वह गाना तो हम सबने सुना ही होगा कि गरीब की सुनो, वो तुम्हारी सुनेगा... लेकिन, सरकार और अफसरशाही इस लोकप्रिय गीत के भाव को उल्टा कर के गाते हैं. सिर्फ गाने तक बात हो तो एक बात है, किन्तु हमारा तथाकथित सिस्टम गरीबों को बेघर करने की कार्रवाई करने में जबरदस्त ढंग से यकीन करने लगा है. मात्र दो-चार दिन पहले ही मैंने एक लेख में रेलमंत्री सुरेश प्रभु की तारीफ़ करते हुए लिखा था कि ट्विटर पर उनकी सक्रियता और यात्रियों से जुड़ाव के कारण आम यात्रियों को काफी राहत मिल रही है तो रेलवे को लेकर उनकी नीतियों से भविष्य की उम्मीद जग रही है. लेकिन, दो-चार दिन भी नहीं बीते कि दिल्ली की शकूरबस्ती का वह दृश्य सामने आ खड़ा हुआ, जिसकी भारत जैसे महान लोकतंत्र में कल्पना करने का 'जी' नहीं करता है, किन्तु आँख बंद करने से कहीं हकीकत बदली है जो आज बदल जाएगी! इस बार भी हकीकत नहीं बदली और इस हकीकत पर दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली सरकार, रेलवे और पुलिस को नोटिस भेजकर जवाब देने का निर्देश तो दिया ही, साथ ही साथ अदालत ने कड़ी टिप्पणी करने में संकोच नहीं किया और कहा कि ये बेहद अमानवीय कार्रवाई है, आपको लोगों की चिंता नहीं थी, आपने पिछली गलतियों से कुछ नहीं सीखा है! कोर्ट ने यह आदेश भी दिया कि झुग्गी के लोगों को और दर्द न दिया जाए और राहत के कदम संबधित एजेंसियां लोगों की सुरक्षा और उनके घर के लिए तुरंत कदम उठाएं. हालाँकि, मामला चर्चित हो जाने के कारण और एक बच्चे की मौत के बाद ज़मीन पर आपाधापी मची हुई है, किन्तु यह आपाधापी इन 'बेघरों' को ठण्ड भर भी राहत दे पाएंगी, यह कहना मुश्किल है. दिल्ली सरकार ने हाईकोर्ट से यह कहकर पीछा छुड़ाने की कोशिश की है कि उसने अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की है और केंद्र सरकार के लगातार संपर्क में है, लेकिन सवाल वही है कि ऐसी अमानवीय घटना हुई कैसे? यही नहीं, इस पूरे मामले पर जमकर सियासत भी हो रही है और बच्ची की मौत के लिए आम आदमी पार्टी साफ साफ रेलवे के अतिक्रमण हटाओ अभियान या उससे भी साफ तौर पर कहें तो केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा रही है. लेकिन क्या इतना ही सत्य है ? जब यह काण्ड हुआ उसके पहले की बीती रात दिल्ली का पारा 6 डिग्री सेल्सियस था और हमारे महान लोकतंत्र के संविधान रक्षित नागरिक खुले आसमान के नीचे धकेल दिए गए!
इस मामले में रेलवे का दावा है कि बच्ची की मौत सुबह 10 बजे हुई है जबकि रेलवे की जमीन से अतिक्रमण हटाने का काम 12 बजे दोपहर में शुरु हुआ था, मगर सवाल वही है कि वगैर सभी पक्षों का सर्वे किये, इस भरी ठण्ड में इस तरह का कदम उठाने से कौन सी बुलेट ट्रेन दौड़ पड़ी? कौन सी अर्थव्यवस्था में छलांग लग गयी और कौन सा मेक इन इंडिया हो गया? सवाल तो है और बच्ची की मौत का मामला संसद के गलियारे में भी इसीलिए गूंजा. आप के सांसदों ने इस मुद्दे पर विरोध प्रदर्शन किया तो राहुल गाधी ने सवाल उठाया कि जब दिल्ली में आप की सरकार है तो फिर विरोध प्रदर्शन का ये नाटक क्यों? उसके बाद शकूरबस्ती पहुंचे राहुल ने अपने अंदाज में विरोधियों को चुनौती भी दे डाली तो राहुल का ये अंदाज केजरीवाल को रास नहीं आया और केजरीवाल ने राहुल गांधी को 'पप्पू'... ... मतलब बच्चा कह डाला! राहुल का विरोध करने के लिए तो आप ने शकूरबस्ती में बकायदा लोगों को आम आदमी पार्टी की 'खास टोपी' पहनाई ताकि वो राहुल के खिलाफ हाय हाय कर सकें. सवाल