मैं हर रोज पन्ने पर एक ही गम लिख रही हूँ,
रात की बेबसी और दिन का सितम लिख रही हूँ ...
अब इससे ज्यादा क्या ही लिखूँ मैं हकीकत अपनी कि,
अपने ज़िंदा होने को ही ज़िन्दगी लिख रही हूँ ...
बूंदों से अंदाजा न लगाया जाए ज़मीं की नमी का कभी,
मैं बेहिसाब मोहब्बत को कागज़ों पर कम लिख रही हूँ ...
पाकर, खोकर, हँसकर, रोकर जैसे भी हो पर हो,
उसकी जीत पर मैं दुआओं के कई जनम लिख रही हूँ ...
खुदा जो चाहता है वो ले-देकर लड़ाई खत्म करे,
मैं बाइज्जत ज़िन्दगी पर उसका हक लिख रही हूँ...
वक़्त का इंतज़ार तो है मगर दिल की तसल्ली को ही सही,
अब हथेली पर न 'मैं' न 'तुम' सब 'हम' लिख रही हूँ ...