जब व्यवस्थाएं बदलती हैं तो वफ़ाएँ भी राह बदलती हैं और इसमें कुछ वक्त लगता ही है. इस बार तो बदलाव कई ओर से आने की सुगबुगाहट हो रही है. ख्यातिलब्ध और वरिष्ठ एक साहित्यकार महोदय से जब इस बारे में चर्चा हुई तो उन्होंने इस विरोध को पूरी तरह से प्रायोजित बताया और कहा कि जिस प्रकार कोई उदण्ड बालक दण्डित होने के भय से, मार पड़ने से पहले ही, मात्र छड़ी देखकर चिल्लाना शुरू कर देता है, ठीक वैसे ही विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन के भय से ग्रसित होकर ये साहित्यकार चिल्ल-पों कर रहे हैं. उन साहित्यकार महोदय की बात में सच्चाई तो दिखती है, क्योंकि एफटीटीआई में सरकार के रूख को देखकर इधर छात्रों ने हड़ताल समाप्त की और उधर फिल्म नगरी से नेशनल अवार्ड लौटाने की खबर भी आ गयी. असल बौद्धिक जंग इसलिए भी दिखती है और न केवल एफटीआईआई, बल्कि आईआईएम, आईआईटी और विभिन्न विश्विद्यालयों में संघ के लोगों के आने से पुराने मठाधीशों में हलचल तो मची ही है. देश में जबसे नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है, तबसे एक ख़ास तबका उसका विरोध करने के लिए कमर कस चुका है. पहले से जो लोग सत्ता की कृपा से विभिन्न संस्थानों पर काबिज थे, उनको दिक्कत तो हो ही रही है और 'करेले पर नीम चढ़ने' वाली बात तब हो गयी जब देश में कुछेक जगह दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं घटित हो गयी और इन लोगों के हाथ में स्वाभाविक रूप से एक बड़ा हथियार लग गया. ये लोग जानते थे कि दक्षिणपंथ की कमजोर नस 'साम्प्रदायिकता' ही है, जिसके लिए इसे बदनाम किया जाता रहा है.
ये घटनाएं ना ही तो इतनी बड़ी थीं, जितना इनको दिखाने की कोशिश की जा रही है और इन घटनाओं से सीधे तौर पर केंद्र की मोदी सरकार का कोई सम्बन्ध भी नहीं है. आखिर, कर्नाटक या उत्तर प्रदेश में हुई हत्याओं के लिए मोदी सरकार पर निशाना क्यों साधा जाना चाहिए, जबकि इसके लिए राज्य की कानून व्यवस्थाएं जिम्मेदार हैं? खैर, राजनीति हो रही है इस मुद्दे पर और एक के बाद दूसरी और फिर तीसरी मंजिल भी तय कर रही है. पहले छिटपुट साहित्यकारों ने पुरस्कार वापसी की राह चुनी तो उसके बाद फिल्मकारों, इतिहासकारों और वैज्ञानिकों तक यह राजनीति अपना सफर तय कर रही है. इसके जरिये हो रही राजनीति पर सरकार में चिंता तो है ही, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो वेंकैया नायडू, अरुण जेटली और अब राजनाथ सिंह ने इतनी शिद्दत से बयान नहीं दिया होता. केरला हाउस विवाद में जब राजनाथ सिंह को घेरा गया तब उन्होंने खेद जताया, दिल्ली पुलिस को डांट लगाई और पुरस्कार वापसी की राजनीति पर अपना गुबार भी बाहर निकाला. गृह मंत्री ने साहित्य अकादमी और दूसरे अन्य प्रतिष्ठित सम्मान लौटाने वाले साहित्यकारों, फिल्म निर्माताओं, वैज्ञानिकों और कलाकारों पर जमकर निशाना साधते हुए कहा कि 'कोई भी पुरस्कार जिस पर अशोक-चिन्ह है वह एक राष्ट्रीय सम्मान है और अगर कोई उसे लौटाता है तो यह देश का अपमान है, न कि उस समय सत्ता संभाल रही सरकार का.' राजनाथ सिंह ने साहित्यकारों पर जुबानी वार करते हुआ कहा कि जो लोग अभी विरोध का सुर उठा रहे हैं वो तब कहां थे जब कांग्रेस के शासन काल में दंगों के दौरान हजारों लोगों की जान गई थी. जाहिर है, इस विरोध पर सरकार के अंदर हलचल तो मची ही हुई है, लेकिन बातचीत के लिए वह हिचकिचाहट दिखा रही है. यही वह हिचकिचाहट है, जिसके दायरे में फंसकर दुसरे साहित्यकार और बुद्धिजीवी भी सरकार विरोधी रूख अपना रहे हैं, जो शुरुआत में इस राजनीति से दूर थे.
