चलो माना वो पहले वाली बात न रही
तुम्हें भी अब हमसे कोई आस न रही
पर मन के किसी कोने में दफ़्न मेरा नाम ही सही
कोई गिरी-पड़ी सी खंडहर दीवार ही सही
ये ढेर पड़े मलबे सारे
कभी तो पूछेंगे तुमसे कि मेरा ठिकाना कहाँ है?
मुझे फेंक तो रहे हो निकालकर पर जाना कहाँ है?
तो बताओ कुछ जवाब सोच रखा है क्या
एहसासों को खत्म कर देने का कुछ सोच रखा है क्या
अगर हाँ तो फैसला तुम्हारा है चाहो तो किनारा कर लो
अगर नहीं तो फिर प्यार हम ही से दोबारा कर लो
सिसकियों को सीने में दबाओगे कैसे
कहो हमें भुलाओगे कैसे....?