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अन्न पृणा

13 सितम्बर 2022

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भाग - १।    बचपन

मीटी के आंगन में,सोने की चिड़िया सी

बेटी वो घर की, (पर) किरदार में मां सी

सुबह के पांच बजे थे। चिड़िया गुनगुना रही थी। शीतल हवाऐ न जाने लोगों में कोनसी उमंगे भर रही थी। इस में..

ॐ सूर्याय नमः

ॐ खगाय नमः

.................के मंत्रोच्चार की आवाजें आने लगी।यह आवाज किसी और की नई बल्कि नीता कि थी।

निता सादगी की मूर्ति थी।घर में सबकी लाडली थी। पिता मोहनलाल और माता सुमन देवी की समझदार बेटी थी । दादी तो उस पर अपनी जान न्यौछावर कर देती ।

घर के संस्कारो नो उस कभी ग़लत रास्तो पर चलने ही नहीं दिया। ना कोई दोस्त,ना सहेली ।उसकी दुनिया बस उसका परिवार ही था। सुबह जल्दी उठकर स्नान करने के बाद पूजा करती और सूर्य देव को जल अर्पित करती। ये संस्कार उसे पिताजी से मिले थे।

सिर्फ १४ साल की उम्र में ही वो रसोई बनाना सीख गई। सुबह जल्दी सब के लिए नास्ता बनाती। ऐसे में अक्सर पिताजी को दफ्तर जाने की जल्दी रहेती पर जब तक बाबा खाना ख़त्म ना करे तब तक नीता उन्हें जाने ही नहीं देती ।

"बाबा थोड़ा और बस थोड़ा और का लिजिए" कहकर अनोखा प्यार जताती । मां को तो बिल्कुल मना करती , "आप छोड़िए मैं खुद काम कर लूंगी। सिर्फ इतना ही नहीं दादी मां की पूरी जवाबदारी उसीने ही ले रखी थी। दवाईयां, खाना-पीना, सुबह-शाम मंदिर के दर्शन आदि..

मानो तो वैसे जैसे दादी मां की सहेली रही।

इसी तरह

एक घर की बेटी , पूरे घर में मां की तरह प्यार जताती।

नीता की रसोई में कुछ अलग ही जादु था। जैसे कि उसके कोमल हाथों में मां अन्नपूर्णा का

वास हो ।

रसोई की मीठास ही कुछ इसी थी मानो कि

मां अन्नपूर्णा उस पर रहेमत की बरसात कर रही हो।

घर में कोई भी आता नीता के हाथो से बना खाना खाकर ही जाता ।

उसकी एक चचेरी चाची थी । माया उसकी बेटी थी जो बिल्कुल नीता से विपरीत थी।

परिवार माया से ज्यादा नीता से प्यार करता । शायद यहीं बात चाची को रास ना आती । वो हमेशा माया को नीता से अलग रखती ।

वैसे भी छोटे बच्चे के मन में जो भरा जाए उसी के अनुसार ही वो व्यवहार करेगा । माया भी नीता से दुर दुर रहने लगी

सबका मन जितने वाला भी किसी एक के लिए बिना कुछ करे खराब बन जाता है।

नीता भी अपने अच्छे संस्कार और समझदारी के कारन कितनो को खटकती थी।

घर में खुशी को मौका आने वाला था ।

बाबा , अम्मा सब नीता के जन्मदिन की तैयारी कर रहे थे ।

"नीता , देख तेरे लिए ये केक का ओर्डर दे दुनिया"?  बाबा बोले ।

इतने में आवाज आइ  ,

" बाबा मुझे केक नहीं चाहिए।

बाबा- " देख बेटा, सीमा ने भी कैसे केक काटकर जन्मदिन मनाया था हम भी ऐसे मनाएंगे।

" नहीं बाबा , मैं मंदिर में भूखों को खाना खिलाना चाहती हुं"

नीता की यह बात सुन पिताजी खुश हो ग‌ए। इतनी छोटी उम्र में इतने अच्छे विचार भी नीता को दुनिया से अलग बनाते थे।

जन्मदिन की सुनेहरी सुबह नीता ने सभी देवी-देवताओं को प्रणाम किया। पूजा के तुरंत बाद भोजन बनाने लगी।

वैष्णव जन तो तेने कहिए...

