ऑनलाइन खबरें पढ़ती हुईं दो ख़बरों पर मेरी नजर रूक गयी. हालाँकि, यह मुद्दा सनसनी पैदा करने वाला नहीं है, किन्तु हमारी जड़ों को खोखला करना अथवा मजबूत करना बहुत कुछ इसी मुद्दे के इर्द-गिर्द घूमता रहता है. पहली खबर बिहार से है, जहाँ पटना में आयोजित एक सम्मलेन में शामिल होने गए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को एक बच्चे ने निशब्द कर दिया. दरअसल सम्मेलन में नालंदा के रहने वाले सात साल के कुमार राज को बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर भाषण देने के क्रम में हमारी शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलते हुए कहा कि सरकारी और निजी स्कूलों की व्यवस्था दो तरह की शिक्षा व्यवस्था कायम करती है, अमीरों के लिए अलग जिनके बच्चे नामी प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने जाते हैं और गरीबों के लिए अलग जिनके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ने जाते हैं. इससे साफ मालूम चलता है कि प्राइवेट स्कूलों की अपेक्षा सरकारी स्कूलों में शिक्षा का घोर अभाव है. आखिर क्या कारण है कि कोई भी डॉक्टर, इंजीनियर, वकील यहां तक कि उस स्कूल के शिक्षक भी अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में पढ़ाना नहीं चाहते. यही वजह है कि हम बच्चे हीन भावना का शिकार हो जाते हैं.' बच्चे के भाषण पर तालियां तो खूब बजीं, किन्तु चिकने घड़ों पर एक मासूम की बात का भला क्या असर होगा. शिक्षा व्यवस्था से सम्बंधित, जिस दूसरी खबर ने ध्यान खींचा, वह जम्मू कश्मीर से है. जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने ओपन कोर्ट में एक टीचर को गाय पर लेख लिखने और क्लास चार के गणित के सवाल को हल करने के लिए कहा. जब टीचर इसमें नाकाम रहा तो कोर्ट ने मुकदमा दर्ज करने को कहा. इसके साथ ही जज ने राज्य के एजुकेशन सिस्टम पर कड़ी टिप्पणी करते हुए जज ने कहा कि निर्जीव प्रशासन को शिक्षा की दुकानें बंद कर देनी चाहिए. इन दोनों ख़बरों से हम अंदाजा लगा सकते हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था आखिर किस दशा में है. आपको इस तरह के हज़ारों उदाहरण, लगभग भारत के हर एक प्रदेश से मिल जायेंगे. कुछ प्रदेशों में तो बाकायदा स्कूलों की छतों और दीवालों पर चढ़कर नक़ल कराती तस्वीरें सोशल मीडिया पर जबरदस्त तरीके से वायरल हो जाती हैं. शिक्षा की इस दुर्दशा से अलग हटकर यदि हम इसकी दिशाहीनता की बात करते हैं तो यहाँ भी तस्वीर बेहद निराशाजनक है. इस सन्दर्भ में, मैंने आज ही इंटरनेशनल बेस्ट-सेलर किताब 'रिच डैड, पूअर डैड' किताब पढ़नी शुरू की. इस किताब के लेखक रोबर्ट टी. कियोसाकी ने शुरूआती पन्नों में ही बड़े स्पष्ट ढंग से समझाया है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था बदलते समय और चुनौतियों से मुकाबला करने में कतई सक्षम नहीं हैं. इसी किताब में कहा गया है, जो लगभग प्रत्येक रिसर्च में सिद्ध भी हो चुका है कि अमीरों और गरीबों के बीच फासला लगातार बढ़ता जा रहा है और ऐसा पूरी दुनिया में हो रहा है. थोड़ा अलग हट कर सोचें तो यह साफ़ दिखता है कि दुनिया के जो भी मिलेनियर या बिलेनियर हैं, वह स्कूली अथवा कालेज शिक्षा में बहुत मेधावी नहीं रहे हैं. इन समस्त कड़ियों को मिला दिया जाय तो यह बात भी कही जा सकती है कि आज की शिक्षा-नीति व्यक्तियों को पैसे बनाने के तरीके बताने में भी बहुत सक्षम नहीं है. ढेर सारे साक्षर, मगर बेरोजगार युवकों की फ़ौज भी इस बात की तस्दीक करती है. पैसा कमाने के अतिरिक्त, शिक्षा का जो दूसरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलु है वह है किसी व्यक्ति के जीवन-स्तर में सुधार आना. इस विषय पर यदि बातचीत न ही की जाय तो बेहतर रहेगा. आखिर, तनाव, बीमारियां, परिवारों का टूटन, तलाक इत्यादि बढ़ रही मानवीय समस्याओं से हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था किस हद तक निपट पा रही है, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. गाहे-बगाहे नैतिक शिक्षा को पाठ्यक्रम में शामिल करने की मांग चलती रहती है, किन्तु शामिल तो क्या होगा जो पुराना सम्बंधित पाठ्यक्रम है, उसे ही समूल रूप से हटा दिया गया है. हमारी नयी सरकार की 12 वीं पास मानव संशाधन मंत्री पर काफी कुछ कहा जा चुका है, किन्तु शिक्षा पर उठ रहे सवाल जस के तस हैं. भारत में आखिर, अंग्रेजों के ज़माने से चले आ रहे पाठ्यक्रम से हमें क्या हासिल हो रहा है और हमें शिक्षा-नीति में किस तरह के बदलावों की जरूरत है, इस पर जब तक सरकार एक श्वेत-पत्र जारी करके बदलाव करने की कोशिश शुरू नहीं करती है, तब तक हमें निराशा के भंवर में ही डूबे रहना होगा. साथ ही साथ हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'कौशल-विकास' का सपना अधूरा ही रह जायेगा.
- मिथिलेश कुमार सिंह, उत्तम नगर, नई दिल्ली.
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