इस हिचकिचाहट के सन्दर्भ में ही सोशल मीडिया पर अतिवादी ऊधम मचाये हुए हैं और छोटी से छोटी बात पर गाली-गलौच और धमकी देने के अतिरिक्त जाने अनजाने नफरत फ़ैलाने को वह सरकार और राष्ट्र के प्रति भक्ति मान रहे हैं और विरोध कर रहे लोगों को कांग्रेसी और कम्युनिस्ट कहने, समझने के प्रति वह दृढ हो गए हैं और यह भूल गए हैं कि यह लोग भी भारत के नागरिक हैं और उनका विरोध करने का लोकतान्त्रिक अधिकार संविधान के द्वारा संरक्षित है. यह ठीक बात है कि इन समूहों में विरोध के नाम पर सिर्फ और सिर्फ मोदी को टारगेट करने की राजनीति हो रही है. ऐसे में क्या यह उचित नहीं होता कि सरकार इन्हें बातचीत की टेबल पर बुलाती, आयोग गठित करके इनकी समस्याओं को सुनती और प्रधानमंत्री इनको आश्वासन देते! अगर ये राजनीति कर रहे हैं तो क्या सरकार के हाथ में बर्फ जमी हुई है, जो वह इनमें फूट नहीं डाल सकती, इनको लालच नहीं दे सकती और इन सबसे बढ़कर यह बात कि दुनिया और जनता को यह दिखाना बेहद आवश्यक है कि सरकार सबके प्रति संवेदनशील है! बस! ... इतना काफी है. सवाल यह भी है कि जब विरोध बढ़ता ही जा रहा है तो इन वैचारिक लोगों को सरकार अनदेखा करने का रिस्क क्यों उठा रही है. सरकार के पास बातचीत के अतिरिक्त दूसरा विकल्प और क्या है? बातचीत की मेज पर उन्हें बुलाने में इतना संकोच क्यों? उम्मीद की जानी चाहिए कि समय रहते सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति से बाहर आएगी और देश के सम्मान और जनता में विभाजन करती इस राजनीति पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी स्वीकार करेगी. अगर कुछ गलत है तो उसे सही करेगी और अगर सिर्फ राजनीति ही है तो उसे नियंत्रित भी करेगी... आखिर, वह सवा सौ करोड़ लोगों की आस्था की रखवाली जो करती है, वह इतनी बेचारी नहीं है और बातचीत की टेबल पर सबको बुलाकर इस समस्या का निपटारा वह आसानी से कर सकती है.
इन सबके लिए उसके पास नैतिक बल भी है और बहुमत भी, बीएस उसे बातचीत की टेबल पर बैठना होगा, तालमेल करना होगा, क्योंकि राजनीति इसी का नाम है, विशेषकर सत्ता की राजनीति तो है ही यही! इससे आगे बढ़कर जब हम यथार्थ की ओर गौर करते हैं तो स्थिति चिंतनीय नजर आती है, इस बात में कोई दो राय नहीं है. नरेंद्र मोदी सरकार बनने के बाद पार्टी से मोदी विरोधियों को किनारे लगा दिया गया, जो न केवल नैतिक रूप से बल्कि राजनैतिक रूप से भी बकवास कदम था. उस समय तो बहुमत के शोर में इसे दबा दिया गया, लेकिन नरेंद्र मोदी की अपरिपक्वता का परिणाम सरकार को आज भुगतना पड़ रहा है. राजनीति की मूल परिभाषा में आप जायेंगे तो लब्बोलुआब यही निकलेगा कि आप विरोधियों को पास में रखते हुए किस प्रकार अपना नेतृत्व करते हैं. यह भी कहा गया है कि जहाँ राजनीति असफल होती है, वहां युद्ध की शुरुआत होती है. अब ज़रा गौर करें और इन कड़ियों को मिलाएं तो आपको साफ़ दिख जायेगा कि पार्टी और सरकार में नरेंद्र मोदी ने विरोधियों को गैर-राजनीतिक रूप से किनारे किया, जिसके कारण आज वह हर छोटी बड़ी बात के लिए सीधे निशाने पर हैं और उनका बचाव करने वालों को या तो उनका चापलूस समझा जा रहा है, या फिर शक्तिहीन. मोदी ने किसी को इस लायक छोड़ा ही कहाँ कि वह उनका बचाव कर सके, फिर हम होने पर हर मोर्चे पर उन्हें खुद लड़ना ही होगा. बेशर्मी और राजनीतिक खोखलेपन की इन्तहा देखिये, अगर आडवाणी सरकार को कुछ सीख देते हैं तो उन्हें कह दिया जाता है कि 'प्रधानमंत्री' न बन पाने के लिए वह रूठे हुए हैं.
अगर राजनाथ या सुषमा ताकत हासिल करने की कोशिश करते हैं तो उन्हें मंत्रिमंडल से बाहर किये जाने की सीधी चेतावनी मिल जाती है. अभी हाल ही में अरुण शौरी ने सरकार की आर्थिक नीतियों पर सवाल उठाया तो वेंकैया नायडू ने यह कहकर उन पर हमला बोला कि उन्हें सरकार में शामिल नहीं किया गया है, इसलिए वह विरोध कर रहे हैं. क्या दिवालियापन है ... आप विरोध को इस हद तक कुचलने पर क्यों आमादा हैं? आपके अपने लोग विरोध करें तो आप यह कहकर पल्ला झाड़ लें कि उन्हें सरकार में शामिल नहीं किया गया, इसलिए... दुसरे विरोध करें तो उन्हें कांग्रेसी और वामपंथी कहकर अपने समर्थकों को उनके खिलाफ भड़का दें... आखिर, कोई है जो आपकी आलोचना कर सके या आपको सुझाव दे सके! इस बात का जवाब तो सरकार को देना ही होगा, अन्यथा देश को विश्वगुरु बनाने का सपना देखने वाली सरकार और उसके मुखिया की गद्दी छिनते देर नहीं लगेगी! मोदी को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संघ और पार्टी में उनके विरोधी भी मौके की ताक में लगे हुए हैं. काश! कोई उनको सुझाव दे कि अपने विरोधियों को ख़त्म करते करते वह खुद निशाने पर आ गए हैं. बेहतर यही होगा कि विरोधियों से बातचीत का रास्ता वह अख्तियार करें, देश में और पार्टी में भी. भाजपा को पूर्ण मोदीयुक्त और देश को कांग्रेसमुक्त बनाने का अपना कीमती लक्ष्य वह फिलहाल पोस्टपोन कर दें.... बेशक! वह इसका सपना देखें, लेकिन पहले शासन में उनका टिका रहना आवश्यक है, 5 साल, 10 साल ... और फिर अपने आप सब मोदीमय हो जायेगा!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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