कभी तुम संभाल लेना कभी मैं
एक डोर ही तो है हल्की-सी
इस चोट खाये रिश्ते की
जिसमें पाने को कुछ नहीं
सब खोने को ही है
पर ध्यान रखना अब और कुछ नया
नहीं बांधना है इससे
जो है जितना है बहुत है
अच्छा-बुरा जो है सब अपना है
अब और बोझ नहीं देना है इसपर फ़िज़ूल की उम्मीदों का
जिससे इसका वज़ूद ही टूटकर बिखर जाये
पहले ही वक़्त की मार से अधमरा सा बेबस
दुनिया के ढकोसलों से लड़ रहा है
उसपर से बेमतलब के रिवाजों से घिरा
आखिर बचे तो बचे कैसे ...
तुम बस इतना करना कि ग़र हथेलियाँ थकने लगें
तो मुझे आगाह कर देना ताकि
मैं अपनी पकड़ और मज़बूत कर सकूँ
तुम्हारे फैसलों में हर बार अपनी जगह ले सकूँ ।