है कि 'हाय हाय' करने से जो दुर्घटना हो चुकी है, क्या उसकी भरपाई हो जाएगी या फिर आगे से ऐसी दुर्घटना की सम्भावना समाप्त हो जाएगी? शकूरबस्ती में रेलवे की जमीन से अतिक्रमण हटाने और बच्ची की मौत पर टोपी पहनाने का खेल बदस्तूर जारी है और राजनीति के इस पुराने खेल के बीच ये सवाल अधर में ही टंगा हुआ है कि देश की एक बेटी की मौत और दूसरी की बदहाली का जिम्मेदार कौन? अगर अपनी और मौसम की बात करूँ तो, lदो दिन से सर्दी हुई है और रजाई में लिपटा हूँ, एक-दो मीटिंग भी छोड़ दी, डी-कोल्ड टोटल, इजी ब्रेथ, बेंड्रील और सूप लगातार ले रहा हूँ... बाहर निकलते ही ठण्ड लग रही है ... और ... और ... !! उन्होंने 'बेरहमी से बेघर' कर दिया उन सबको, वह भी बीच दिल्ली में... एक मासूम की इसी आपाधापी में मौत हो गयी, एक औरत ने खुले आसमान के नीचे बच्चा जना... और 'वो' लोग दबाकर राजनीति भी कर रहे हैं ... हे भगवान! कभी-कभी हम कैसा व्यवहार करते हैं और कैसे-कैसे व्यवहार को देखते रहते हैं... उदासीन होकर ... ... !! क्या उस मरहूम बच्ची के लिए कैंडल-मार्च नहीं होना चाहिए? क्या उन लापरवाहों को इसकी सख्त से सख्त सजा नहीं मिलनी चाहिए, जो सोते हुए आदेश जारी कर देते हैं और ज़मीन पर उतरने की ज़हमत तक नहीं उठाते हैं?
तमाम राजनीति के इर्द-गिर्द अफसरशाही पर यह सीधा आरोप लग रहा है कि उन्होंने रेलवे द्वारा अवैध कब्जा हटाए जाने के दौरान मुख्यमंत्री के आदेश के बावजूद पीड़ितों को कोई राहत नहीं दिया. इसी क्रम में दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने रेल मंत्री सुरेश प्रभु से भी इस मुद्दे पर बात की और अपने ट्वीट में बताया कि रेल मंत्री ख़ुद इस कार्रवाई से बेखबर थे. वह भी इस घटना से सदमे में हैं. सवाल है कि किसी को पता ही नहीं और दिल्ली जैसी हाई प्रोफाइल जगह पर इस तरह की घटना हो जाती है. ज़रा गौर कीजिये, भारत जैसे विशाल देश के दूर-दराज क्षेत्रों में किस तरह के हालात हो सकते हैं, जिनकी खबरें तक मीडिया में नहीं आती हैं. साफ़ है कि असल लोकतान्त्रिक मूल्यों को पाने में हमें अभी लम्बा सफर तय करना है और निश्चित तौर पर जिस तरह की घटिया राजनीति किसी घटना को माध्यम बनाकर की जाती है, उससे मानवता से हम और दूर होते जा रहे हैं. न केवल दिल्ली के मुख्यमंत्री और रेलमंत्री को इन मामलों को लेकर सावधानी बरतनी चाहिए, बल्कि पूरे सिस्टम को मानवीय मूल्यों का ज्ञान होना चाहिए. इस घटना ने कम से कम यह तो साबित कर ही दिया है कि मानवता को कुचलने में हमारा सिस्टम ज़रा भी देर नहीं लगाता है, और इसी को बदलना ही असल लोकतंत्र है. हर बार, बार-बार और लगातार मानवता को कुचलने की नीतियों से जब तक हम बाज नहीं आएंगे, तब तक बमुश्किल ही हम एक समरस समाज का निर्माण कर सकेंगे! एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी महानुभाव ने इसी घटना को लेकर फेसबुक पर एक पोस्ट किया कि 'समझ नहीं मिलता कि गरीबों की झुग्गियों को हटाने का काम अक्सर भीषण ठण्ड में ही क्यों किया जाता है?' उनकी इस पोस्ट पर एक वरिष्ठ साहित्यकार महोदय की कितनी सटीक टिप्पणी थी कि इससे भी पहले सवाल यह कि आजादी के लगभग 7 दशक बाद भी देश की राजधानी तक में झुग्गियां क्यों? जवाब ढूंढना पड़ेगा, क्योंकि मानवता चीख-चीख कर हमसे यह सवाल-जवाब कर रही है और हम हमेशा की तरह 'उदासीन' पड़े हैं.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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