भजन गाते हुए खाना पका रही थी।

ये भजन, भोजन को स्वादिष्ट बना रहे थे।

१० बजे निता और बाबुजी मंदिर में भूखे बच्चे और बुजुर्गो को खीर , पुरी का भोजन कराया।

इस तरह नीता ने १६ साल पूरे कर लिए।यौवन अवस्था में वो ज्यादा समझदार और सुशील होने लगी।

एक दिन मामा का फोन आया नीता के लिए। नानी  मां की बहोत इच्छा थी की नीता कुछ दिनों के लिए वहां रुकने के लिए आए।

नीता अपने परिवार को छोड़ जाना नहीं चाहती थी पर नानी मां को मना भी कैसे करती।

बाबा का भी मन भारी हो गया। बस शाम को नीता रामपूर के लिए अपने मामा के साथ रवाना हुइ।

नीता के बिना घर में रोनक ही नहीं थी।

पूरा घर मानो खामोशी में लिपट गया हो।

नीता के बिना बाबा को खाना फिका लगने लगा।

वो बाबा को जगाती, सुबह की चाय, नहाने के लिए गर्म पानी, और हाथ में सूर्य देव के लिए पानी का लौटा भी थमाती ।

आज हर एक चीज बाबा को नीता की याद दिलाती । दफ्तर का वो थेला और टिफिन तो मानो चीख चीखकर नीता के नाम पुकारते।

बेटी के बिना मां भी सूनी-सूनी हो गई। घर के काम करते समय नीता को आवाज लगा देती-

नीतु, यहां आना जरा...

२_३ दिन बाद दादी मां चल बसी ।यह दु:खद समाचार नीता सुनते ही खुद को रोक ना पाई।

अपने परिजनों को साथ घर वापस आई और दादी को अंतिम विदाई दी।

जीवन- मृत्यु का यह खेल वो समझ ही ना पाई। दादीजी का मृत्यु उसके मन पर गहरी छाप छोड़ गया।

उसने सुना था कि, -

स्वर्गीय व्यक्ति के नाम से अच्छे काम करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है।

फिर उसने तय कर लिया कि रोज सुबह वो गाय को चारा देगी।

पहले वो रोज दादी मां के साथ मंदिर जाती और दादी मां के बाद भी वो‌ उनके लिए दुआएं मांगने मंदिर जाती।

दादी मां के रूप में उसने एक सहेली खो दी। इस तरह दादी मां की मृत्यु ने उसे विचलित कर दीया।

उसने कभी यह नहीं सोचा था कि, मौत के बाद उस व्यक्ति को देखने के लिए तरस जाएंगे।

वो अक्सर अपनी दादी मां की चश्मा अपने पास रखती। जब भी दादी मां की याद आती उस डिब्बी को सीने से लगा लेती।

दिन बीतते बीतते नीता के ज़ख्म भी भरने लगे थे। वो हंसने-खिलने लगी थी।

शायद मिलना-बिछडना , जीवन  -मृत्य का खेल समझने लगी थी।

बचपन से यौवन तक के सफर में नीता के जीवन में खट्टे-मीठे प्रसंग आए। जो निता को जीवन के लिए गंभीर बनाते ग‌ए।

दादी मां के मृत्यु के बाद खुद को संभालना नीता के लिए आसन ना रहा

................

भाग_२ दुनिया के ताने

 काश, ताने मारने वाले जरा सोचते कि उनके तानो का उस व्यक्ति पर क्या असर होगा।

       एक दिन नीता, अपनी अम्मा के साथ सब्जी मंडी ग‌इ।

        घर से सब्जी मंडी तक के सफ़र में नीता ने बहुत कुछ देखा । 

     कभी दो सहेलियों का मिलन तो कभी आपसी तकरार , कभी हंसते- खेलते छोटे बच्चे तो आगे बढ़ते ही उसने भुखे और रोते बच्चे देखें , कभी वैवाहिक जीवन का प्रेम तो‌ कभी असहाय वृद्ध माता-पिता को देखा।

         हर एक चीज उसके मन‌ पर गहरी छाप छोड़ रही थी।

    देखते ही देखते सब्जी मंडी आ गई। इतनी भीड़ , जाने पूरी दुनिया वहां पर आ पहोंची हो।

