमार का सम्बन्ध खिंचा-खिंचा ही रहा है. एक मामले में, जुलाई 2015 में अवैध रूप से पेड़ों की कटाई करने के अपराध में म्यांमार में चीन के 155 नागरिकों को सजा सुनाई गई तो चीन इस अदालती फैसले से असहज हो गया था और म्यांमार के समक्ष अपनी बात रखने के लिए प्रतिनधि को भी भेजा था. इस सम्बन्ध में चीन की आधिकारिक मीडिया ग्लोबल टाइम्स ने अपने संपादकीय में सजा को कठोर बताते हुए दिलचस्प रूप से कहा था कि चीन विरोधी भावना के कारण ऐसा फैसला सुनाया गया है. हालाँकि, यह एक सामान्य न्यायिक फैसला भी कहा जा सकता था, किन्तु इस बात से यह तो जाहिर हो ही गया कि म्यांमार हमेशा से भारत के करीब रहा है. जहाँ तक बात 536 संसदीय सीटें जीतने वाली आंग सूकी की है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें फोन करके भारी जीत की बधाई तो दी ही, साथ ही साथ उन्हें भारत आने का निमंत्रण भी दिया. जाहिर है, विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश भारत से ज्यादा अहमियत 'लोकतंत्र' की और कौन समझ सकता है और जब उसके पड़ोसी देश में दिल्ली के स्कूलों से पढ़ी, नोबेल पुरस्कार विजेता, अंतर्राष्ट्रीय सम्मानप्राप्त महिला सत्तासीन होने जा रही हो तो आपसी संबंधों के शीर्ष पर पहुँचने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता. उम्मीद की जानी चाहिए कि भारत, बांग्लादेश, चीन, थाईलैंड और लाओस की सीमाओं से लगा यह देश लोकतान्त्रिक मूल्यों के आधार पर मजबूती के साथ आगे बढ़ेगा और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो व्यापारिक संभावनाओं को टटोलने में पूरे विश्व में अग्रिम पंक्ति में खड़े हैं. भारत और म्यांमार के आपसी सम्बन्ध कई जटिलताओं के बावजूद निश्चित रूप से विजय की ओर आगे बढ़ेंगे, इसी में दोनों महत्वपूर्ण पड़ोसियों के ऐतिहासिक संबंधों की भी विजय होगी.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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