बड़ा अजीबो गरीब चल रहा है सब कुछ
कमनसीबी कुछ मिलने नहीं देती,
बदनसीबी मिला हुआ भी छीन लेती है ।
दिल का अपना ही रोना है,
दिमाग दिल से परेशान है।
आँखें बोलना चाहती हैं,
ज़ुबान साथ नहीं देती।
रातें बेनींद गुज़रती है,
सुबह जागना नहीं चाहती ।
और ज़िन्दगी के तो क्या कहने हैं
इसकी अपनी ही शर्तें हैं,
नया-पुराना सब हिसाब-किताब लिए खड़ी रहती है ।
पता नहीं ये सब कब तक और कहाँ तक चलेगा
कभी-कभी लगता है
अब ऐसे ही रहना पड़ेगा क्योंकि बनने के आसार अब नज़र नही आ रहे
चीजों के सुधरने का भी तो एक समय है
बिगड़ तो काफ़ी गया है
फिर भी ये मन पता नहीं क्यों नाउम्मीद नहीं होता
देखते है ये बेशर्म उम्मीदें आखिर कब तक बाज़ नहीं आतीं ।