 कहीं से आवाज आने लगी,

     ओ बहन,  टमाटर लीजिए, रसीले - रसीले ।

तो दुसरा बोलने लगा - ५० में २ किलो आलू ले लो , बहन ताजी मूली ले लो ।

        मां ने एक बुजुर्ग के पास से सब्जी ली।

मां नीता को भी सीखा रही थी।

  " सुन नीतु , हमें हरी सब्जी ही लेनी चाहिए। ताज़ा ताज़ा।

   नीता भी मां की सारी बातें ध्यान से सुन रही थी।

   थोड़े कदम आगे बढ़ते ही मां की सहेली उनसे मिली । दोनों ने एक दुसरे का हाल चाल पूछा थोड़ी सी बात की , नीता बस चुपचाप सुन ही रही थी ।

  नीता की और देखते हुए सहेली नी नीता की मां से पूछा - "बेटी नीता, पढ़ाई कैसी चल रही हैं"?

       नीता मां की और देखने लगी इतने में मां बोली , - "जी , नीता ने पढ़ाई छोड़ दी" ।

    "अरे, ठीक है, वैसे मेरी बेटी तो १० वी परीक्षा देने वाली है । बहोत होशियार है मेरी बेटी !" - सहेली बोली

       

        "तुम्हारी बेटी समझदार तो है, पर पढ़ी- लीखी नहीं है। आजकल तो लड़कों को पढ़ी-लीखी लड़की चाहिए। "

         सहेली की एक एक बात नीता के दिल में जा लगी ।

    मां ने सिर पर हाथ रख कहा - "बेटा, इनकी बातों को ध्यान ना दें । चल घर चलते हैं।"

    नीता भी झूठी मुस्कान के साथ बोली- " हां , मां ।

     पर एक एक कदम उसे भारी लगे रहा था । वो हैं ताने सहन ना कर पाई। मन बिल्कुल टूट चूका था। खुद को कमजोर समझने लगी।

    नीता ने ६ वीं तक ही पढ़ाई की थी। बार बार फैल होने के कारण उसने पढ़ाई छोड़ दी।

 मां- बाबा ने भी कभी जबरदस्ती न की इस बारे में। 

    नीता को तभी मालूम ही ना था की पढ़ाई ना करने पर दुनिया ताने मारेगी।

    शादी के लिए लड़की को संस्कारो और खानदानी की बदले डिग्री से नापा जाएगा।

     यह बात भी नीता ने जान ली ।

   नीता अंदर से पूरी तरह बिखरी हुई थी , पर मां- बाबुजी को पता ना चले इस लिए झूठी मुस्कान से खुद को समेटे हुए थी।

  हर बेटी को शाम अच्छी लगती हैं, क्युकी वो अपने साथ बाबु जी को साथ लाती हैं।

     नीता भी इंतजार कर रही थी बाबा का ।

   शाम के ७:२० होने पर दरवाजे से आवाज़ आइ। 

    "बेटी नीता, देख मैं तेरे लिए क्या लाया हुं"?

   नीता नजरें झुकाए हुए आने लगी ताकि बाबा जान ना ले कि नीता उदास है।

    पिता जी नीता की पसंदीदा रंग की फोर्क लाऐ थे।

  नीता मंद मुस्कुराहट के साथ फोर्क ले के चली गई। 

  बेटी का दर्द जानने के लिए पिता जी को शब्दों की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। 

  नीता की मां से पिताजी कहने लगे-

      " सुनो जी , आज नीता को आपने डांटा है?

किसी ने कुछ कहा है कि नीता को? आज नीता का चेहरा मुझे फिका लग रहा है।

      मां ने सब कुछ एक एक करके बताया।

    एक कमरा , जिस के एक कोने में नीता थी, पर नीता कि उदासियां पूरे कमरें में बिखरी हुई थी।

    " बेटा, तु मेरी जान हैं, तु तो मेरी दुनिया है!" कहकर बाबा ने शिर पर हाथ रखा।

    रोती हुई आंखों से नीता बोली- 

                 " बाबा , तुमने तो पढ़ाया पर मैं ही कमजोर रही , मेरे कारन आपको सुनना पड़ा।

  बेटी रोते रोते बाबा के सीने से आ लगी।

     " तु पागल हो गई है क्या?"- भरी भरी आंखों से बाबा कहने लगे।

   "तु कब से इन बातों में आने लगी? देख बेटा दुनिया जो भी कहें , तु मेरी गुड़िया है, तु‌ कमजोर नहीं हो सकती।

      "  तु अशिक्षित पर तु अन्नपूर्णा है"

           तुझे तो मां अन्नपूर्णा ने खुद डिग्री दी है,

इसे अपनी ताकत बना , कमजोरी नहीं।

    दुनिया से जितना डरेगी , दुनिया तुझे उतना सताएगी । दुनिया की आंखों से आंखें मिलाकर चल बेटा।"

    पिता जी के बातें  से नीता को जीवन के न‌ए उद्देश्य मिले । उसने यह बात मन में गांठ बांध ली की , मां अन्नपूर्णा की असीम कृपा है उस पर। 

            अशिक्षित हुं,(पर) अन्नपूर्णा हुं

           इसे अपने जीवन का नारा बना लिया था।

     उसने यह बात भी स्वीकार कर ली थी कि वो अनपढ़ हैं। 

    उसने न‌ए ख्वाब सजाए, न‌ए सपने देखे।

  नीता ने भरतकाम शीखा और घर बैठे २० -३० रुपए कमाने लगी ।

     वे थोड़े थोड़े करके पैसा इकट्ठा करने लगी अपने सपनों की खातिर। 

      इस तरह नीता ने अपने आप को संभाल लिया।


  भाग-३ नीता बनी अन्नपूर्णा



   नीता ने अपने सपनों को पूरा करने की कोशिश लगातार जारी रखी।वे अब सिलाई भी करने लगी थी। उसने धीरे धीरे २ सालों में निमित्त रकम जमा कर ली थी।

     नीता ने एक छोटा सा कमरा बनाया और आगे ही बड़ी लोबी बनाई।

   २_३ महीने बाद सुदर सी अन्न शाला बनके तैयार हो गई।

  वसंत पंचमी के शुभ अवसर पर अपने माता-पिता की उपस्थिति में उदघाटन किया।

    नीता सुबह आती थोड़ी सफाई करती फिर खाना पकाती । धीरे-धीरे वहां भूखे बच्चे, वृद्ध और कोई प्रवासी आने लगे, पेट भर खाना खाते और नीता को बहोत सी दुआएं देते।

         यह बात क‌इ गांव में फैल गई। वहां के मुखिया तथा शेठ लोग फंड इकट्ठा करते और नीता को सौंप देते।इसी तरह नीति सबको‌ मुफ्त में खाना खिलाती और करोड़ों की दुआएं पाती

      शायद पढ़े लिखे लोग भी यह काम ना कर शके वे काम नीता जो‌ अनपढ़ थी उसने कर दिखाया।

         अशिक्षित हुं (पर) अन्नपूर्णा हुं


   मिट्टी के आंगन में, सोने की चिड़िया सी

 बेटी वो घर की, किरदार में मां सी...


एक थी कमी, कम थी पढ़ी-लिखी

दुनिया से मिलते, ' गंवार' के ताने,


बंद कमरे में सिसकती रोने लगी,

खिड़कियां उदासियां उसकी कहने लगी।

देख पिता ने गले से लगाया,

" तु अशिक्षित ही सही पर मेरी अन्नपूर्णा है, 


'अशिक्षित पर अन्नपूर्णा' को जीवन लक्ष समझा, पाइ-पाइ जोड़ अन्नशाला बनाई

मुफ्त में खाना खिलाकर, करोड़ों की दुआएं पाई।

    देख रे दुनिया ,वो ही अनपढ़ , गंवार..

 आज भूखनाशक अन्नपूर्णा बनी....


  ‌आज समाज में कम पढ़े लिखे लोगों को वे आदर, सम्मान नहीं दिया जाता। हमें अपना दृष्टिकोण ज़रूर बदलना चाहिए।

          

   

          

    

           

           


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अन्नपूर्णा
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यह कहानी एक बेटी की है।जो कम पढ़ी-लिखी है। दुनिया के ताने लगातार उसे कमजोर करते हैं।पर उसने हिम्मत नहीं हारी। और किस तरह से वे अनपढ़, गंवार एक अन्नपूर्णा बनती है यह दिखाया गया है

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